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परिसीमन के मुद्दे पर उत्तर और दक्षिण में क्यों खिंची तलवार?

अपनी राजनीतिक आवाज, संघीय स्वायत्तता और आर्थिक योगदान सुरक्षित रखने की खातिर दक्षिणी राज्य परिसीमन की कवायद के खिलाफ उतरे. उनका सामना उत्तर के राज्यों से जो खुद का ही प्रतिनिधित्व कम होने का पहले से रोना रो रहे

THE BIG STORY / DELIMITATION
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन
अपडेटेड 16 मार्च , 2025

दक्षिण भारत फिक्र की एक मोटी लाल लकीर खींच रहा है. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन की तरफ से 5 मार्च 2025 को बुलाई गई बैठक में राज्य के सभी नेताओं ने आगे होने वाली परिसीमन की कवायद को अपनी ''राजनैतिक प्रासंगिकता’’ पर सोचा-समझा हमला करार दिया और इसके खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया.

स्टालिन ने आगाह किया कि अगर आबादी के कच्चे आंकड़ों के आधार पर परिसीमन किया गया, तो इस मंसूबे के तहत अपनी जन्म दरों पर कामयाब नियंत्रण रखने वाले दक्षिणी राज्यों को सजा दी जाएगी, जबकि ऐसा नहीं करने वाले उत्तर को इनाम मिलेगा.

कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरामैया, तेलंगाना के ए. रेवंत रेड्डी और केरल के पिनाराई विजयन ने भी ऐसी ही आशंकाएं जाहिर कीं और आगाह किया कि संसद में दक्षिण की कमजोर मौजूदगी का मतलब यह होगा कि उन्हें केंद्रीय धन के आवंटन में कमी आएगी और देश के दो क्षेत्रों के बीच आर्थिक गैर-बराबरी और गहरी हो जाएगी.

महज आबादी के आधार पर पुनर्गठन का मतलब यह होगा कि खालिस अपनी तादाद के बूते उत्तरी राज्य राष्ट्रीय राजनीति पर अपनी पकड़ और मजबूत कर लेंगे. दक्षिणी राज्यों का मानना है कि इससे देश का संघीय संतुलन बदल जाएगा और उनके लिए अहम नीतिगत मामलों में अपने हितों की रक्षा करना और मुश्किल हो जाएगा. यहां तक कि भाजपा के सहयोगी आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने भी बेचैनी जाहिर की और इशारा किया कि अपना असर बनाए रखने के लिए राज्य जनसंख्या नीति पर नए सिरे से सोचने पर मजबूर हो सकते हैं.

तमिलनाडु में दलगत बाड़ेबंदी से ऊपर उठकर परिसीमन का विरोध किया जा रहा है. भाजपा को छोड़कर करीब सभी राजनैतिक पार्टियां इसे भेदभावपूर्ण कदम मानती हैं जो संविधान की संघीय भावना को खोखला कर देगा. मुख्यमंत्री स्टालिन परिसीमन को तमिलनाडु की स्वायत्तता का अतिक्रमण करने के इरादे से केंद्र के ज्यादा बड़े पैटर्न के हिस्से के तौर पर देखते हैं.

उन्होंने केंद्र सरकार पर बार-बार राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) और राष्ट्रीय पात्रता-सह-प्रवेश परीक्षा (एनईईटी या नीट) सरीखी नीतियों के जरिए राज्य की वित्तीय और शैक्षिक स्वायत्तता को कमजोर करने का आरोप लगाया. उनका कहना है कि संसदीय सीटों में कमी से यह रुझान और तेज होगा, जिससे लोकसभा में अपने हितों की वकालत करने के लिए तमिलनाडु के पास और भी कम नुमाइंदे बचेंगे.

कर्नाटक में कांग्रेस के सिद्धरामैया का दावा है कि केंद्र सरकार के कदम लगातार राज्य को सजा दे रहे हैं, चाहे वह कर राजस्व वितरण में हेर-फेर हो, जीएसटी (माल और सेवा कर) और आपदा राहत में असमानताएं हों, दबंगई से लागू शिक्षा नीति हो, या यूजीसी (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग)  के मनमाने फेरबदल हों. वे जोर देकर कहते हैं, ''परिसीमन संसद में दक्षिण की नुमाइंदगी को कमजोर करने और केंद्र की नाइंसाफियों को चुनौती देने की हमारी क्षमता का गला घोंटने की एक और कोशिश है.’’

