
सहारनपुर में अगर आप किसी से 'इंडियन हर्ब्स’ का पता पूछेंगे तो शायद ही कोई आपको ऐसी किसी फैक्ट्री के जिले में होने की जानकारी दे पाए, लेकिन अगर आप बत्तीसी वाली फैक्ट्री के बारे में पूछेंगे तो सभी जिले की नवादा रोड पर मौजूद हरे रंग की बाउंड्री वाली फैक्ट्री का पता बता देंगे. यही इंडियन हर्ब्स की फैक्ट्री है.
बत्तीसी वास्तव में 'हिमालयन बत्तीसी’ नाम की हर्बल आयुर्वेद औषधि है जो पशुओं में पाचन संबंधी बीमारियों के इलाज के लिए देश भर में प्रसिद्ध है. इसकी मांग का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इंडियन हर्ब्स साल भर में हिमालय बत्तीसी का 20 लाख किलो से अधिक का उत्पादन करता है.

इंडियन हर्ब्स के निदेशक सुधाकर अग्रवाल बताते हैं, "हिमालयन बत्तीसी का सालाना उत्पादन इतना है कि साल भर की सारी औषधि को अगर 100 ग्राम के पाउच में भर दिया जाए तो ये पाउच आपस में जुड़कर इतने लंबे हो जाएंगे कि उनसे हिमालय को नीचे से ऊपर 32 बार लपेटा जा सकता है."
लकड़ी और होजरी के काम के लिए प्रसिद्ध सहारनपुर को देश दुनिया में पशु-पक्षियों के लिए हर्बल औषधियों के निर्माण के सबसे बड़े केंद्र के रूप में पहचान दिलाने का इंडियन हर्ब्स का सफर शून्य से शुरू होकर आसमान तक पहुंचा है. सुधाकर अग्रवाल के पिता रामलाल अग्रवाल आजादी से पहले उत्तरांचल (अब उत्तराखंड) के पहाड़ी इलाके चकराता में जड़ी बूटियों को इकट्ठा कर बेचते थे.
सेना का कैंप होने के कारण रामलाल को आने-जाने में काफी पाबंदियों का सामना करना पड़ता था. इसलिए 1945 में वे पास के जिले विकासनगर में परिवार के साथ आकर रहने लगे. यहां गाय-भैंसों में पाचन संबंधी बीमारियों को देखकर इनके लिए औषधि बनाने का विचार आया.
काफी शोध और अध्ययन के बाद रामलाल ने हिमालय के जंगलों में पाई जाने वाली चिरायता, हल्दी, पीपल, कुटकी समेत कुल 32 प्रकार की जड़ी-बूटियों मिलाकर औषधि पाउडर तैयार किया जिसे 'हिमालयन बत्तीसी’ नाम दिया. जानवरों में पेट संबंधी रोगों के इलाज के लिए यह पहली हर्बल औषधि थी. चूंकि उस वक्त लोग गाय-भैंस के इलाज के लिए हर्बल दवाओं पर भरोसा नहीं करते थे इसलिए शुरुआत में इसकी मांग कम रही.
बाजार की तलाश में 1958 में रामलाल पूरे परिवार के साथ विकासनगर से आकर सहारनपुर में बस गए और अपने काम को नए सिरे से शुरू किया. सबसे पहले रामलाल ने इंडिया हर्ब्स रिसर्च एवं सप्लाई कंपनी बनाई और 'हिमालयन बत्तीसी’ औषधि बनाना शुरू किया. जब उन्हें लगातार नुक्सान ही होता रहा तो घाटे की भरपाई के लिए रामलाल ने 'हिमालयन धूप’ और 'उषा धूप’ नाम से धूप अगरबत्ती का निर्माण भी शुरू किया. अपने प्रोडक्ट बेचने के लिए रामलाल स्वयं घर-घर जाते थे.
संघर्ष के इस दौर में रामलाल के बेटे सुधाकर अग्रवाल ने सहारनपुर मं् बीएससी (बायोलॉजी) कोर्स पूरा कर लिया था. रामलाल ने अपने कुछ दोस्तों से उधार लेकर सहारनपुर के नवादा रोड पर 28 बीघा जमीन खरीदी और हर्बल दवाओं के निर्माण को व्यवस्थित रूप देने के लिए नई फैक्ट्री का निर्माण शुरू किया.
सुधाकर का चयन मध्य प्रदेश के सागर विश्वविद्यालय के बी-फार्मा पाठ्यक्रम में हो गया. बी-फार्मा कोर्स पूरा करने के बाद सुधाकर ने मुंबई (तत्कालीन बॉम्बे) में हिमालयन, ग्लैक्सो, समेत कई फार्मास्युटिकल कंपनियों में ट्रेनिंग की. यहां सुधाकर ने देखा कि किस तरह से एलोपैथिक दवाओं को लैब में जांच-परख कर बाजार में उतारा जाता है.
