राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर दो किताबों का सहलेखन कर चुके अमेरिकी शिक्षाविद् और लेखक वाल्टर के. एंडरसन ने इंडिया टुडे कॉन्क्लेव 2025 में एक ऐसा खुलासा किया जो कम ही लोगों को पता था. उन्होंने कहा कि संघ—जो इस साल 100वां वर्ष पूरा कर रहा है—के सत्तावादी निकाय होने की आम धारणा के विपरीत इसमें भी अपने हिस्से की आंतरिक बहसें और असहमितयां होती हैं.
एंडरसन ने कहा, ''इसमें हमेशा ही असहमतियां रही हैं, जिन्हें स्पष्ट रूप से बताया गया है. तो ऐसा नहीं है कि शीर्ष पर एक किस्म का अर्ध-तानाशाह है जो सबको बताता है कि क्या करना है." उन्होंने यह भी कहा, "आरएसएस के लोगों के बारे में मुझे हमेशा हैरत होती थी कि उनमें किस हद तक आंतरिक मतभेद हैं और बहसें होती हैं, जिनमें यह भी शामिल है कि भारत की वर्तमान सरकार के साथ कितनी नजदीकी से जुड़ा जाए."
मगर जब फैसला ले लिया गया, तो आरएसएस से जुड़े लोग इस बात पर अडिग होते थे कि उन्हें नेतृत्व की सलाह का पालन करना चाहिए. भारत की एकता और मातृभूमि के रूप में अवधारणा हमेशा से ही आरएसएस की विचारधारा का प्रमुख आधार रहा है. आरएसएस के बढ़ने में एक कारक संगठन का स्वरूप था—1925 में स्थापना के बाद से ही इस समूह ने हमेशा परिवार की भावना उत्पन्न करने पर जोर दिया.
एंडरसन ने इतने सालों के दौरान संघ पर थोपी गई कुछ बेबुनियाद बातों के मामले में भी स्थिति स्पष्ट करने की कोशिश की, जिनमें उसका महिला-विरोधी, ब्राह्मणवादी, मुसलमान-विरोधी, वगैरह होना शामिल था. ये पेचीदा सवाल थे जिनसे पेचीदा जवाब निकलकर सामने आए.
खास बातें
आरएसएस इस साल 100 वर्ष पूरे कर रहा है. नागपुर में कुछ ब्राह्मणों के हाथों शुरू यह संगठन आज इतना बढ़ गया है कि इसके 50 से ज्यादा सहयोगी संगठन हैं, जिनमें भारत और उसके करीब 19 राज्यों में सत्तासीन पार्टी भी शामिल है.