रेवंत इसे और एक कदम आगे ले जाते हैं. वे आरोप लगाते हैं कि भाजपा परिसीमन का इस्तेमाल दक्षिण को दरकिनार करके बीमारू राज्यों की सीटें बढ़ाकर पिछले दरवाजे से अपना दबदबा मजबूत करने की रणनीति के तौर पर कर रही है. चिंताएं जाहिर की जा रही हैं कि परिसीमन के बलबूते उत्तर में खासा असर रखने वाली भाजपा सरीखी पार्टियां नए गढ़ स्थापित कर सकती हैं. अनिष्ट की तरफ इशारा करते हुए सिद्धरामैया कहते हैं, ''नरेंद्र मोदी सरकार के असाधारण उत्साह को देखते हुए लगता है कि इरादा दक्षिण के लोगों को भाजपा का विरोध करने की सजा देना है.’’

यही वह परिप्रेक्ष्य है जिसमें महिला आरक्षण विधेयक के अमल को परिसीमन से जोड़ने का भाजपा का कदम और भी ज्यादा राजनैतिक अहमियत अख्तियार कर लेता है. आरक्षण विधेयक को निर्वाचन क्षेत्रों की नई लकीरें खींचने पर निर्भर बनाकर भाजपा ने न सिर्फ परिसीमन को अपरिहार्य बना दिया, बल्कि बहस को नए सांचे में ढाल दिया है.

कभी विवादास्पद रहे चुनावी पुनर्गठन को स्त्री-पुरुष न्याय के मामले में बदल दिया गया है. इस दोहरे उद्देश्य वाली रणनीति से विपक्षी दल और खासकर दक्षिण के विपक्षी दल इस दबाव में आ गए हैं कि महिलाओं के आरक्षण को संवैधानिक जरूरतों से बांधकर उसमें देरी करने की आलोचना से बचते हुए परिसीमन को कैसे स्वीकार करें.

कोयंबत्तूर में 26 फरवरी को प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अन्नामलै के साथ अमित शाह

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने स्टालिन की चिंताओं को सिरे से खारिज कर दिया. उन्होंने दावा किया कि ''तमिलनाडु की एक भी सीट कम नहीं होगी’’ उनके मुताबिक, प्रधानमंत्री मोदी ने दक्षिणी राज्यों को भरोसा दिलाया है कि उनका प्रतिनिधित्व कम नहीं होगा. राज्य भाजपा प्रमुख के. अन्नामलै ने भी ''काल्पनिक भय’’ पैदा करने और लोगों को गुमराह करने के लिए स्टालिन की तीखी आलोचना की. दक्षिणी नेताओं की चेतावनी और भाजपा के रुख के बीच परिसीमन नए राजनैतिक टकराव के मुद्दे में बदल गया है. स्टालिन ने आगाह किया है कि ''दक्षिणी राज्यों के सिर पर तलवार लटक रही है.’’

परिसीमन क्या है?

देश में परिसीमन की कवायद संविधान के तहत होती है, जो आबादी में आए बदलावों के आधार पर समय-समय पर संसदीय और राज्य विधानसभा के निर्वाचन क्षेत्रों का नए सिरे से बंटवारे का आदेश देता है. संविधान के अनुच्छेद 82 के मुताबिक, हर जनगणना के बाद लोकसभा और विधानसभाओं की सीटों का आवंटन इस तरह किया जाना चाहिए, जिससे आनुपातिक प्रतिनिधित्व तय हो सके. इसी तरह अनुच्छेद 170 में विधानसभाओं की सीटों के बंटवारे का प्रावधान है. यह प्रक्रिया परिसीमन आयोग पूरी करता है, जिसे आबादी के आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाएं नए सिरे से खींचने और अनुसूचित जातियों/ जनजातियों के लिए आरक्षित सीटें तय करने का अधिकार हासिल है.

