
संसद के ऊपरी सदन यानी राज्यसभा की शिक्षा संबंधित स्थायी संसदीय समिति ने 4 फरवरी, 2025 को अपनी 361वीं रिपोर्ट संसद में पेश की. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सांसद दिग्विजय सिंह की अध्यक्षता वाली इस समिति में केंद्र की सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) समेत दूसरे दलों के सांसद भी सदस्य हैं. समिति ने अपनी रिपोर्ट में उच्च शिक्षा में केंद्र सरकार की तरफ से किए जा रहे सुधारों और प्रस्तावित सुधारों की विस्तृत पड़ताल की है.
रिपोर्ट में आशंका जताई गई है कि देश भर के विश्वविद्यालयों का नियमन करने वाले विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) और अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआइसीटीई) की जगह पर बनाए जाने वाले भारतीय उच्च शिक्षा आयोग (हेकी) के गठन से ग्रामीण क्षेत्रों के विश्वविद्यालय और कॉलेज बंद हो सकते हैं. वहीं यूजीसी ने उच्च शिक्षण संस्थानों में कुलपति और शिक्षकों की नियुक्ति से संबंधित प्रस्तावों का भी मसौदा जारी किया है. यह मसौदा भी अपने प्रस्तावों की वजह से विवादों के घेरे में है.
दरअसल, केंद्र सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में उच्च शिक्षा के लिए एक नियामक बनाने की बात कही गई थी. यह नई शिक्षा नीति का ही प्रस्ताव था कि हेकी का गठन करके उच्च शिक्षा के लिए एक नियामक बने और पूरी नियमन प्रक्रिया सरल बने. हेकी की जरूरत इसलिए भी महसूस की गई क्योंकि अभी उच्च शिक्षा के नियमन के लिए कई संस्थाएं हैं. इनमें यूजीसी और एआइसीटीई जैसी केंद्र सरकार की संस्थाएं हैं तो राज्यों में चलने वाले राज्य विश्वविद्यालयों के नियामक के तौर पर राज्य की संस्थाएं भी काम करती हैं. इस वजह से इन संस्थाओं की जिम्मेदारी तय करना मुश्किल हो जाता है. हेकी का जो ढांचा केंद्र सरकार ने सामने रखा है, उसमें चार स्वतंत्र वर्टिकल होंगे. ये अलग-अलग वर्टिकल नियमन, एक्रि डिटेशन (प्रमाणन), अनुदान और शिक्षा से संबंधित नीतियों का काम देखेंगे.
हालांकि यह संस्था बनाने के प्रस्ताव पर संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है, "हेकी के गठन के बावजूद नियमन संबंधित मौजूदा समस्याएं बरकरार रहती दिख रही हैं क्योंकि इसमें केंद्र सरकार का बहुत अधिक प्रतिनिधित्व है और राज्य सरकारों का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व है. हेकी विधेयक के मुताबिक प्रस्तावित संस्था के पास काफी शक्तियां होंगी. इनमें डिग्री देने की शक्ति के अलावा मानकों का पालन नहीं करने पर संस्थाओं को बंद करने की शक्ति भी शामिल है. इससे राज्य सरकारों का नियंत्रण खत्म होगा और ग्रामीण क्षेत्रों के वैसे संस्थान बंद हो सकते हैं जिनके पास बुनियादी ढांचे का अभाव होगा और जहां शिक्षकों की कमी होगी. इससे खास तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में अप्रत्यक्ष तौर पर निजीकरण बढ़ेगा."
अब शिक्षा मंत्रालय को इन सुझावों पर गौर करना है और जब प्रस्तावित संस्था से संबंधित विधेयक का नया मसौदा आएगा, तब पता चलेगा कि राज्यों के पर्याप्त प्रतिनिधित्व को लेकर क्या प्रावधान किए गए हैं.
वहीं यूजीसी एक और प्रस्ताव की वजह से विवादों के घेरे में है. हाल ही में यूजीसी ने विश्वविद्यालयों के कुलपतियों और शिक्षकों की नियुक्ति से संबंधित नियमों का एक मसौदा जारी किया है. यह कॉलेजों के शिक्षकों की नियुक्ति पर भी लागू होगा. यूजीसी ने सभी स्टेकहोल्डर्स से 28 फरवरी, 2025 तक इस मसौदे पर अपने सुझाव भेजने के लिए कहा है.
