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जानिए कौन हैं नरेंद्र मोदी के 'वकील साहब', जिनका गहरा असर मोदी पर रहा है

बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के शुरुआती जीवन पर आरएसएस के जिस वरिष्ठ नेता का सबसे गहरा असर रहा, वे उनके लिए पिता तुल्य थे.

अपडेटेड 19 मई , 2014
नरेंद्र मोदी ने पहली बार 18 अगस्त, 2001 को सार्वजनिक रूप से दिल्ली के 7 रेसकोर्स रोड में कदम रखा था. उन दिनों वे दिल्ली में बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव हुआ करते थे और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में अपने प्रेरणास्रोत लक्ष्मणराव इनामदार के बारे में लिखी किताब का विमोचन कराने आए थे. सेतुबंध में मोदी ने इनामदार की तुलना श्रीलंका के लिए भगवान राम के बनाए पौराणिक सेतु से की थी.

इनामदार का 1984 में निधन हो गया था. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भी संघ के इस वयोवृद्ध कार्यकर्ता को भावभीनी श्रद्धांजलि देकर संघ के प्रचारक से प्रधानमंत्री बने पहले कार्यकर्ता के रूप में अपनी पहचान पक्की की. एक दशक से भी ज्यादा समय बाद मोदी देशभर में हवाई यात्राओं के जरिए एक के बाद एक रैलियों को संबोधित करते हुए एक बार फिर प्रधानमंत्री निवास से अपने गुरु का आभार व्यक्त करने के लिए उतावले नजर आते हैं.

गुरु और शिष्य
मोदी की जीवनकथा बहुत ही निराली है. गुजरात के वडऩगर कस्बे में चाय बेचने वाले दामोदरदास मोदी के जिद्दी और मजबूत इरादे वाले इस पुत्र ने अपनी लगन और कड़ी मेहनत के दम पर पहले संघ और फिर बीजेपी में कद हासिल किया. आपको लगता होगा कि मोदी ने सिर्फ सरदार पटेल की कांस्य प्रतिमाओं और स्वामी विवेकानंद के कैलेंडरों से प्रेरणा ली है. लेकिन वकील साहब कहलाने वाले इनामदार का जिक्र आने पर कहानी में टर्निंग पॉइंट आ जाता है.

बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारणी के सदस्य शेषाद्रि चारी के अनुसार, ‘‘नरेंद्र मोदी ने अपने शुरुआती साल संघ में गुजारे और उन पर सबसे ज्यादा असर वकील साहब का रहा.’’ ईनामदार की जीवनकथा सहित मोदी की चार पुस्तकों के प्रकाशक प्रभात कुमार का कहना था कि ‘‘मोदी अपने पूरे व्यक्तित्व का श्रेय वकील साहब को देते हैं.’’ उन दोनों की एक साथ जो थोड़ी-बहुत तस्वीरें मिलती हैं उनमें मोदी की मुस्कान बहुत सौम्य है. 2013 में आई मोदी की जीवनी द मैन, द टाइम्स के लेखक नीलांजन मुखोपाध्याय को लगता है कि इनामदार के प्रति मोदी की श्रद्धा अगाध है, ‘‘मैंने मोदी के मन में किसी और जीवित या मृत व्यक्ति के प्रति ऐसी श्रद्धा नहीं देखी.’’

इनामदार से मोदी 1960 के शुरू में लड़कपन में पहली बार मिले थे. 1943 से गुजरात में नियुक्त इनामदार संघ के प्रांत प्रचारक थे जो नगर-नगर घूमकर लड़कों को शाखाओं में आने के लिए प्रोत्साहित करते थे. उन्होंने धाराप्रवाह गुजराती में जब वडऩगर में सभाओं को संबोधित किया तो मोदी अपने भावी गुरु की वाक्पटुता पर मुग्ध हो गए.

 मोदी ने 2008 में इनामदार सहित संघ की 16 महान हस्तियों की आत्मकथा का संकलन ज्योतिपुंज प्रकाशित करवाया था. उसमें उन्होंने लिखा है, ‘‘वकील साहब में दैनिक जीवन के उदाहरणों के सहारे अपने श्रोताओं को अपनी बात समझाने का कौशल था.’’ मोदी ने उदाहरण देकर बताया कि किस तरह इनामदार ने एक अनमने आरएसएस कार्यकर्ता को काम शुरू करने के लिए राजी किया, ‘‘अगर तुम बजा सकते हो तो यह  बांसुरी है वरना सिर्फ लकड़ी है.’’