आजादी के बाद देश में परिसीमन की चार बड़ी कवायदें की गईं. पहली 1952, 1963 और 1973 में क्रमश: 1951, 1961 और 1971 की जनगणना के बाद की गईं. हरेक कवायद में जनसंख्या वृद्धि के अनुरूप लोकसभा और विधानसभाओं की सीटों की संख्या तय की गईं. लोकसभा की सीटों की संख्या सिलसिलेवार बढ़कर 494 से 522 और अंतत: 1971 के बाद 543 हो गईं. इस कवायद में निर्वाचन क्षेत्रों की नई सीमाएं खींची गईं ताकि तमाम राज्यों में प्रति मतदाता बराबर प्रतिनिधित्व पक्का किया जा सके.

अलबत्ता, 1976 में इंदिरा गांधी की अगुआई वाली सरकार ने 42वें संविधान संशोधन के जरिए सीटों के पुनर्निर्धारण पर रोक लगा दी. इसके पीछे मुख्य तर्क जनसंख्या नियंत्रण के उपायों को बढ़ावा देना था. बढ़ती चिंता का सबब यह था कि ज्यादा जनसंख्या वृद्धि वाले राज्यों (मुख्यत: उत्तर में) को ज्यादा सीटें हासिल हो जाएंगी और यह उन राज्यों की कीमत पर होगा जो अपनी जनसंख्या पर नियंत्रण रखने में सफल रहे हैं (मुख्यत: दक्षिण में).

इस कथित असंतुलन को रोकने के लिए यह फैसला लिया गया कि सीटों का बंटवारा 1971 की जनगणना के आधार पर ही बना रहेगा. शुरुआत में यह रोक 2001 तक लागू रहनी थी, लेकिन 2002 में 84वें संविधान संशोधन के जरिए इसे 2026 तक बढ़ा दिया गया. तो, 2002 की परिसीमन की कवायद 2001 की राज्यों में निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाएं जनगणना के आंकड़ों के आधार पर नए सिरे से खींचने और हर राज्य में जनसंख्या के वितरण के अनुरूप एससी/ एसटी के लिए सीटों के आरक्षण में सुधार करने तक सीमित थी.

अब जब सीटों के पुनर्निर्धारण पर रोक की 2026 की समय सीमा नजदीक आ रही है, देश के सामने परिसीमन की पूर्ण कवायद को अंजाम देने की चुनौती है. यह कवायद अगली जनगणना—जो 2021 में हो जानी थी लेकिन कोविड महामारी के कारण टल गई—के आधार पर होने की उम्मीद है. गौरतलब है कि जनगणना की कवायद अब भी शुरू नहीं हो पाई है.

दक्षिण के माथे पर शिकन क्यों?

नए संसद भवन में 888 सांसदों के बैठने की व्यवस्था है, इसलिए सीटों में काफी वृद्धि की भारी संभावना है, जिससे यह तय होगा कि किसी भी राज्य का प्रतिनिधित्व पूरी तरह खत्म न हो. संविधान विशेषज्ञ पी.डी.टी. आचारी बताते हैं कि अनुच्छेद 82 के तहत आबादी में बदलाव के मुताबिक हर जनगणना के बाद लोकसभा सीटों का परिसीमन किया जाना है, लेकिन अनुच्छेद 81 में 550 सीटों की सीमा तय की गई है, यानी 530 राज्यों के लिए और 20 केंद्र शासित प्रदेशों के लिए. लिहाजा, सीटों की कुल संख्या में किसी भी तरह की बढ़ोतरी के लिए अनुच्छेद 81 में फेरबदल की दरकार होगी.

आगामी परिसीमन की कवायद से देश के उत्तरी और दक्षिणी राज्यों के राजनैतिक प्रतिनिधित्व में अहम बदलाव आ सकता है. लोकसभा सीटों की संख्या 543 बनी रहती है, तो उत्तरी राज्यों-खासकर उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान-में 31 सीटें बढ़ जाएंगी, जबकि दक्षिणी राज्यों-खासकर तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश-को 26 सीटें खोनी पड़ेंगी (देखें, बड़े लाभार्थी/बड़े नुक्सान वाले). यह बदलाव उत्तर की उच्च जनसंख्या वृद्धि और उच्च प्रजनन दर के कारण है और नीतिगत प्राथमिकताओं में असंतुलन पैदा कर सकता है.