इस मसौदे में किसी भी राज्य विश्वविद्यालय के कुलाधिपति को कुलपति की नियुक्ति से संबंधित व्यापक अधिकार दिए गए हैं. इसमें एक विवादास्पद प्रस्ताव यह है कि कुलपति के लिए जो सर्च कमेटी बनेगी, उसमें राज्य सरकार के प्रतिनिधि अब शामिल नहीं होंगे. इस मसौदे में एक प्रस्ताव यह भी है कि कुलपति के तौर पर नियुक्ति के लिए सिर्फ अकादमिक लोगों को ही नहीं बल्कि विभिन्न क्षेत्रों के लोगों पर विचार किया जा सकता है. कुलपति की नियुक्ति में पीएचडी की डिग्री या निश्चित शैक्षिक अनुभव की बाध्यता को भी खत्म करने का प्रस्ताव है.
वहीं अभी नियम है कि जिस विषय में एक व्यक्ति ने राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा यानी नेट पास की हो, उसी विषय या उससे संबंधित विषय में ही शिक्षक के तौर पर उसकी नियुक्ति हो सकती है. यूजीसी के नए मसौदे में इस विषयों के दायरे को बढ़ाकर इंटर-डिसिप्लिनरी अप्रोच को बढ़ावा देने की बात की गई है.
यूजीसी की तरफ से प्रस्तावित नियमों में बदलाव को लेकर न सिर्फ विपक्ष की तरफ से आपत्ति की गई है बल्कि भाजपा के सहयोगी जनता दल (यू) ने भी इस पर आपत्ति दर्ज की है. पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता राजीव रंजन प्रसाद कहते हैं, "राज्य सरकारों की हिस्सेदारी को कम करने से उनके लिए अपनी जरूरतों के हिसाब से उच्च शिक्षा में बदलाव ला पाना मुश्किल होगा. इसमें संशोधन करना चाहिए."
तमिलनाडु की सत्ताधारी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम और राज्य के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने यूजीसी की तरफ से प्रस्तावित बदलावों का कड़ा विरोध किया है. उन्होंने तमिलनाडु विधानसभा में इसके खिलाफ बाकायदा एक प्रस्ताव पारित करवाया. स्टालिन का आरोप है कि ये नियम सारी शक्तियों को केंद्रित करने वाले और देश के संघीय ढांचे को नुक्सान पहुंचाने वाले हैं.
हालांकि, केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने लोकसभा में इससे संबंधित एक सवाल के जवाब में कहा, "यूजीसी विनियम, 2025 का मसौदा राज्य विश्वविद्यालयों को अधिक स्वायत्तता और समावेशी विकास प्रदान करता है. मसौदा विनियम शिक्षकों की चयन प्रक्रिया में विश्वविद्यालयों को अधिक शक्ति प्रदान करते हैं. इसके साथ ही नियुक्ति और पदोन्नति के लिए पात्रता मानदंड को सरल और व्यापक बनाया गया है."
शिक्षा मंत्री के इस बचाव के बावजूद यूजीसी के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं कि जिस तरह से जद (यू) ने आपत्ति की है, उसके बाद प्रस्तावित नियमों में बदलाव करने का दबाव बढ़ेगा. उनके मुताबिक, 28 फरवरी तक सभी स्टेकहोल्डर्स से उनका पक्ष मंगाया गया है और इसके बाद ही संस्था को सरकार की तरफ से भी संकेत मिलने की संभावना है कि आखिर इन प्रस्तावित नियमों पर किस तरह से आगे बढ़ना है.
एनटीए की अग्निपरीक्षा
राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी (एनटीए) एक बार फिर विवादों में है. इस बार विवाद पेपर लीक से संबंधित नहीं बल्कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आइआइटी) समेत अन्य इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिले के लिए आयोजित जेईई मेन्स 2025 परीक्षा से 12 सवालों को हटाने की वजह से है. यह परीक्षा इसी साल 22 जनवरी से 30 जनवरी के बीच देश के 600 से अधिक परीक्षा केंद्रों पर आयोजित कराई गई थी. किसी भी परीक्षा में इक्का-दुक्का सवालों का गलत होना सामान्य है लेकिन 12 सवालों को हटाया जाना एनटीए की क्षमता पर फिर से सवाल खड़े कर रहा है. अब तक एनटीए को कभी भी इतने सवालों को अपनी किसी परीक्षा से नहीं हटाना पड़ा था.
