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प्रधान संपादक की कलम से

2014 में जब मोदी सरकार ने कमान संभाली, 126 जिलों में नक्सलियों का वर्चस्व था और ये जिले 10 राज्यों में फैले थे. अब यह संख्या घटकर 12 रह गई है

इंडिया टुडे कवर : अब बस आखिरी चोट
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अपडेटेड 17 मार्च , 2025

—अरुण पुरी

महज दशक भर पहले देश भर में नक्सलियों की इतनी व्यापक और खूंखार मौजूदगी हुआ करती थी कि तब प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने वामपंथी उग्रवाद को "राष्ट्र की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा" बताया था. जिसे लाल गलियारा कहा जाता था, उसने ठेठ नेपाल में पशुपतिनाथ से लेकर आंध्र प्रदेश में तिरुपति तक भारत को ऐन बीच से दोफाड़ कर दिया था. भारतीय सरजमीं पर इसके दबदबे वाले दिनों में करीब 8 करोड़ लोगों की जिंदगियों के इसकी चपेट में होने का अनुमान लगाया जाता है.

2014 में जब मोदी सरकार ने कमान संभाली, 126 जिलों में इसका वर्चस्व था और ये जिले 10 राज्यों में फैले थे: बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, संयुक्त आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल. डॉ. सिंह ने इसकी जड़ की तरफ अचूक ध्यान दिलाया था: आदिवासी भारत की तकरीबन आपराधिक स्तर की उपेक्षा, जो वन अधिकारों के छिनने और विस्थापन से और बदतर हो गई. अनाथ और शक्तिहीन बना दिए गए स्थानीय समुदाय नक्सलवाद की राज्यसत्ता-विरोधी और हिंसक विचारधारा की जड़ें जमाने और फलने-फूलने के लिए मुकम्मल जमीन बन गए.

चुनौती विभिन्न स्तरों पर पेचीदा थी. दूरदराज के उन जंगली इलाकों में विकास की रोशनी फैलाना आसान न था जहां गुरिल्ला युद्ध में माहिर कलाश्निकोव-लहराते गैरसरकारी सैन्य-वर्दीधारियों की हुकूमत चलती हो. उनके गुरिल्ला तौर-तरीकों में बूबी ट्रैप या चोर फंदे और बारूदी सुरंगें बिछाना, घात लगाकर हमले करना और बंदूकें तड़तड़ाते लंबी लड़ाइयां लड़ना शामिल था. पिछले 20 साल में नक्सल विद्रोह के खिलाफ लड़ाई में 2,344 सुरक्षाकर्मियों की जानें गईं—करगिल जंग में मारे गए भारतीय सैन्यकर्मियों से चार गुना ज्यादा. इस गिनती में इसी अवधि के दौरान इसी से जुड़ी घटनाओं में मारे गए 6,000 से ज्यादा नागरिक शुमार नहीं हैं.

इतने विशाल भूभाग और उसके खिन्न तथा उदास सामाजिक आधार पर नई दिल्ली ने फतह कैसे हासिल की? केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में बता रहे हैं कि रणनीति जितनी अर्थगर्भी थी उतनी ही अथक और निर्मम भी, और उद्देश्य ''हथियारों और हिंसा को विकास और विश्वास से बदलना" था. मोदी सरकार ने चार आयामों वाली अनूठी रणनीति से गतिरोध आखिरकार तोड़ ही दिया, जो 2019 में शाह के कमान संभालने के बाद ठोस और संगठित तरीके से अपनाई गई.

पहला जोर बंदूकें उठाए लोगों से बेरहमी से निबटने पर था. इसका मतलब मध्य भारत के सबसे घने जंगलों में सुरक्षा का विस्तृत जाल बिछाना था ताकि जमीनी दबदबा कायम किया जा सके. सरकार ने यह काम उन इलाकों में फॉरवर्ड ऑपरेटिंग बेस (एफओबी) स्थापित करके किया जहां पहले सुरक्षा के अभाव की वजह से नक्सली पनप पाए थे. जमीनी नजरिया समझने के लिए ग्रुप एडिटोरियल डायरेक्टर राज चेंगप्पा ने सीनियर एसोसिएट एडिटर राहुल नरोन्हा के साथ बस्तर के बीचो-बीच इनमें से कई एफओबी का दौरा किया.