अगर 2019 के एक अध्ययन की गणना के मुताबिक, लोकसभा सीटों की संख्या 848 तक बढ़ा दी जाए, तो बदलाव और भी बड़े हो जाएंगे. चार उत्तरी राज्यों को अतिरिक्त 150 सीटें मिलेंगी जबकि दक्षिण के पांच राज्यों को सिर्फ 35 सीटों का लाभ होगा. इस तरह उत्तर को हासिल असंगत लाभ राष्ट्रीय निर्णय-प्रक्रिया में दक्षिण के असर को और घटा देगा. यही असंतुलन माथे पर शिकन की वजह है, क्योंकि उत्तर भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में सिर्फ 24 फीसद का योगदान है, जबकि दक्षिण 31 फीसद का योगदान देता है. आर्थिक योगदान के अनुपात को ध्यान में रखे बिना प्रतिनिधित्व में बदलाव राजकोषीय संघवाद में तनाव बढ़ा सकता है.

दक्षिणी राज्य पहले ही राष्ट्रीय वित्त आवंटन में कमतर हिस्सेदारी महसूस करते हैं. उनकी दलील है कि प्रतिनिधित्व में सिर्फ आबादी का ही नहीं, बल्कि आर्थिक उत्पादन, कर योगदान और विकास संकेतकों पर भी विचार किया जाना चाहिए. भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के अध्यक्ष के.टी. रामराव का कहना है कि परिसीमन में राज्यों के वित्तीय योगदान का भी  ध्यान रखा जाना चाहिए. वे बताते हैं, ''तेलंगाना की आबादी देश की आबादी का 2.8 फीसद है, लेकिन जीडीपी में योगदान 5.2 फीसद है.’’

इसका दूसरा पहलू यह है कि परिसीमन पर सीमा अनुच्छेद 81 के तहत निष्पक्ष प्रतिनिधित्व के सिद्धांत का खंडन है, जिसके मुताबिक हर लोकसभा सांसद को 5,00,000 से लेकर 7,50,000 लोगों का प्रतिनिधि होना चाहिए. लेकिन 1976 से सीट पुनर्वितरण पर संवैधानिक रोक के साथ हर निर्वाचन क्षेत्र की औसत आबादी में काफी वृद्धि हुई है, कुछ सांसद अब लगभग 30 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो गंभीर खामी है.

हर सांसद के लिए पंजीकृत मतदाताओं की संख्या पर विचार करने पर परिसीमन का असर और अधिक गहरा हो जाता है. उत्तरी राज्यों में 18 वर्ष से कम आयु वालों की आबादी ज्यादा है, और इसलिए उनकी कुल आबादी के मुकाबले हर निर्वाचन क्षेत्र में पंजीकृत मतदाताओं का अनुपात कम है. मसलन, उत्तर प्रदेश में अब एक सांसद लगभग 31 लाख लोगों का प्रतिनिधि है, जबकि तमिलनाडु में 19.8 लाख लोगों का. लेकिन पंजीकृत वोटरों के मामले में प्रति सांसद फर्क सिर्फ 3,00,000 का है. कई आलोचकों का तर्क है कि परिसीमन की सीमा से एक व्यक्ति एक वोट का सिद्धांत कमजोर हो गया है.

परिसीमन की कवायद संसद और राज्य विधानसभाओं में एससी/एसटी के लिए आरक्षित सीटों के आवंटन में भी अहम फर्क लाएगी. ये सीटें हर राज्य में उनकी आबादी के अनुपात में होती हैं, इसलिए उच्च एससी/एसटी वृद्धि दर वाले राज्य, खासकर उत्तर में, अधिक आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र पा सकते हैं, जबकि कम आबादी वृद्धि वाले दक्षिणी राज्यों को खोना पड़ सकता है. 2011 की जनगणना के अनुमानों के मुताबिक, पूरे देश में एससी-आरक्षित दो सीटों और एसटी-आरक्षित एक सीट की बढ़ोतरी हो सकती है, और कम से कम 18 निर्वाचन क्षेत्रों में उनके आरक्षण की स्थिति में बदलाव देखने को मिल सकता है. इससे सीटें खोने वाले राज्यों में एससी/एसटी के राजनैतिक रसूख को कम कर सकता है, जिससे क्षेत्रीय नेताओं का विरोध शुरू हो सकता है.