हालांकि इन सवालों के हटाए जाने से छात्रों के परिणाम पर कोई असर नहीं पड़ता, क्योंकि इनके पूरे अंक सभी अभ्यर्थी को दे दिए जाते हैं. भले ही उन्होंने सवाल हल करने की कोशिश न की हो लेकिन इससे एनटीए के कामकाज और क्षमताओं पर जरूर सवाल उठ रहे हैं. पिछले एक साल में दो बार एनटीए की ओर से आयोजित परीक्षाओं में पेपर लीक के आरोप लगे हैं. इसी हवाले से बीते साल केंद्र सरकार ने इसरो के पूर्व प्रमुख के. राधाकृष्णन की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया. इस समिति ने अक्तूबर, 2024 में अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को सौंपी. समिति ने सुधार के लिए कई सिफारिशें की हैं लेकिन इन पर कैसे अमल किया जाएगा, इसे लेकर कोई स्पष्टता अभी नहीं है.

दरअसल, एनटीए की परिकल्पना एक ऐसी केंद्रीय विशेषज्ञ एजेंसी के तौर पर की गई थी जो मुख्य तौर पर भारत के उच्च शिक्षा संस्थानों में दाखिले से संबंधित सभी परीक्षाएं आयोजित करे. लेकिन 2017 में अपने गठन से लेकर अब तक के तकरीबन सात साल के सफर में एनटीए की परीक्षाओं पर कई बार सवाल उठे हैं. एनटीए के कामकाज से जुड़े लोगों पर बातचीत करने पर पता चलता है कि सवालों से संबंधित समस्याओं की जड़ यह है कि एनटीए पेपर सेट करने के मामले में काफी हद तक बाहरी विशेषज्ञों पर निर्भर है. दिल्ली के ओखला इंडस्ट्रियल एस्टेट में जहां एनटीए का मुख्यालय है, वहां हर परीक्षा से पहले पेपर सेट करने वाले विशेषज्ञों को बुलाया जाता है.
इस प्रक्रिया के बारे में दिल्ली के एक प्रमुख विश्वविद्यालय के एक प्राध्यापक कहते हैं, "पेपर सेट करने के लिए सामान्य तौर पर असिस्टेंट प्रोफेसर स्तर के लोग जाते हैं. वे अलग-अलग पृष्ठभूमि के होते हैं. उनके सवाल बनाने का तरीका भी अलग होता है. इसलिए कई बार सिलेबस से बाहर के सवाल परीक्षा में आ जाते हैं. इस बार भी यही हुआ है."
वे समाधान की राह सुझाते हुए कहते हैं, "एनटीए को अपने विषय विशेषज्ञ नियुक्त करने होंगे. आखिर एनटीए परीक्षा कराने के लिए छात्रों से अच्छे-खासे पैसे परीक्षा शुल्क के नाम पर लेती है. फिर खर्च करने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए. अगर उनके अपने विषय विशेषज्ञ होंगे तो उनकी अकाउंटेबिलिटी तय करना एनटीए के लिए आसान होगा."
राधाकृष्णन समिति ने भी नए सिरे से एनटीए के पुनर्गठन की सिफारिश की है. समिति की कई सिफारिशों में एक यह भी है कि एजेंसी में आंतरिक विषय विशेषज्ञ होने चाहिए जो भविष्य में होने वाली परीक्षाओं की कमान अपने हाथ में ले सकें. समिति ने यह भी कहा है कि अगर एनटीए में फुल टाइम विशेषज्ञ नहीं भी नियुक्त किए जाते हैं तो सेंट्रल स्टाफिंग स्कीम, शैक्षणिक संस्थाओं और विशेषज्ञ संस्थाओं से डेपुटेशन पर एक लंबी अवधि के लिए विषय विशेषज्ञों को अपने यहां लाने पर काम करना चाहिए और इसके लिए अधिक सैलरी देने जैसे कदम उठाए जा सकते हैं ताकि लोग एनटीए में काम करने के लिए प्रोत्साहित हो सकें.