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चंदा उगाही तक सीमित नक्सलवाद

जल, जंगल और जमीन का नारा देकर नक्सली आदिवासियों को लगातार छल रहे हैं. हर आदिवासी को अपनी कमाई का एक हिस्सा इन्हें देना पड़ता है.

अपडेटेड 24 मार्च , 2014
संपूर्ण भारतवर्ष में नक्सलवाद की समस्या राष्ट्रीय स्तर पर लगातार बढ़ती जा रही है. नक्सलवाद एक विचारधारा है और इस विचारधारा को मानने वाले अब लोकतंत्र पर हमला करने में लगे हैं, जिससे भारतीय लोकतंत्र खतरे में है. इसकी मिसाल 11 मार्च 2014 और इससे पहले 25 मई, 2013 को झीरमघाटी की नक्सली हमले की घटनाएं हैं.

पिछले साल की घटना में छत्तीसगढ़ प्रदेश के शीर्षस्थ कांग्रेसी नेतागण महेंद्र कर्मा, नंद कुमार पटेल, विद्याचरण शुक्ल समेत 32 लोग शहीद हुए थे. इससे पूरा देश शोक में था. इस घटना से पूरे देश में लोग डरे-सहमे नजर आए. ऐसी विषम परिस्थिति में हमारे परिवार ने धैर्य का परिचय दिया.

हिंदुस्तान के जिन प्रदेशों में नक्सलवाद की समस्या है, वहां की सरकारें इस समस्या के समाधान के लिए क्या सोच रही हैं यह मुझे नहीं मालूम, पर मेरा यह मानना है कि जिन राज्यों में नक्सलवाद की समस्या है, वहां सरकारों को क्षेत्र में विकास की रणनीति के तहत शिक्षा, रोजगार और मूलभूत सुविधाएं देनी चाहिए.

नक्सली उन्हीं क्षेत्रों में पैर पसारते हैं जहां की भौगोलिक स्थिति उनके माकूल है और वहां की आबादी अशिक्षित है. आज की स्थिति बहुत अविश्वसनीय है. दूरस्थ क्षेत्र की आबादी सरकार को ढूंढ़ती है. उन्हें सरकार तो नहीं मिलती पर बीहड़ों में नक्सली आसानी से जरूर मिल जाते हैं. मेरा मानना है कि हिंदुस्तान के हर अंतिम व्यक्ति तक सरकार पहुंचे ताकि नक्सलवाद का अंत हो.

नक्सलवाद का उद्देश्य शासन के विरुद्ध जनयुद्ध की परिकल्पना थी. आज इसका अर्थ सिर्फ चंदा उगाही और पुलिसबलों पर हमला करके हथियार लूटना है. नक्सली चाहते हैं कि आदिवासी अनपढ़ ही रहें और तरक्की न करें. नक्सलवादियों के इन्हीं मंसूबों को स्थानीय आदिवासी समझने लगे हैं. इसी बात को लेकर पिछले सालों में नक्सलियों के बीच बाहरी नक्सली और स्थानीय नक्सली का मुद्दा उठा था.

अब आदिवासी भी समझ्ने लगे हैं कि नक्सलवाद का यहां से कोई लेना-देना नहीं है. पड़ोसी राज्य के आयातित नक्सली यहां के आदिवासियों को गुमराह कर रहे हैं. अपने आपको आदिवासियों का हितैषी बताने वाले नक्सली पिछले 40 साल से बस्तर संभाग के आदिवासी क्षेत्रों में सिर्फ  चंदा उगाही कर बाहर ले जा रहे हैं.

अब तो वे यहां के मेहनतकश आदिवासियों से ही टैक्स वसूलने लगे हैं. आदिवासियों को डरा-धमकाकर अपने साथ मिलाना और उनके बच्चों को छोटी उम्र में ही नक्सली वर्दी पहना देना इनकी मनोदशा को उजागर करता है. साल के हर सीजन में उगाही/चंदा करने के वास्ते इनके लिए आदिवासी बहुलक्षेत्र अच्छा मार्केट साबित हो रहा है. जल, जंगल और जमीन का नाम लेकर ये आदिवासियों को निरंतर छल रहे हैं और उनका शोषण किया जा रहा है.

