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स्वाद और सुगंध का साम्राज्य

हम लोग जब खाना खाते तो नमक अक्सर नमी से जम जाया करता. बड़े भाई के दिमाग में आया कि क्यों न ऐसा नमक तैयार किया जाए जो डिब्बी से आसानी से निकले. बस कैच साल्ट उतारने की भूमिका तैयार हो गई.

राजीव कुमार, वाइस चेयरमैन डी.एस. ग्रुप
राजीव कुमार, वाइस चेयरमैन डी.एस. ग्रुप

अभी दो साल पहले की बात है. डीएस ग्रुप के वाइस चेयरमैन राजीव कुमार यूं ही एक बैठकी में दोस्तों के साथ गपशप कर रहे थे. तभी एक परिचित ने उनसे आकर कहा, ''राजीव भाई, बाजार में पल्स नाम की एक टॉफी आई है, खाकर देखना, बहुत टेस्टी है." अपनी ही कंपनी के उत्पाद पल्स से जुड़ा यह वाकया बताते हुए राजीव हंस पड़ते हैं. असल में भारतीय बाजार में ज्यादातर हार्ड बॉयल कैंडी बच्चों को ध्यान में रखकर वही संतरे और आम के फ्लेवर वाली बनती आ रही थीं. देश के हार्ड कैंडी बाजार के 50 फीसदी हिस्से पर आम का फ्लेवर हावी है. कैरेमल और ऑरेंज का नंबर इसके बाद आता है. इंटरनेशनल मार्केट में ऑरेंज नंबर वन है.

राजीव बताते हैं, ''हम बिलकुल अलग कैंडी लाना चाहते थे. कच्चे आम को सीधे नहीं खाया जाता, नमक के साथ खाया जाता है. इस आदत को ध्यान में रखकर छह साल की मेहनत के बाद पल्स को लॉन्च किया गया. स्वाद मुंह में खुलने-घुलने के पैटर्न पर शोध करके यह सुनिश्चित किया गया कि 4 ग्राम की पल्स जीभ पर रखने के 30 से 50 सेकंड तक कच्चे आम का स्वाद दे और नमकीन-चटपटापन जीभ पर फैले. कोई चूसने की बजाए चबाए तो उसे अलग स्वाद मिले.

साधारण कैंडी 50 सेकंड में खत्म हो जाती है लेकिन पल्स का मसाला उसके बाद घुलकर एक अलग आनंद देता है. इसे तैयार करने वालों को इतना ही निर्देश था कि चटपटापन आने पर खाने वाले की आंख बंद होनी चाहिए. एक रुपए की यह पहली कैंडी थी. इससे पहले सभी कैंडी 50 पैसे की बिकती थीं. डीएस ग्रुप ने अपने भरोसेमंद उत्पादों के जरिए इसी तरह से उपभोक्ताओं की नब्ज लंबे समय से पकड़ रखी है.

रामजस कॉलेज से कॉमर्स ग्रेजुएट 55 वर्षीय राजीव 1986 में परिवार के बिजनेस में उतरे. उनके पुरखे हरियाणा के करनाल से दिल्ली आए थे. 1929 में लाला धर्मपाल ने चांदनी चैक में एक दुकान से कारोबार शुरू किया. पुश्तैनी कारोबार इत्र और सुगंधित तंबाकू का था. धर्मपाल के बेटे सत्यपाल ने कंपनी को आधुनिक पैकिंग और नए बाजार के अनुरूप बनाना शुरू किया. रजनीगंधा जैसे प्रोडक्ट उन्होंने ही लॉन्च किए.

आज डीएस ग्रुप तंबाकू और पान मसाले के अलावा नमक-मसाले की कैच किचन रेंज, कैच स्प्रिंग वाटर और मैंगो डिलाइट के साथ बेवरेजेज की रेंज, कन्फेक्शनरी, डियोडोरेंट और दुग्ध उत्पाद भी तैयार करता है. दिल्ली में लुटियन जोन की कई इमारतों में कैच स्प्रिंग वाटर की सप्लाई है. मनु महारानी नाम के रेस्तरां के साथ 8,000 करोड़ रु. की ये कंपनी हॉस्पिटैलिटी सर्विस में भी आ गई है.