चिंताएं और भी हैं

स्टालिन इसे परिसीमन से कहीं आगे, अधिकारों की लड़ाई तक ले जाते हैं. अपने जन्मदिन (1 मार्च) पर उन्होंने घोषणा की, ''हम देश में भाषा की लड़ाई की दिशा तय करने वालों में अग्रणी रहे हैं.’’ वे राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) के तहत तीन-भाषा नीति को ''हिंदी थोपने’’ की कोशिश करार देते हैं और इसे केंद्र के अतिक्रमण से जुड़ा एक और पहलू करार देते हैं, जो पहले से ही तमिलनाडु को उसके हिस्से की धनराशि से वंचित कर रहा है. परिसीमन और एनईपी की भाषा नीति के मुद्दे से उत्तर-दक्षिण विभाजन के गहराने का खतरा है.

स्टालिन का यह आक्रामक अभियान किस रूप में सामने आएगा? इस लिहाज से क्रिस्टोफ जफरले की अगुआई में विश्लेषकों के अध्ययन को काफी अहम माना जा सकता है. पेरिस स्थित इंस्टीट्यूट मोंटेन से प्रकाशित अध्ययन 'भारत: विरोधाभासी क्षेत्रीय गतिशीलता की चुनौती’ में देश के इन्फ्रास्ट्रक्चर, उद्योग और सामाजिक कल्याण के मामले में गहरी क्षेत्रीय गैर-बराबरी का जिक्र है. इससे पता चलता है कि बहस दो मुख्य मुद्दों पर केंद्रित होगी. पहला, उत्तर-दक्षिण के बीच बढ़ती खाई तनाव बढ़ाएगी.

दूसरा, मोदी के गुजरात मॉडल पर आधारित आर्थिक नीतियों को लेकर सवाल उठेंगे. इसके विपरीत, तमिलनाडु का वैकल्पिक नजरिया समावेश और मानव विकास का है. बेरोजगारी और निम्न-मध्य वर्ग की तेजी से हालत पतली होने से तमिलनाडु की सफलता की कहानी लोगों का ध्यान खींच सकती है, 'गुजरात मॉडल’ को चुनौती दे सकती है. श्री वेंकटेश्वर विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के प्रमुख बी.वी. मुरलीधर कहते हैं, ''संघवाद के नाम पर विविध क्षेत्रीय ताकतों को एकजुट करने की स्टालिन की क्षमता उनकी स्थिति को मजबूत कर सकती है.’’

चुनावी मुद्दा?

राजनैतिक विश्लेषक परिसीमन पर बहस को तमिलनाडु विधानसभा चुनाव से पहले द्रमुक की रणनीतिक चाल मान रहे हैं, जिसमें अब एक साल से भी कम समय है. यह भाजपा की अगुआई वाली केंद्र सरकार की तरफ से एनईपी से जुड़ी फंडिंग, त्रिभाषा फॉर्मूला और नीट (राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा) जैसे मुद्दों के जरिए व्यापक राजनैतिक नैरेटिव से भी जुड़ता है. सर्वदलीय बैठक से स्टालिन ने बता दिया है कि यह राज्य के अधिकारों और तमिल पहचान का मसला है.