इनामदार का जन्म 1917 में पुणे से 130 किलोमीटर दक्षिण में खाटव गांव में हुआ था. एक सरकारी राजस्व अधिकारी की दस संतानों में से एक इनामदार ने 1943 में पुणे यूनिवर्सिटी से कानून की डिग्री लेते ही संघ का दामन थाम लिया था. उन्होंने स्वाधीनता संग्राम में हिस्सा लिया और हैदराबाद में निजाम के शासन के खिलाफ मोर्चे निकाले. वे गुजरात में आरएसएस के प्रचारक के नाते आजीवन अविवाहित और सादे जीवन के नियम का पालन करते रहे.

अप्रैल में आई किताब नरेंद्र मोदीः अ पॉलिटिकल बायोग्राफी के लेखक एंडी मरीनो का मानना है कि संघ पर मोदी का बढ़ता ध्यान और वकील साहब से घनिष्ठता पिता दामोदरदास के साथ उनके टकराव की वजह भी रही. मरीनो ने लिखा है, ‘‘अकसर पिता अपने पुत्रों को अपने असर से बाहर बड़ा होते देखते हैं और कभी-कभी प्रेम संबंधों की वजह से तनाव हो जाता है.

जब पिता की जगह कोई दूसरी हस्ती लेने लगती है और खासकर जब वकील साहब जैसा कोई स्थानीय रूप से चर्चित व्यक्तित्व वह जगह लेने लगे तो चोट ज्यादा गहरी हो सकती है और पिता को ऐसा लग सकता है कि उनकी उपयोगिता नहीं रही और भावनात्मक रूप से ठेस गहरी हो सकती है.’’

संघ में मोदी का सफर
मोदी ने 17 साल की उम्र में 1969 में हाइस्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद वडऩगर में अपना घर छोड़ दिया. 2014 में प्रकाशित किशोर मकवाना की पुस्तक कॉमन मैन नरेंद्र मोदी में उन्होंने बताया है, ‘‘मैं कुछ करना चाहता था लेकिन जानता नहीं था कि क्या करूं.’’ उन्होंने राजकोट में रामकृष्ण मिशन आश्रम से यात्रा शुरू की और कोलकाता के निकट हुगली के किनारे बेल्लूर मठ जा पहुंचे.

कुछ समय रामकृष्ण मिशन के मुख्यालय में बिताया, फिर गुवाहाटी चले गए. बाद में वे अल्मोड़ा में स्वामी विवेकानंद के एक और आश्रम में रहने लगे. दो साल बाद वडऩगर लौटे. कुछ दिन अपने घर में रहने के बाद मोदी फिर अहमदाबाद रवाना हो गए और अपने चाचा की चाय की दुकान में रहते हुए काम करने लगे. कुछ समय बाद यहीं पर उनका एक बार फिर वकील साहब से संपर्क हुआ जो शहर में संघ के मुख्यालय हेडगेवार भवन में रहते थे.

मुखोपाध्याय बताते हैं, ‘‘इनामदार मोदी के जीवन में दोबारा तब आए जब वे उलझन में थे. मोदी 1968 में अपनी शादी से बचने के लिए घर से निकल आए थे. वापस लौटने पर जब उन्होंने देखा कि बीवी इंतजार कर रही थी तो वे अहमदाबाद चले गए.’’ एक बार हेडगेवार भवन में अपने गुरु के संरक्षण में आने के बाद मोदी ने मुड़कर नहीं देखा.

संघ की संस्कृति में व्यक्ति से अधिक महत्व समूह-संगठन का है. इनामदार संघ की अनेक प्रतिष्ठित हस्तियों में से एक हैं. गुजरात में संघ के प्रवक्ता प्रदीप जैन के अनुसार, ‘‘उनके जैसे अनेक स्वयंसेवक हुए हैं जिन्होंने स्वयं को संघ में विलीन कर दिया.’’