इस कंपनी का इतिहास बताता है कि इसे स्वाद और खुशबू की गहरी समझ है. राजीव उसे कुछ यूं बयान करते हैः ''बंटवारे के बाद देश में लोग यात्राएं ज्यादा करने लगे और पान खाने वालों के लिए हर बार पान लेकर चलना मुमकिन न था. लिहाजा कुछ ऐसा चाहिए था जो पान की जरूरत पूरी कर सके. इस वजह से कानपुर में पान मसाला बनाने की कुटीर उद्योग के तौर पर शुरुआत हुई. उसी कड़ी में 1976 में हमने भी तानसेन नाम से पान मसाले का एक ब्रान्ड उतारा. डिफरेंट टोन और टेस्ट का है लेकिन हरेक को उसका स्वाद पसंद नहीं आता. वह ज्यादा कामयाब न हुआ. उसके बाद 5-6 साल तक कई फॉर्मूले बनाए और परखे गए.

लोगों को चखाकर उनकी राय ली जाती और सुझाव को नोट किया जाता. 1983 में जाकर रजनीगंधा का जन्म हुआ. लॉन्चिंग भी मनसुखभाई कोठारी ने की जो पान पराग के तब के मालिक थे और पापा के अच्छे मित्र थे. पापा नए-नवेले नाम भी ढूंढा करते थे. फूलों और उनकी खुशबू की भी उन्हें गहरी समझ थी. उन्हें सुगंधी का टाइटल मिला हुआ था. उन्होंने रजनीगंधा फूल के नाम पर अपनी कंपनी के पान मसाले का नाम रखा."

राजीव के पिता सत्यपाल की घ्राणशक्ति इतनी तीव्र थी कि वे इत्र सूंघकर बता देते थे, कितने साल पुराना है. यह भी कि कितने वजन में कितना फूल लगा है. हालांकि अब यह सब काम मशीनें करती हैं. राजीव बड़े गर्व से कहते हैं कि रजनीगंधा को उनके कारोबारी प्रतिद्वंद्वी खुद खाते और कुबूल करते हैं.

कंपनी की रिसर्च यूनिट और प्रोडक्शन लाइन में सौ से ज्यादा उत्पादों पर काम चल रहा है. खासे रिजर्व रहने वाले राजीव स्पष्ट करते हैं, ''हम अपने उत्पादों को और बेहतर बनाते रहते हैं. कई प्रोडक्ट्स 15-15 साल से रिसर्च टेबल पर हैं." मुमकिन है, उनमें से कुछ को 2018 में मार्केट में उतार दिया जाए.

कंपनी ने तुलसी जर्दा 1979 में उतारा. 1985 में जर्मनी से मशीन लाई गई और तुलसी का आधा ग्राम का पैक निकाला. ताकि लोगों को पैक में कम तंबाकू न मिले. शुरू में मशीन महीने में गिने-चुने दिन ही चलती. 1987 में रजनीगंधा का छोटा पैक आया और लोगों ने जोड़ी बना ली. उसके बाद कंपनी ने ''डबल मजा" बाजार में उतारा था, जो तंबाकू उत्पादों से संबंधित नए कानून की वजह से बंद हो चुका है. तुलसी के डबल जीरो से लेकर पांच जीरो तक वैरिएंट हैं. क्वालिटी और एसेंस बढऩे के साथ जीरो बढ़ते हैं लेकिन सबसे ज्यादा डबल जीरो चलता है. ''बाबा" कंपनी का प्रीमियम ब्रान्ड है जो करीब 55 साल पुराना है. इसकी शुरुआत, नाम और लोगो सब कुछ लाफिंग बुद्धा से प्रेरित है.

अब बात डीएस ग्रुप के किचन प्रोडक्ट्स की. इसका कैच नमक यूं ही शौक-शौक में तैयार हुआ. राजीव बताते हैं, ''हम लोग खाना खाते थे तो नमक अक्सर नमी से जम जाया करता था. बड़े भाई और चेयरमैन रविंदर कुमार के दिमाग में आया कि ऐसा नमक क्यों न तैयार किया जाए जो डिब्बी से आराम से निकले." बस कैच साल्ट तैयार. इसके लिए नमक को खास तौर पर प्रोसेस किया जाता है. इसकी टेक्नोलॉजी विदेश से लाई गई और इसे रोटरी टॉप पैकिंग में दिया गया.

नमक के साथ चाट मसाला और काली मिर्च के टेबल टॉप पैक तैयार किए गए. फिर डीलरों से डिमांड आई कि ग्राहक कंपनी के चना मसाला और गरम मसाला जैसे दूसरे प्रोडक्ट्स के बारे में भी पूछते हैं. उन्हें किचन प्रोडक्ट भी चाहिए. उस पर भी काम शुरू हो गया. सन् 2000 में कैच की किचन रेंज आई. ग्रुप के कुल कारोबार में किचन मसालों की हिस्सेदारी करीब 12 फीसदी है. मसाले कोल्ड ग्राइंडिंग तकनीक से पीसे जाते हैं, जिससे इनका स्वाद और खुशबू जस की तस रहती है.

