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जुनून और हौसले के दम पर बिहार की एक बंजर जमीन में उगाए चाय के बागान

एक वक्त किराए की सवा सौ स्क्वेयर फुट की कपड़ों की दुकान चलाने वाले युवा राजकरण ने चाय के बागान बनाने का ख्वाब देखा और बिहार की धरती को पहाड़ों की इस फसल के लिए उपजाऊ बना दिया

राजकरण दफ्तरी, 64 वर्ष, चेयरमैन, दफ्तरी ग्रुप
अपनी चाय के बागान में राजकरण दफ्तरी
अपडेटेड 14 दिसंबर , 2023

तीस-बत्तीस साल पहले की बात है. तब उनकी इसी किशनगंज शहर में कपड़ों की छोटी सी दुकान थी. एक जाने-माने पत्रकार उन दिनों किशनगंज के सांसद हुआ करते थे और तीन युवाओं ने मिलकर उनके नाम पर एक फैन क्लब बनाया हुआ था. सांसद जब भी किशनगंज आते, इन युवाओं से जरूर मिलते.

ऐसी ही यात्रा के दौरान सांसद ने इन्हें किशनगंज से सटे पश्चिम बंगाल के एक चाय बगान के फार्म हाउस में बुलाया, जहां वे ठहरे थे. जब वे वहां गए तो बगान की रौनक और व्यवस्था देखकर चकित रह गए. तभी उन्होंने एक सपना देखा कि उनका भी एक चाय बगान हो. मगर किसी और राज्य में नहीं, उनके अपने इलाके में.  

शुरुआती लगन अपनी पुरानी कपड़ों की दुकान पर राजकरण दफ्तरी (बाएं)

अगले दो साल में उन्होंने किशनगंज जिले में जमीन खरीदकर चाय की खेती शुरू कर दी. इस तरह वे बिहार में चाय की खेती शुरू करने वाले पहले आदमी बने. दो-तीन साल में ही उनकी यह खेती मुनाफा देने लगी. आज उनके और उनके वृहद परिवार के लोगों के तकरीबन 500 एकड़ के चाय बागान हैं. उन्होंने चाय प्रोसेसिंग की कंपनी खोल ली है.

उनकी चाय का अपना ब्रांड है, राजबाड़ी. बिहार सरकार उनके इस ब्रांड को बिहार की चाय के नाम से प्रोमोट करती है और देश भर के शीर्ष लोगों को बतौर उपहार भेजती है. उनकी इस शुरुआत के बाद किशनगंज जिले में 25 हजार एकड़ में चाय की खेती होने लगी है, दसियों टी प्रोसेसिंग यूनिट खुल गई हैं. और बिहार देश में चाय का छठा सबसे बड़ा उत्पादक राज्य बन गया है. 

अपने इस सपने को साकार करने वाले इंसान का नाम राजकरण दफ्तरी है. चाय की खेती ने उन्हें एक छोटे से कपड़ों के व्यापारी से किशनगंज जिले के सबसे बड़े उद्यमी और व्यापारी में बदल दिया है. शहर में उनके कई मॉल हैं, होटल हैं, एजेंसियां हैं. 

राजकरण दफ्तरी का परिवार मूलत: राजस्थान का रहने वाला है, उनके दादा काफी पहले व्यापार के सिलसिले में बिहार आ गए थे. उनके पिता 1955 में किशनगंज आकर बस गए. वहीं 1959 में उनका जन्म हुआ. इसलिए वे खुद को किशनगंज का ही बाशिंदा कहते हैं. उनके पिता कपड़ों के व्यापारी थे. 1977 में वे भी इस व्यापार से जुड़ गए. वे बंगाल के नवदीप से पैसेंजर ट्रेन में ढोकर साड़ियां लाते थे और किशनगंज आकर बेचते थे.

अपने इस अविस्मरणीय सफर के बारे में राजकरण दफ्तरी कहते हैं, "किशनगंज शहर में हमारी छोटी सी रेडिमेड कपड़ों की दुकान सवा सौ स्क्वेयर फुट की एक किराए की जगह पर चलती थी. दो कमरों का एक घर किराए पर था, जहां मेरे माता-पिता और चार भाई साथ रहते थे." राजकरण के घर की स्थिति अच्छी नहीं थी. ऐसे में उन्हें पढ़ाई के साथ-साथ 15 साल की उम्र से ही दुकान संभालनी पड़ी. वे कहते हैं, "सब कुछ ऐसे ही चलता रहता अगर उस रोज हम बंगाल के टी गार्डन में न ठहरते. यह 1990 की बात है."