वर्ष 1981 में सहारनपुर आने के बाद सुधाकर ने भी एलोपैथिक दवाओं की निर्माण प्रक्रिया को हर्बल दवाओं में अपनाने का फैसला लिया. पिता के पास संसाधन कम थे तो बैंक से उधार लेकर सुधाकर ने सबसे पहले हर्बल दवाओं की जांच के लिए फैक्ट्री में एक अत्याधुनिक लैब की स्थापना की. सुधाकर बताते हैं, ''अलग-अलग दशाओं में जड़ी बूटियों के गुण घटते-बढ़ते रहते हैं. इसकी जांच न होने पर आयुर्वेदिक औषधियां कभी काम करती थीं, कभी नहीं करती थीं. मैंने इन गुणों को जांच कर ही हर्बल दवाएं बनाना शुरू किया." इस तरह देश में पहली बार 'मॉडर्न वेटरिनरी आयुर्वेद’ की नींव पड़ी. 1986 में इस लैब को विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय से मान्यता मिल गई.
लैब की स्थापना के साथ ही फैक्ट्री का आधुनिकीकरण करना भी सुधाकर ने शुरू किया. इस वक्त पिता की नई फैक्ट्री में हाथों से ही हर्बल दवाओं का निर्माण होता था. सुधाकर ने जड़ी बूटियों का पाउडर बनाने से लेकर उनकी पैकिंग तक के सारे काम के लिए पल्वराइजर, मिक्सर, ऑटोमैटिक कनवेईंग, पंप ऐंड सील मशीन जैसी स्वचालित मशीनें लगाईं.
'हिमालयन बत्तीसी' समेत कई दवाओं को छोटे पाउच में बेचना शुरू किया. 'ऑक्सीजन बैरियर', 'मॉइश्चर बैरियर', 'एरोमा बैरियर' जैसी पैकिंग का उपयोग कर इन दवाओं को एक नया आयाम दिया. सुधाकर बताते हैं, ''उस वक्त तक आम आयुर्वेद दवाएं ऐसी पैकिंग में उपलब्ध नहीं थीं जैसी 'इंडियन हर्ब्स’ की दवाएं बाजार में थीं." लैब में शोध के बाद तैयार हर्बल दवाए अब लंबे समय तक खराब नहीं होती थीं.
इसका सबसे बड़ा असर यह हुआ कि देश के दूर दराज के गांव तक पहुंचने में लगे समय के बावजूद दवाएं अपनी क्षमता नहीं खोती थीं. नतीजतन इन दवाओं के प्रति लोगों में भरोसा पैदा हुआ. सुधाकर बताते हैं, ''हिमालयन बत्तीसी की मांग रॉकेट की गति से बढ़ी. कुछ ही वर्षो में यह पूरे देश में गाय-भैंस में पेट से जुड़े रोगों में प्रयोग की जाने लगी."
समय के साथ पशुओं के लिए कैप्सूल, टैबलेट, सिरप के साथ मरहम भी बनाना शुरू किया. वर्ष 2000 में जड़ी बूटियों से औषधीय तत्वों को निकालने के लिए एक्सट्रैक्शन का भी काम शुरू किया. अब हर्बल दवाएं तरल रूप में भी बाजार में उतारी गईं. कई बीमारियों की दवाओं के साथ-साथ जानवरों की प्रजनन क्षमता बढ़ाने के लिए प्रजना नाम की दवा भी मार्केट में उतारी. इस दौरान देश में मुर्गी पालन तेजी से बढ़ रहा था और बड़े-बड़े पोल्ट्री फार्म खुल रहे थे. इसे ध्यान में रखते हुए सुधाकर ने मुर्गे-मुर्गियों के शरीर विकास के लिए 'लिवोलिव' नाम से पहली हर्बल दवा लॉन्च की.
वर्ष 1990 तक इन हर्बल औषधियों का निर्यात विदेशों में होने लगा. सुधाकर ने न्यूजीलैंड, स्विट्जरलैंड, थाईलैंड जैसे देशों में आयोजित होने वाले पशु मेले में भाग लेकर वहां इंडियन हर्ब्स की दवाओं का प्रदर्शन किया. इन मेलों में ऑर्गेनिक सर्टिफाइड मीट और ऑर्गेनिक सर्टिफाइड अंडे बनाने वाली विदेशी कंपनियों के बीच इंडियन हर्ब्स का आकर्षण बढ़ा.
इससे सहारनपुर में बनी हर्बल दवाओं की मांग विदेशों में तेजी से बढ़ने लगी. यूरोपीय देशों में सबसे पहले इंडियन हर्ब्स की दवाओं का निर्यात बढ़ा जो कुछ ही समय बाद लैटिन अमेरिकी देशों, ताइवान, इंडोनेशिया, थाईलैंड समेत 55 से अधिक देशों में पहुंच गया. आज 1,000 से अधिक कर्मचारी, 400 करोड़ रुपए टर्न ओवर वाली इंडिया हर्ब्स हर्बल वेटरिनरी दवाएं बनाने वाली विश्व की सबसे बड़ी कंपनी है. पशुओं की हर्बल दवाएं बनाने वाली इंडिया हर्ब्स देश की अकेली कंपनी है जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन का 'गुड मैन्युफैक्चरिंग सर्टिफिकेट’ मिला है.