
बिहारशरीफ के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हुए अक्सर ऐसा होता था कि उन्हें कक्षा के बाहर खड़ा होना पड़ता था क्योंकि वे समय पर फीस नहीं भर पाते थे. 'मीडियागुरु' के संस्थापक और सीईओ संजय सलिल यह किस्सा सुनाते वक्त कहते हैं, ''मुझे तब लगता था कि ये दिन बदल जाएंगे. आज मेरा बेटा पंचम मेलबर्न यूनिवर्सिटी से पढ़ रहा है और बेटी दीया ने लंदन से पढ़ाई पूरी कर ली है. लेकिन हमारे वक्त तंगहाली थी."
नोएडा के सेक्टर-132 स्थित दफ्तर में संजय सलिल के अलावा करीब 10 लोग और दिखे जो मीडियागुरु के अगले कॉन्ट्रैक्ट पर काम कर रहे थे. संजय के टेबल की ऊंचाई जरूरत के मुताबिक कम-ज्यादा की जा सकती थी. संजय बताते हैं, "मैं हर एक घंटे बाद 10 मिनट खड़े होकर काम करता हूं इसलिए यह टेबल लगाई है." हालांकि बिहारशरीफ में पढ़ाई करते वक्त उनके पास सिर्फ नीचे बैठकर पढ़ने का ही विकल्प था.
बिहार के नालंदा से आने वाले संजय सलिल के पिता भरत प्रसाद सिंह बिहारशरीफ कचहरी में वकालत करते थे. घर में तीन भाई-बहन थे. लेकिन बिहारशरीफ में उनके किराए के घर में सभी चचेरे भाइयों को मिलाकर कुल 14 लोग रहते थे क्योंकि वहां पढ़ाई ठीक होती थी. मां के पैर में दर्द रहा करता था जिसकी वजह से संजय और उनके सभी भाई चूल्हे पर खाना बनाया करते थे.
कक्षा 7वीं में संजय सलिल का पूरा परिवार बिहारशरीफ से हिलसा आ गया क्योंकि यहां नई कचहरी बन गई थी. संजय याद करते हैं, ''हमारे घर हिंदी और अंग्रेजी दोनों अखबार आया करते थे. पिताजी का जोर था कि अंग्रेजी ठीक हो जाए. अनुवाद खूब करवाते थे. लेकिन इसी बहाने 12-13 साल की उम्र में ही हम इज्राएल और गजा की लड़ाई पर बहस करने लगे थे.’’
ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई हिलसा में पूरी करने के बाद 1991 में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में प्रवेश मिला. लेकिन इससे पहले संजय होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई करने के लिए भोपाल आ चुके थे. लालच था कि गोवा के पांच सितारा होटल में काम करने का मौका मिलेगा. लेकिन 27 दिन में ही छोड़कर घर लौट आए. दो वजहें थीं—रैगिंग और वहां किसी का अखबार नहीं पढ़ना. पत्रकारिता में आना संजय के लिए सपना था और घर वालों के लिए वह पुल जिसके जरिए उनका बेटा आइएएस अफसर बन जाता.
संजय माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पहले बैच (1991-92) के छात्र थे. किताबें पढ़ना, अपना अखबार बनाना-यूनिवर्सिटी के दिनों में उन्होंने यह काम खूब किया. पढ़ाई पूरी करने के बाद भोपाल से पटना हिंदुस्तान में इंटर्निशिप करने पहुंचे. बडेर पर्दे पर पत्रकारिता करने की चाह लिए उन्होंने दिल्ली जाने का मन बनाया. लेकिन बीच में मेरठ ने रोक लिया. जहां अमर उजाला में सब-एडिटर के तौर पर नौकरी लगी. संजय कहते हैं, ''अमर उजाला मेरठ में पहली नौकरी मिली. 2,500 रुपए तनख्वाह मिलती थी. लेकिन मैं खुश नहीं था क्योंकि दिल्ली जाने के लिए परेशान था.’’

एक साल बाद, 1993 में वे अमर उजाला की नौकरी छोड़ दिल्ली पहुंच गए. नौकरी की तलाश में भटके. एक दिन उनकी मुलाकात संतोष भारतीय से हुई, जिनकी समाचार एजेंसी हेडलाइंस टुडे में उन्हें दूसरी नौकरी मिली. यहां रहते हुए पत्रकारिता से इतर प्रबंधन से लेकर सेल्स तक के गुर सीखे. यहीं उन्होंने अलग-अलग अखबारों को अपना क्लाइंट बनाया. इस वक्त संजय की वह ट्रेनिंग हो रही थी जो कुछ सालों बाद मीडियागुरु की नींव रखते वक्त काम आई.
इस दौरान संजय अपने दोस्त चंदन के साथ दिल्ली के पटपड़गंज में एक अपार्टमेंट में किराए के कमरे में रहते थे. चंदन के जरिए उनकी मुलाकात एक आइटी कंपनी में काम करने वालीं, मूलत: ऋषिकेश की दीप्ति गर्ग से हुई. पहली मुलाकात के बाद बातचीत शुरू हुई.
दोनों ने एक दिन तय किया कि अब जीवन भर साथ रहेंगे. दीप्ति के घर वाले राजी तो थे लेकिन लड़का पत्रकारिता में है, कमाई ज्यादा नहीं होगी, इस बात का डर था. संजय के हिस्से आया घरेलू विरोध. मां-बाप ने लोक-लिहाज के डर से अंतर्जातीय विवाह से असहमति जताई. हालांकि घर वालों की मर्जी के खिलाफ जाकर संजय-दीप्ति ने एक मंदिर में नवंबर, 1995 में शादी कर ली.
