विशेषांक : भारत की शान
भारतीय नाटक
देवेंद्र राज अंकुर, पूर्व निदेशक, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय
आजादी के पचहत्तर वर्षों में से कुल जमा दस भारतीय नाटकों का चयन करना सचमुच में बहुत ही मुश्किल था, फिर भी मैंने एक कोशिश जरूर की है. ये सभी नाटक हमारे यहां की पांच भाषाओं-बोलियों का प्रतिनिधित्व करते हैं, किसी एक भाषा की रचना होने के बावजूद ये अलग-अलग भाषाओं में अनूदित और मंचित होते आए हैं.
मेरा ख्याल है कि ये तथ्य हमें एक तार्किक और भरोसेमंद पैमाना देते हैं, यह जांचने का कि ये नाटक विषयवस्तु और नाटकीयता के स्तर पर सार्वभौमिक असर छोड़ पाने में कामयाब रहे हैं. संयोगवश यह भी एक अहम पहलू है कि यदि सबसे ज्यादा बार खेले गए नाटकों की एक सूची तैयार की जाए तो यही नाटक पहले दस नाटकों के क्रम में आएंगे.
आइए, काल-क्रम की दृष्टि से उन नाटकों पर एक संवाद किया जाए.
सबसे पहले हम धर्मवीर भारती के काव्य नाटक अंधा युग का नाम लेना चाहेंगे. द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका की पृष्ठभूमि में पौराणिक ग्रंथ महाभारत को आधार बनाकर मूल रूप से एक रेडियो नाटक के रूप में लिखा गया था यह नाटक. 1954 में प्रकाशित अंधा युग भीषण युद्ध के बाद की निराशा, हताशा और ईश्वर के प्रति अनास्था का जीवंत दस्तावेज है.
यह भी एक संयोग ही है कि इसी के आसपास फ्रेंच भाषा में लिखा गया चर्चित नाटककार सेम्युल बैकेट का नाटक वेटिंग फॉर गोदो भी इसी कथ्य को सामने लाता है. एक नाटक में अगर ईश्वर की मृत्यु है तो दूसरे में उसकी प्रतीक्षा है और वह कभी नहीं आता. ऐसे शाश्वत कथ्य के कारण अंधा युग आज तक लगातार हर भाषा में मंचित होता आ रहा है.
शाश्वत कथ्य की बात करें तो 1958 में रचित और प्रकाशित मोहन राकेश का आषाढ़ का एक दिन भी कहीं पीछे नहीं ठहरता. एक कलाकार के लिए सत्ता या फिर अपनी कला में से किसी एक का चयन ऐसा जटिल प्रश्न है जो हमेशा उसके सामने उठता रहता है. नाटक के नायक कवि कालिदास के बहाने आज के कलाकार या रचनाकार का आंतरिक द्वंद्व क्या आज के समय में और ज्यादा मुखर नहीं हो उठा है? राकेश का ही एक अन्य नाटक आधे-अधूरे बेशक समय के साथ बासी पड़ जाए लेकिन आषाढ़ का एक दिन सदा उतना ही सार्थक और समकालीन रहेगा.
नाटककार-अभिनेता गिरीश कारनाड का तुगलक एक स्वप्नदर्शी लेकिन अव्यावहारिक शासक के असफल होते जाने और अंतत: अकेले होते जाने की त्रासदी को प्रस्तुत करता है. मूल रूप से कन्नड़ में लिखा होने के बावजूद पहली बार यह हिंदुस्तानी में खेला गया और फिर तो हर भाषा में उसके प्रदर्शन होते रहे हैं.
ऐतिहासिक चरित्रों से अलग किसी समसामयिक चरित्र को लेकर लिखे गए किसी नाटक का नाम लिया जाए तो मराठी भाषा में विजय तेंडुलकर के सखाराम बाइंडर का उल्लेख करना होगा. पहली बार भारतीय रंगमंच में एक बिंदास, बेबाक, बेधड़क और किसी भी सीमा तक खुली जिंदगी जीने वाला है बाइंडर सखाराम. स्वाभाविक है कि सत्ता और समाज ने उसे सहज रूप से नहीं लिया और उसे प्रतिबंधित कर दिया गया. बाद में कोर्ट में एक लंबा मुकदमा चला और अंतत: नाटक करने वालों की जीत हुई. इस पूरे प्रकरण पर आधारित एक प्रस्तुति सेक्स, मोरैलिटी ऐंड सेंसरशिप की अलग से खूब चर्चा हुई.