मगर यह सफर इतनी आसानी से मुमकिन नहीं हुआ. किशनगंज के जिस इलाके में दफ्तरी ने सबसे पहले चाय की खेती के लिए जमीन खरीदी, वह इलाका हाइलैंड होने के कारण बंजर था. सिंचाई का अभाव था और लोग बहुत सस्ते में जमीन बेचने को तैयार हो जाते थे. वे कहते हैं, "मगर मुझे पता था, वहां चाय की खेती अच्छी हो सकती है.

इसलिए मैंने और मेरे परिवार के लोगों ने वहां से एक एकड़-दो एकड़ करके जमीन खरीदनी शुरू कर दी." चाय के बागान के लिए सैकड़ों एकड़ जमीन की जरूरत होती है. मगर बिहार में लैंड सीलिंग ऐक्ट के कारण ऐसा कर पाना मुमकिन नहीं था. ऐसे में दफ्तरी ने अपने परिवार के लोगों और दोस्तों को एकजुट कर सबसे थोड़ी-थोड़ी जमीन खरीदने को कहा, फिर उसका समूह बनाकर बागान लगवाए. दफ्तरी कहते हैं, "पश्चिम बंगाल में तो सरकार चाय बागान मालिक को हजारों एकड़ जमीन लीज पर देती है.

मगर बिहार में ऐसी नीति नहीं है. शुरुआत में एक नीति जरूर बनी कि हर चाय किसान को पांच-पांच एकड़ जमीन लीज पर दी जा सकती है. मगर फिर वह नीति भी बंद गई. हालांकि बहुत बाद में यह नीति फिर से लागू हुई है. ऐसे में मेरे पास और कोई उपाय भी नहीं था. चाय की खेती के लिए हमें ढेर सारी जमीन चाहिए थी. लोगों ने हमारी इस कोशिश की तारीफ तो नहीं की, मगर जल्द ही जमीन माफिया घोषित कर दिया."

एक समस्या और थी. दफ्तरी कहते हैं, "जब मेरे दिमाग में चाय बागान लगाने का ख्याल आया तो लोगों को लगता था कि किशनगंज में कैसे चाय की खेती हो सकती है, जबकि मैंने देखा कि किशनगंज शहर से सिर्फ 70 किमी दूर चाय के बागान हैं. बस वह इलाका पश्चिम बंगाल में पड़ता है." इस इलाके में बिहार और बंगाल के बीच डोक नदी बहती है.

तब डोक नदी के उस पार चाय के बागान थे, इस पार की जमीन बंजर पड़ी थी. दफ्तरी ने सोचा कि अगर वहां चाय की खेती हो सकती है तो इधर क्यों नहीं. इस इरादे के साथ सबसे पहले उन्होंने सीमावर्ती इलाके में अपने चाय बागान लगाए. बाद में टी बोर्ड की रिपोर्ट ने दफ्तरी को सही साबित किया और बताया कि किशनगंज जिले के पांच प्रखंडों में चाय की खेती के लायक जमीन है.

दफ्तरी ने साल 1992 में सबसे पहले पांच एकड़ जमीन पर चाय की खेती शुरू की. यह  किशनगंज के पोठिया प्रखंड की कालिदास पंचायत में थी. वहां उन्होंने शुरुआत में दो लाख चाय के पौधे लगवाए. वे बताते हैं, "पहले लोग हंसते थे कि बिजनेस छोड़कर खेती शुरू कर रहा है, वह भी ऐसे इलाके में जहां कभी चाय की खेती नहीं हुई. मैं खुद वहां की धरती पर खाली पांव चलता तो पांव जलते थे. समझ में आता था कि पानी चाहिए. चाय की खेती अमूमन ढलाऊ जमीन पर होती है. मतलब पानी चाहिए, मगर पानी जमे नहीं. वाटर लॉगिंग नहीं हो. इसके लिए हमने ड्रिप और स्प्रिंकलर तकनीक से सिंचाई शुरू की."

दिलचस्प है कि जमीन माफिया के नाम पर जहां एक ओर उनकी आलोचना की जा रही थी, वहीं दूसरी तरफ उनके काम को नोटिस भी किया जा रहा था. वे कहते हैं, "सबसे पहले इंडिया टुडे पत्रिका में मेरे इस काम की तारीफ छपी. उसके बाद 1998 में टी-बोर्ड ने इस इलाके का सर्वेक्षण किया और उसने किशनगंज के पांच प्रखंडों को चाय की खेती के लिए उपयुक्त पाया. फिर यहां कई लोगों ने अपना चाय बागान शुरू किया. यह इलाका चाय बगानों के तौर पर विकसित होने लगा."