अगर हेडगेवार भवन में निचली मंजिल पर 100 वर्ग फुट के उस कमरे को देखा जाए जहां इनामदार रहा करते थे तो कोई खास बात नजर नहीं आती सिवाय उस पर लाल रंग से लिखे अंक 1 के. इससे पता चलता है कि राज्य इकाई में उनकी हैसियत अव्वल थी. इस कमरे में अब तीन प्रचारक रहते हैं. वहां संघ के घनी मूंछों वाले मार्गदर्शक संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार और उनके उत्तराधिकारी एम.एस. गोलवलकर की तस्वीरें लगी हुई हैं.

इनामदार ने संघ के हजारों कार्यकर्ताओं के जीवन को दिशा दी. वे अकसर रात के खाने पर उनके परिवारों से मिला करते थे. मोदी अपने गुरु के कक्ष के सामने कमरा नंबर 3 में रहते थे. हेडगेवार भवन में उनकी शुरुआत सबसे निचले स्तर से हुई. वे पौ फटते ही बिस्तर छोड़ देते थे, प्रचारकों के लिए चाय बनाते थे. उस समय पूरे कॉम्प्लेक्स (तब एक मंजिला इमारत हुआ  करती थी) की सफाई करते थे और गुरु के कपड़े धोते थे. यह सिलसिला एक साल तक चला.

मोदी ने बड़े करीब से देखा कि वकील साहब किस तरह राज्यभर में संघ का प्रचार करते थे. दरम्यानी कद-काठी वाले इनामदार हमेशा सफेद धोती-कुर्ता पहना करते थे. बहुत पढ़ते थे और अपने साथ एक ट्रांजिस्टर रेडियो रखते थे जिस पर बीबीसी वर्ल्ड सर्विस नियमित रूप से सुनते थे. जवानी में कबड्डी और खो-खो खेलने का शौक था लेकिन बाद में प्राणायाम से खुद को स्वस्थ रखते थे. इनामदार का स्वभाव दोस्ताना और बहुत ही सहज था, जब थोड़ा-बहुत खीझ जाते थे तो ‘‘भले मानस’’ कहा करते थे.

लेकिन इस सादे चेहरे के पीछे एक कठोर संगठन निर्माता और नेटवर्कर छिपा था. 1972 में उन्होंने औपचारिक रूप से नरेंद्र भाई मोदी को संघ का प्रचारक बना दिया. पिता तुल्य इनामदार ने तब तक मोदी को बीए की डिग्री के लिए नाम लिखाने पर राजी कर लिया था. उन्होंने कहा, ‘‘नरेंद्र भाई, ईश्वर ने तुम्हें कई गुण उपहार में दिए हैं, तुम आगे क्यों नहीं पढ़ते?’’ वकील साहब ने अपने शिष्य को दिल्ली यूनिवर्सिटी के कोर्स की सामग्री लाकर दी. 1973 में मोदी ने राजनीति विज्ञान में बीए की डिग्री हासिल कर ली.

मरीनो ने इंडिया टुडे को बताया, ‘‘वकील साहब असल में गुजरात में संघ के जनक थे. मोदी के घर छोडऩे और अहमदाबाद आने के बाद से उन्होंने उनके पिता की जगह भी ले ली थी.’’ हो सकता है कि संघ के इस अनुभवी प्रचारक ने भांप लिया हो कि मोदी की संगठनात्मक क्षमताएं संघ के कितने काम आएंगी.

लक्ष्मणराव के एकमात्र जीवित 85 वर्षीय सहोदर गजानन इनामदार अहमदाबाद इलेक्ट्रिक कंपनी से रिटायर हुए हैं. उन्होंने याद करते हुए बताया कि घनी काली दाढ़ी वाला मजबूत कद-काठी का नौजवान 1970 के दशक के शुरू में अपने क्रीम कलर के बजाज स्कूटर पर उनके भाई को छोडऩे आया करता था और दस साल के उनके बेटे दीपक को स्कूटर चलाना सिखाता था.

1975 में आपातकाल की घोषणा होने के बाद मोदी के जीवन ने मोड़ ले लिया. संघ पर प्रतिबंध लग गया और देशभर में पुलिस ने उसके कार्यकर्ताओं को धर दबोचा. इनामदार और उनके शिष्य मोदी अंडरग्राउंड (भूमिगत) हो गए. उन्होंने अगले कुछ महीने भेस बदलकर बिताए. इनामदार ने धोती-कुर्ते की जगह कुर्ता-पाजामा पहनना शुरू कर दिया.