चाहे वह तेंदूपत्ता सीजन हो या दूसरा सीजन, हर किसी की कमाई का कुछ हिस्सा नक्सलियों को देना ही पड़ता है. देश में अधिकांश नक्सल प्रभावित क्षेत्र आदिवासी इलाकों में ही हैं, जहां खनिज संपदा और प्राकृतिक संसाधन प्रचुर मात्रा में हैं. इन पर भी नक्सलियों की गिद्ध दृष्टि है. इन क्षेत्रों में लगने वाले उद्योगों का वे पहले तो विरोध करते हैं और बाद में इन उद्योगों से ही नक्सलियों को चंदा मिलता रहता है.

यह देश के प्रजातंत्र और आंतरिक सुरक्षा के लिए नासूर है. समय रहते इसका समाधान अत्यंत जरूरी है. मेरे पापा जी (स्व. महेंद्र कर्मा) कहा करते थे, ‘‘मैं राजनीति में जीतूं या हारूं मगर नक्सलियों से हमेशा लड़ता रहूंगा. मेरा मानना है कि नक्सल समस्या के समाधान में कोई राजनीति नहीं होनी चाहिए.’’

इतने बड़े लोकतांत्रिक देश में बंदूक की नोक पर सत्ता हासिल करने की बात करना नक्सलियों की मानसिक विक्षिप्तता को दर्शाता है. नक्सली विचारधारा से इत्तेफाक रखने वाले कई बुद्धिजीवियों ने ‘‘सलवा जुडूम’’ और ग्रीन हंट आदि को सभ्य समाज के सामने गलत तरीके से पेश किया गया है, जिससे वह अपने अंजाम तक पहुंचने से पहले ही दम तोड़ चुका है. जबकि उक्त दोनों अभियानों को भोले-भाले आदिवासियों को नक्सलियों के भ्रामक जाल से निकालने के लिए शुरू किया गया था.

नक्सलवाद के समाधान के रूप में सर्वप्रथम नक्सलवाद के प्रचार प्रसार को रोकने और उनके सफेदपोश समर्थकों, शहरी नेटवर्क तथा स्थानीय मददगारों पर अंकुश लगाए जाने की जरूरत है. नक्सलवाद के खिलाफ  मौजूदा कानून नाकाफी हैं. नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सेंट्रल पुलिस की सैकड़ों कंपनियां हैं मगर सत्ताधारी पार्टी के नक्सली उन्मूलन की इच्छाशक्ति के अभाव में डिफेंसिव मोड में ही हैं.

इससे नक्सली समस्या लगातार बढ़ती ही जा रही है, साथ ही सेंट्रल पुलिस का मनोबल भी गिर रहा है. इसका फायदा नक्सली उठा रहे हैं. राज्य सरकार शुरू से ही नक्सल उन्मूलन की दिशा में कारगर कदम उठाती तो पिछले साल और फिर पिछले हफ्ते जीरम घाटी में इतनी बडी घटना न घटती.

कई बड़े नक्सली तो पुनर्वास नीति (सेरेंडर पॉलिसी) का भी फायदा उठा रहे हैं. कई नक्सली इसे रिटायरमेंट प्लान के रूप में देखते हैं. जिसका प्लान अच्छा लगा उसके सामने जाकर सरेंडर कर दिया. आजकल तो बड़े ओहदेदार नक्सली इसका फायदा उठा रहे हैं.

नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पुलिस और प्रशासनिक व्यवस्था को ईमानदारी से कार्य करने की आवश्यकता है. साथ ही जनता द्वारा चुने गए जनप्रतिनिधियों की भी नक्सल उन्मूलन में अहम भूमिका होनी चाहिए. आखिर हम कब तक इस भटकी हुई खूनी जंग को जारी रहने देंगे?

(लेखक 2013 में जीरमघाटी के नक्सली हमले में मारे गए कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा के बेटे हैं)
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