पहले जब राजकरण चाय की खेती करते थे तो उन्हें या तो अपना माल पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल के किसी टी प्रोसेसिंग प्लांट में बेचना पड़ता या वहां जाकर चाय की प्रोसेसिंग करानी पड़ती. इससे उन्हें ठीक से लाभ नहीं होता. फिर 2000 में उन्होंने एपेक्स टी के नाम से एक चाय प्रोसेसिंग प्लांट की शुरुआत किशनगंज में की. उसके बाद किशनगंज में 12-13 टी प्रोसेसिंग प्लांट खुल गए हैं और स्थानीय किसानों को चाय प्रोसेसिंग कराने या बेचने के लिए बाहर नहीं जाना पड़ता.

दफ्तरी हर साल आठ-नौ लाख किलो चायपत्ती तैयार करते हैं और उनके पूरे कारोबार से एक हजार से अधिक लोगों को सीधा रोजगार मिला है. वहीं, उनकी ओर से चाय की खेती के लिए अनुकूल जमीन बना देने के बाद लगभग 50-60 हजार लोगों को रोजगार मिल रहा है.

फिर वे बिहार टी प्लांटर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष बने. उनका काम भी आगे बढ़ रहा था. कारोबार सफल हो रहा था. मगर उन दिनों बिहार में अपराधियों का बोलबाला था. ऐसे में 2003 में एक रोज उनके पास एक दबंग अपराधी ने रंगदारी की मांग कर दी. लोगों ने उन्हें सलाह दी कि सामने वाला बड़ा अपराधी है, कुछ भी कर सकता है. मगर उन्होंने सोचा कि अगर एक बार उन्होंने पैसे दे दिए तो यह प्रचलन जैसा बन जाएगा. हर कोई जब तब पैसे मांगने लगेगा. इसलिए उन्होंने जिला प्रशासन से मदद ली. उन्हें सुरक्षा गार्ड उपलब्ध कराया गया. वह सुरक्षा उनके पास काफी दिनों तक रही.

आज वे पूरे शहर में अकेले घूमते हैं. जगह-जगह उनके शॉपिंग मॉल और कारोबार फैला है, जिन्हें उनके और उनके भाइयों के नौ बच्चे संभालते हैं. उनका फोकस बस अपने चाय बागानों पर रहता है. दूसरे कारोबारों में सिर्फ वे प्लानिंग करते हैं. किशनगंज अब चाय के साथ-साथ अनानास और ड्रैगन फ्रूट जैसे फलों की खेती के लिए भी मशहूर हो रहा है. ऐसे में उनका इरादा अब फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री शुरू करने का है.

बिहार सरकार का कृषि विभाग भी अब उनके काम की सराहना करने लगा है. उन्हें बिहार में चाय उत्पादन के ब्रांड एंबेस्डर के तौर पर पेश किया जाता है. कृषि विश्वविद्यालय की बैठकों में उन्हें बुलाया जाता है, सलाह ली जाती है.

इतने साल बाद कई चुनौतियों से लड़कर मिली सफलता का श्रेय वे अपनी भरी-पूरी जॉइंट फैमिली को देते हैं. अब 64 साल के हो चुके दफ्तरी की कारोबार के अलावा धर्म-कर्म में भी रुचि है. वे तेरापंथ धर्म संसद से जुड़े हैं और उनके लिए समय-समय पर आयोजन करवाते हैं. इसके अलावा उन्हें घूमने-फिरने और सभी भाइयों के परिवार के साथ वक्त बिताना अच्छा लगता है. वे अक्सर सपरिवार लंबी यात्राओं पर जाते हैं. दोस्तों से मिलते-जुलते हैं. उनके मित्र और किशनगंज में ही रहने वाले हिंदी के प्राध्यापक सजल प्रसाद उनके बारे में बताते हैं कि राजकरण बहुत शर्मीला था. मगर उसमें एक धुन थी. यही वजह है कि उसने बिहार में चाय की खेती जैसे असंभव काम को संभव कर दिखाया और तब कारोबार खड़ा किया, जब सबसे मुश्किल परिस्थितियां थीं.  

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