मोदी ने दो भेस धारण किए, एक सिख का और एक संन्यासी का, ताकि पुलिस को चकमा दे सकें. संघ के दूसरे कार्यकर्ताओं की तरह वे संघ के शुभचिंतकों के घरों में रहते थे जिससे पुलिस के लिए उन्हें पकड़ पाना मुश्किल था.

आपातकाल के दौरान भी संघ को जिंदा रखने की मोदी की कोशिशों ने उनके जीवन को नई गति दी. उसके बाद संघ में वे एक के बाद एक सीढिय़ां चढ़ते गए. उन्हें वडोदरा जिले का विभाग प्रचारक बनाकर वडोदरा भेज दिया गया और 1979 तक वे नाडियाड, डांग और पंचमहल जिलों के संभाग प्रचारक हो गए. अपने गुरु की इच्छा का सम्मान करते हुए मोदी ने 1982 में गुजरात यूनिवर्सिटी से राजनीति विज्ञान में एमए किया.

1980 के दशक के शुरू में इनामदार संघ के वरिष्ठ अधिकारी के रूप में पुणे में तैनात थे. उन्हें जानलेवा कैंसर होने का पता चला. वे अंत तक संघ का काम करते रहे. उनके पुराने सहयोगी कीर्तिभाई पंचोली बताते हैं, ‘‘अपने निधन से पहले राजकोट में अपनी अंतिम जनसभा में उन्होंने श्रोताओं से नियम तोड़कर घूंटभर पानी पीने के लिए क्षमा मांगी थी.’’
गुजरात में सोमनाथ मंदिर में संघ प्रचारकों के साथ मोदी (दाएं)
अपने सहारे मोदी
इनामदार की मौत ने मोदी के जीवन में खालीपन भर दिया. यह खालीपन कितना गहरा था, उन्होंने मरीनो को बताया. वे एकमात्र शख्स थे जिनसे मोदी अपने मन की बात करते थे. उन्होंने कहा, ‘‘उन दिनों मुझे जब भी कोई समस्या आती थी तो मैं उनसे बात करता था. अब अपनी सोच की प्रक्रिया में मैं ऑटोपायलट हूं.’’

लेकिन वकील साहब अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, एक बार फिर उनका सहारा बने. अहमदाबाद के बाहरी इलाके में लड़कों के लिए रिहाइशी हाइस्कूल बनाने के प्रोजेक्ट में इनामदार मोदी की प्रेरणा थे. शंकर सिंह वाघेला ने गुजरात बीजेपी में मोदी को किनारे कर दिया था.

मरीनो ने लिखा है कि मोदी ने सारी ऊर्जा संस्कारधाम के निर्माण में लगा दी जिसका उद्घाटन 1992 में हुआ. 125 एकड़ में फैले कैंपस में लक्ष्मण ज्ञानपीठ सेकंडरी स्कूल है. मोदी अपने मुख्यमंत्रित्व काल में जिस गुजरात मॉडल की बात करते हैं, उसका एक उदाहरण यह प्रोजेक्ट भी है.

किशोर मकवाना का कहना है कि इनामदार का योगदान इससे कहीं ज्यादा है, ‘‘मोदी ने वकील साहब का संगठनात्मक कौशल, जनता से संपर्क, हजारों नाम और छोटी से छोटी बात याद रखने की क्षमता विरासत में पाई है.’’

मोदी के पास मौजूद सबसे कीमती चीजों में उनके गुरु की डायरियां भी हैं. इनामदार दशकों तक अपने दैनिक अनुभव डायरी में लिखते रहे. मोदी ने पिछले साल बताया कि 1980 के दशक के मध्य से वे भी रोजाना डायरी लिखते हैं. अगर मोदी सत्ता पीठ तक पहुंच गए तो 7 रेसकोर्स आने वाले सामान में लक्ष्मणराव इनामदार की डायरियां भी हो सकती हैं. यह उनके गुरु के उपदेश का काम करेंगी.
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