जनवरी 1996 में संजय ने टीवी टुडे ग्रुप जॉइन किया. निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर की गई स्टोरी ने उन्हें बतौर विशेष संवाददाता की नौकरी दिलाई. उन दिनों दूरदर्शन पर टीवी टुडे ग्रुप को 'गुड मॉर्निग टुडे’ नाम का मॉर्निग शो मिला था. उन्हें इस प्रोग्राम का हेड बनाया गया. इसी कार्यक्रम में 3 मिनट का एक न्यूज सेगमेंट जोड़ा गया जिसकी ऐंकरिंग संजय को मिली. एक साल के भीतर टीवी टुडे ग्रुप में उन्हें चार बार पदोन्नति मिली. यहां प्रोग्राम हेड से लेकर ऐंकर के तौर पर उनकी पहचान स्थापित हुई.
पांच साल बाद संजय की राह अलग हो गई. एक उर्दू टीवी चैनल शुरू होने वाला था, जिसमें संजय शामिल रहे. लेकिन लॉन्च कामयाब न हुआ. इसके बाद उन्होंने तय कर लिया कि अब वे खुद का ही काम शुरू करेंगे. और फिर 2003-04 के दौरान उन्होंने मीडियागुरु की नींव रखी. इस कंपनी ने अलग-अलग चैनलों के प्रोग्राम की लॉचिंग की बागडोर संभाली. देखते ही देखते मीडिया कंसल्टेंसी का यह काम सफल रहा और तेजी से बढ़ने लगा.
मीडियागुरु अब तक न सिर्फ देश बल्कि पूरी दुनिया में अपने काम की छाप छोड़ चुका है. बांग्लादेश, सिंगापुर, संयुक्त अरब अमीरात, कतर और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों में अलग-अलग चैनलों के लॉन्च का काम कर चुका है. बीते कुछ वर्षों में मीडियागुरु ने चैनलों के आर्काइव के डिजिटाइजेशन का काम भी शुरू किया है. संजय क्वांटम और एआइ तकनीक पर काम कर रही कंपनी 'इंटेलएआइ’ के सीईओ भी बन चुके हैं. इस कंपनी के को-फाउंडर हैं उत्पल चक्रवर्ती.
यह कंपनी एक ऐसे सॉफ्टवेयर पर काम कर रही है जो किसी मीटिंग के खत्म होने के साथ 'मिनट्स ऑफ द मीटिंग’ बना पाने में सक्षम होगा. इससे मीटिंग के किसी भी पॉइंट की जानकारी आसानी से मिल पाएगी. संजय सलिल को उम्मीद है कि इस प्रोजेक्ट की कामयाबी मीडियागुरु के स्तर को और ऊंचा करेगी.
200 लोगों की टीम वाली इस कंपनी का नेटवर्थ 60-70 करोड़ रुपए है, जबकि रेवेन्यू के मामले में कंपनी 150-160 करोड़ रुपए के करीब है. उनका अगला लक्ष्य इस आंकड़े को 500 करोड़ रुपए तक पहुंचाने का है. वे बताते हैं, "कोविड-19 के साल मुश्किल भरे थे. काम बहुत कम मिल रहा था. नुक्सान के बावजूद हमने एक भी व्यक्ति को कंपनी से नहीं निकाला. सारे सहयोगियों की सहमति से वेतन में कुछ कमी जरूर की गई."
संजय सलिल की कामयाबी पर उनके दोस्त और नेटवर्क18 मीडिया के सीटीओ रजत निगम कहते हैं, "संजय के कामयाब कारोबारी होने के पीछे उनका आत्मविश्वास, रचनात्मकता और पेशेवर कौशल है. प्रतिभाओं की परख और नए लोगों को साथ जोड़ने की उत्सुकता उनकी सफलता की सबसे बड़ी वजह रही है."
रोज एक घंटे तक जिम में रहने वाले संजय आजकल अपने गुलाबजामुन प्रेम से लड़ते हुए ग्रीन टी को तरजीह देने लगे हैं. उन्हें गाड़ियों का शौक है. 2004 में मीडियागुरु की शुरुआत के साथ एक्सेंट खरीदी थी, लेकिन अब उन्हें रेंज रोवर पसंद है. महीने में 15 दिन काम के सिलसिले में विदेश यात्रा पर रहने वाले संजय साल में एक बार परिवार के साथ कहीं घूमने जरूर जाते हैं. दफ्तर में काम के लिए पांच दिन के हफ्ते वाली व्यवस्था है लेकिन वे खुद छह दिन काम करते हैं.
अपने बैग में श्रीमभद्गवद्गीता रखने वाले संजय संस्कृत भाषा सीखकर वेद और पुराण पढ़ना चाहते हैं. वे कहते हैं, "युवाओं को खुद पर भरोसा रखना होगा. खुद से कहिए—याद करो कहां से चले थे. कॉन्फिडेंस की कमी आज सबसे बड़ी समस्या है. इस दौर में हमारी कोशिश यही होनी चाहिए कि कुछ ऐसा काम करें जिससे दूसरे लोगों को भी रोजगार मिले."