कंपनी 1999 के आसपास बच्चों-महिलाओं के लिए बिना सुपारी वाला माउथ फ्रेशनर निकालना चाहती थी पर उसके पीछे सोच यह भी थी कि उसमें सुपारी वाला करारापन भी हो. राजीव बताते हैं, ''हमने सौंफ, इलायची, ब्राह्मी के साथ खजूर जैसे नेचुरल स्वीटनर से तैयार श्पास-पास्य बाजार में उतारा. हालांकि इसका फॉर्मूलेशन फूड सेफ्टी के लिहाज से कई बार बदला भी गया. बाजार में इसकी कोई सौ से ज्यादा नकल मौजूद हैं लेकिन क्वालिटी के दम पर हमारा प्रोडक्ट आज भी बेजोड़ है. हमारे प्रोडक्ट इस्तेमाल करने वालों को दूसरे में वह संतुष्टि नहीं मिलती. यही वजह है कि बाजार में हमें कोई खास चुनौती नहीं मिलती." कंपनी की सेल्स में पान मसाले और तंबाकू उत्पादों की बड़ी हिस्सेदारी है.

अपना हर प्रोडक्ट अव्वल हो, इसके लिए राजीव के भीतर जैसे एक जुनून-सा बैठा हुआ है. इसका नमूना उनके नोएडा के सेक्टर 67 में सत्यपाल सुगंधी मार्ग पर बने आलीशान कॉर्पोरेट दफ्तर में देखा जा सकता है, जहां आधुनिक डिजाइन और कलात्मक मूर्तियों-पेंटिंग्स का लाजवाब नजारा दिखता है. इन सबसे भी बढ़कर इस दफ्तर में बना कॉर्पोरेट म्युजियम है, जहां ऑटोमेशन और नाटक, फिल्म का बेजोड़ नमूना दिखता है.

फॉरेस्ट सेक्शन में जिस पौधे का जिक्र शीशे के बोर्ड पर आप पढ़ेंगे, वहां आपको उसी की खुशबू भी आ रही होगी. वहीं पर इंपोर्टेड 17 प्रोजेक्टरों से चलने वाला 360 डिग्री का थिएटर 4डी के एहसास को नए स्तर तक ले जाता है. पर खटकने वाली बात यही है कि इस भव्य म्यूजियम को कंपनी के आमंत्रण पर ही देखा जा सकता है. म्युजियम का सिस्टम सक्रिय करने में टेक्नीशियन को एक घंटे का वक्त लगता है ताकि सॉफ्टवेयर-हार्डवेयर का तालमेल बैठ जाए.

राजीव हल्की मुस्कान के साथ कहते हैं, ''सब कुछ हम पैसों के लिए नहीं करते. कुछ अपना भी जज्बा है. 8 मार्च, 2014 को हमने पापा के नाम से कॉर्पोरेट म्यूजियम शुरू किया. यह हमारे लिए सबसे खुशी का पल रहा. लेकिन 1995 में दुख की वह घड़ी भी आई जब मम्मी-पापा दोनों का साथ हमसे छूट गया. उन्होंने हमें सेवा का मौका नहीं दिया." राजीव की पत्नी सुनीता गुप्ता ने इस पूरे सफर में हर कदम पर उनका पूरा साथ दिया है.

डीएस ग्रुप का फोकस कभी भी निर्यात की ओर नहीं रहा. कंपनी का मानना रहा कि उसके उत्पादों के लिए भारत में ही बहुत बड़ा कंज्यूमर बेस मौजूद है. लेकिन अब उधर भी गौर किया जा रहा है. राजीव बताते हैं, ''अब हम रणनीतिक तौर पर निर्यात पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. आने वाले दिनों में एक्सपोर्ट पर हम खास ध्यान देंगे." कंपनी को पनीर और घी के निर्यात में काफी संभावना नजर आ रही है. इसकी बेहद सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली है. कंपनी निवेश की अपनी जरूरतों को 99 फीसदी अपने संसाधनों से ही पूरा करती है. कभी बहुत मामूली-सा लोन लिया तो उसे चुका दिया जाता है. डीएस ग्रुप की कामयाबी का राज उसकी उपभोक्ताओं की पल्स (नब्ज) पकडऩे की काबिलियत है.

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