बांग्ला के चर्चित नाटककार बादल सरकार के नाटक एवं इंद्रजित को भी अनिवार्य रूप से इस सूची में रखना होगा. आजादी के आसपास पैदा हुई पीढ़ी की सातवें दशक तक पढ़-लिखकर बेकार होने की पीड़ा, अपनी तरह से जीवन में कुछ अलग करने की कोशिश और लगातार मिलती असफलता—एक ऐसा कथ्य जिसमें आज भी कोई खास बदलाव नहीं आया है.
सातवें-आठवें दशक में भारतीय रंगमंच में एक साथ कई ऐसे नाटक आए जिनमें यहां की लोक और शास्त्रीय नाट्य परंपराओं के तत्वों को लेकर आधुनिक कथ्यों को व्यंजित करने की कोशिश की गई. इनमें से यदि किसी एक नाटक का चयन करना हो तो निश्चित रूप से मराठी नाटककार विजय तेंडुलकर के घासीराम कोतवाल को लेना होगा.
जब तक सत्ता चाहे तो अपने लाभ के लिए किसी भी व्यक्ति का उपयोग या दुरुपयोग करती रहेगी और जिस दिन उसका यह उद्देश्य पूरा हो जाए तो वह उसे अपने रास्ते से हटाने में तनिक भी हिचकिचाएगी नहीं. मराठी भाषा में प्रस्तुत अपनी पहली ही प्रस्तुति से घासीराम कोतवाल भारतीय रंगमंच के साथ-साथ विदेशों में भी चर्चित और प्रशंसित हुआ.
यही काम आठवें दशक में भारत के बहुचर्चित रंगकर्मी हबीब तनवीर के नाटक चरणदास चोर ने भी किया. मूल रूप से राजस्थानी के सुप्रसिद्ध कहानीकार विजयदान देथा की कहानी फितरती चोर पर आधारित छत्तीसगढ़ी भाषा-बोली में रचित और वहीं के कलाकारों के साथ की गई प्रस्तुति ने एडिनबरा अंतरराष्ट्रीय नाट्य समारोह में भारतीय रंगमंच को एक नई पहचान दी. तब से लेकर आजतक चरणदास चोर देश की हर भाषा में लगातार खेला जा रहा है.
बीसवीं शताब्दी के अंतिम दो दशक तीन नाटकों के लिए हमेशा-हमेशा के लिए याद रखे जाएंगे. ये नाटक हैं—स्वदेश दीपक का कोर्ट मार्शल, मन्नू भंडारी का महाभोज और असगर वजाहत का जिस लाहौर नहीं देख्या, ओ जेम्या ही नहीं. बेशक तीनों हिंदी भाषा के नाटक हैं लेकिन अपने कथ्य, अपने तेवर और अपने मंचनों से इन्होंने हर बार अपनी एक अलग और विशिष्ट पहचान बनाई.
पहली बार मन्नू भंडारी ने एक राजनीतिक कथ्य को लेकर एक उपन्यास की रचना की, फिर उसका स्वयं ही नाट्य रूपांतर किया और 1982 में अमाल अल्लाना के निर्देशन में पहली बार मंचित होने के बाद आज तक लगातार खेला जा रहा है. इसका नाट्य रूपांतर ही इतना लोकप्रिय हो गया कि लोग भूल गए कि मन्नू भंडारी ने इसे उपन्यास के रूप में लिखा था. दोहराने की जरूरत नहीं कि राजनीति अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए किस हद तक जा सकती है और उसका जश्न मना सकती है—यह नाटक इसका जीता जागता सबूत है.
1989 में असगर वजाहत के नाटक जिस लाहौर...की प्रस्तुति होती है और वह रातोंरात इतिहास बन जाती है. विभाजन की त्रासदी एक ऐसा कथ्य है जो बार-बार हमारे साहित्य और कलाओं में लौटकर आता है. यह नाटक एक चरित्र माई के आसपास केंद्रित है. यह चरित्र उसके मानवीय पक्ष को उद्घाटित करता है. आश्चर्य नहीं कि देश में ही नहीं, अलग-अलग देशों में रह रहे भारतीयों के बीच भी यह लगातार खेला गया है.
इन्हीं दशकों में पहले साहित्य और फिर नाटकों में भी दलित प्रश्न बहुत तेजी से उभरकर सामने आया. हिंदी रंगमंच में इसकी तीखी अभिव्यक्ति कोर्ट मार्शल के माध्यम से हुई और तब से लगातार यह नाटक चर्चा में रहा है. हमारे यहां की बहुत-सी भाषाओं में यह मंचित हो चुका है. कई नाट्य दल नियमित तौर पर इसके मंचन करते आ रहे हैं.
कुल मिलाकर दस नाटकों की रचना और मंचन की यात्रा से गुजरकर एक बात बहुत ही मुखर होकर सामने आती है कि अंतत: वही नाटक इतिहास में दर्ज होते हैं जो हर समय के लिए और समकालीन होते हैं.