भाजपा ने बेशक द्रमुक को एक बड़ा मुद्दा थमा दिया है. राजनैतिक विश्लेषक एन. सत्यमूर्ति कहते हैं, ''भाजपा ने एक संवेदनशील मुद्दे को उभारा है, जबकि तमिल युवाओं की नई पीढ़ी द्रमुक और अन्नाद्रमुक को स्थिर सरकारों के तौर पर देखती है जो समाज कल्याण की योजनाएं लागू करती रही हैं.’’ इस वैचारिक लड़ाई में द्रमुक पहले ही लाभ की स्थिति में रही है, क्योंकि हिंदुत्व और अन्नाद्रमुक के भाजपा के साथ जुड़ाव को मुद्दा बनाकर ही स्टालिन के नेतृत्व में पार्टी ने लगातार तीन चुनाव जीते हैं. 2019 और 2024 का लोकसभा चुनाव और 2021 का विधानसभा चुनाव. और अब भाजपा नेतृत्व ने स्टालिन को एक और शानदार मुद्दा दे दिया, जो केंद्र-राज्य संबंधों और सामाजिक न्याय के साथ-साथ 'द्रविड़ मॉडल’ से भी जुड़ा है. सबसे बड़ी बात, यह सब ऐसे समय पर हुआ है जब अन्नामलै काफी आक्रामक अभियान चला रहे हैं.

जैसे-जैसे परिसीमन पर बहस जोर पकड़ रही है, साफ होता जा रहा है कि दक्षिण का प्रतिरोध केवल संख्या को लेकर नहीं है, बल्कि वह इसे अपनी राजनैतिक आवाज, आर्थिक योगदान और संघीय स्वायत्तता से जोड़कर देख रहा है. निर्वाचन क्षेत्रों के नए सिरे से निर्धारण से पूर्व बहुप्रतीक्षित जनगणना की जरूरत होगी. जनगणना पूरी होने की कोई आधिकारिक समयसीमा न होने के कारण परिसीमन प्रक्रिया शुरू होना अभी सिर्फ अटकलबाजी है. हालांकि, तब तक इसे लेकर बयानबाजियां राजनैतिक चिंगारी को भड़काती रहेंगी और चुनावी रणनीति की दशा-दिशा तय करती रहेंगी.ठ्ठ

उत्तर चाहता है परिसीमन, दक्षिण नहीं, आखिर क्यों
●केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक जैसे दक्षिणी राज्यों ने आबादी बढ़ोतरी पर कामयाबी के साथ अंकुश लगाया पर अब उनके सामने संसदीय सीटें खोने का खतरा है क्योंकि उनका नए सिरे से आवंटन आबादी के आधार पर होना है. परिसीमन से उच्च आबादी वृद्धि वाले उत्तरी राज्यों की हिस्सेदारी बढ़ने से उनका राजनैतिक रसूख घट जा सकता है 

● दक्षिणी राज्य देश की जीडीपी और कर राजस्व में काफी योगदान करते हैं, लेकिन लोकसभा में उनकी घट सकती है. इससे वित्तीय संघवाद की निष्पक्षता के सवाल खड़े हो गए हैं. पहले ही उत्तरी और दक्षिणी राज्यों के बीच आर्थिक गैर-बराबरी काफी बढ़ रही है. परिसीमन से यह खाई और चौड़ी हो सकती है. लिहाजा, राजकाज और अधिक उत्तर केंद्रित हो सकता है

●कुछ दक्षिण भारतीय नेताओं की दलील है कि अगर लोकसभा सीटों का नए सिरे से आवंटन आबादी के आधार पर किया जाता है तो समान प्रतिनिधित्व देने के लिए राज्यसभा का पुनर्गठन होना चाहिए, जिसमें आबादी का ख्याल नहीं रखा जाना चाहिए  

● उत्तरी राज्यों की दलील है कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व के संवैधानिक सिद्धांत को ध्यान में रखकर प्रतिनिधित्व आबादी के हिसाब से होना ही चाहिए. फिलहाल दक्षिण भारत में प्रति सांसद मतदाताओं का प्रतिनिधित्व उत्तरी राज्यों के मुकाबले अधिक है.

● उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भारी आबादी बढ़ोतरी देखी गई है, मगर सांसदों की संख्या 1971 के हिसाब से ही बनी हुई है, जिससे प्रतिनिधित्व में भारी कमी है. परिसीमन की कवायद के तहत लोकसभा और विधानसभाओं के मामलों में एससी और एसटी के लिए आरक्षित सीटों के आवंटन पर भी फर्क पड़ेगा. द्रमुक का परिसीमन विवाद पर फोकस तमिलनाडु चुनावों के पहले शुरुआती रणनीतिक चाल भी है. चुनाव अब महज साल भर दूर हैं.

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