बस्तर में राज चेंगप्पा (बीच में), चंद्रदीप कुमार (बाएं) और राहुल नरोन्हा (दाएं)
बस्तर में राज चेंगप्पा (बीच में), चंद्रदीप कुमार (बाएं) और राहुल नरोन्हा (दाएं)

सुरक्षा बल के जवान उन्हें मोटर साइकिलों पर बिठाकर ले गए, जो बारूदी सुरंगों से बचने का नया तरीका था. उन्होंने पाया कि इन अड्डों का कामकाज नक्सलियों के मुकाबले कहीं ज्यादा आधुनिक असॉल्ट राइफलों से लैस और प्रशिक्षित लड़ाकू कमांडो संभाल रहे थे. ये एफओबी आसपास के परिवेश से अलग-थलग किलेबंद चौकियां ही नहीं थे, सामाजिक मेलजोल के ठिकाने भी थे, जो स्थानीय लोगों के लिए स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र चला रहे थे. बीते पांच साल में इस इलाके में ऐसे 302 अड्डे स्थापित किए गए और पता यह चला कि यह इस जंगली इलाके में अपने को मजबूत करने का सबसे अच्छा तरीका भी था.

दूसरे नंबर पर था खुफिया जानकारी जुटाने के ड्रोन और सैटेलाइट इमेजिंग सरीखे आधुनिक औजारों का शुमार, जिनसे विद्रोहियों के आने-जाने पर नजर रखने में मदद मिली. नक्सलियों की पुरानी गुरिल्ला तरकीबें आज के जमाने की चौकसी और निगरानी के आगे टिक नहीं पाईं और उन्हें उनके गढ़ों से बाकायदा खदेड़ दिया गया. पीछे हटते विद्रोहियों से खाली जमीन पर वर्चस्व बनाए रखने के लिए किलेबंद पुलिस थाने कायम किए गए. ऐसे 612 से ज्यादा थाने बनाए गए हैं.

इससे अंदाजा लगता है कि कितना मैदान जीत लिया गया है. एफओबी के एक इशारे पर आने के लिए हेलिकॉप्टर मुस्तैद रहते थे ताकि कार्रवाई के लिए फटाफट आने-जाने और आपातकालीन चिकित्सा के लिए ले जाने की क्षमता के साथ सुरक्षा बलों का मनोबल ऊंचा रहे. इस बीच आत्मसमर्पण की उदार नीति से विद्रोह विरल होता गया. बीते 10 साल में करीब 7,500 नक्सलियों ने हथियार डाले. नक्सल जमात के इन पूर्व काडर में से कई राज्य के बलों में शामिल होकर 'बल वर्धक' बन गए और उन्होंने बेहद अहम इंसानी गुप्तचरी और स्थानीय भूभाग की अच्छी जानकारी के साथ तकनीकी गुप्तचरी को समृद्ध किया.

तीसरे नंबर पर था जबरन धन वसूली और हथियारों की पाइपलाइन को काटना और स्थानीय अर्थव्यवस्था को डिजिटल बनाकर नकदी की आमद पर शिकंजा कसना. पहेली का यह आखिरी टुकड़ा अपनी जगह फिट होने पर सबसे टिकाऊ साबित हो सकता है. नक्सलियों से मुक्त इलाकों में विकास की बेहद जरूरी इबारतें लिखी गईं: 11,503 किमी से ज्यादा सड़कें, 2,343 मोबाइल टावर और खुशहाली के दूसरे हरकारे.

शाह कहते हैं कि इरादा ऐसा प्रतिमान गढ़ने का है जिससे "लोगों के पास नक्सलवाद की तरफ लौटने की कोई वजह न हो." हमने जिसे मोदी सरकार की गोली और गुलाब नीति कहा है, वह भारतीय राज्यसत्ता के खिलाफ सबसे लंबे विद्रोह का माकूल समापन है, खासकर अगर 2026 के वसंत तक देश को बंदूक लहराते नक्सलियों से पूरी तरह निजात दिलाने का शाह का मंसूबा कामयाब होता है.

— अरुण पुरी, प्रधान संपादक और चेयरमैन (इंडिया टुडे समूह).

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