—अरुण पुरी
इंसान की सेहत में लिवर या जिगर की अहमियत पर गौर करें, तो इसके साथ अक्सर शरीर के दूसरे अंगों के मुकाबले सौतेला बर्ताव किया जाता है. शरीर के ठसकदार और बेहद मेहनती अंग दिल को तो पूरी तवज्जो मिलती है, लेकिन लिवर की ज्यादा बात नहीं होती.
यह अजीब है क्योंकि यह शरीर का रिजेनरेटिव अंग है यानी इसकी क्षतिग्रस्त कोशिकाएं दोबारा बन जाती हैं. यह कई बीमारियों की जड़ भी है. लिवर की कार्यप्रणाली में गड़बड़ी खाने को ऊर्जा में बदलने वाली मेटाबोलिक सेहत के लिए घातक है, जिससे इंसान एक-दूसरे से पनपने वाली व्याधियों के सिलसिलेवार जोखिम से घिर जाता है.
इनमें डायबिटीज, आंतों की खराब सेहत, ऑब्सट्रक्टिव स्लीप एप्निया, गैस्ट्रोएसोफेगल रिफ्लक्स रोग शामिल हैं, जिनमें से कई जानलेवा हो सकते हैं.
लिवर शरीर का सबसे बड़ा अंग और रोग-प्रतिरोधक ग्रंथि है. वयस्कों में सामान्य लिवर का वजन महज 1.5 किग्रा होता है, लेकिन किसी भी समय यह शरीर की 13 फीसद रक्त आपूर्ति को संभालता है. पाचन नली से निकलने वाला सारा रक्त इस जैविक छंटनीघर से गुजरता है; यहीं पोषक तत्वों को अलग और रीपैकेज करके शरीर के अलग-अलग अंगों में भेज दिया जाता है और जहरीले सहउत्पादों को अपशिष्ट के रूप में बाहर निकालने के लिए रवाना कर दिया जाता है.
यह तो इसकी महज एक भूमिका है. इस पेचीदा अंग का पूरा कामकाज वन पीस सिंफनी ऑर्केस्ट्रा की तरह है, जिसमें 500 जीवनदायी मेटाबोलिक, रोग-प्रतिरोधक, और शुद्धिकारक कामों में इसका हाथ होता है. तभी तो शरीर का यह शक्तिकेंद्र बहुत सारे कामों को अंजाम देते हुए बैक ऑफिस में चुपचाप जुटा रहता है और हमें पता भी नहीं चलता. मगर पता यह चलता है कि लिवर के विकार भारत में महामारी जितने व्यापक और संगीन होते जा रहे हैं.
पहले हेपेटाइटिस के मामलों को छोड़कर लिवर की व्याधियों को पूरी तरह शराब से लगाव रखने वाले लोगों से जोड़ा जाता था. लिवर की पुरानी बीमारी सिरोसिस को, जो इसके स्वस्थ ऊतकों को नष्ट कर देती और उन्हें इसके सामान्य कामकाज को रोकने वाले जख्म के निशानों में बदल देती थी, शराब के बहुत ज्यादा सेवन के नतीजे के तौर पर देखा जाता था.
मगर अब ऐसा नहीं है. एक नया अभिशाप हम पर बरपा है: नॉन-अल्कोहलिक फैटी लीवर डिजीज (एनएएफएलडी) यानी शराब के बिना भी होने वाली वसायुक्त लीवर की बीमारी. यह बहुत-से कारकों से होती है जिनमें मोटापा और खानपान की खराब आदतें शामिल हैं. हममें से ज्यादातर को इस छिपे खतरे का पता तक नहीं है और भारत में इसके प्रकोप ने तकलीफदेह ढंग से करीब 40 फीसद आबादी को चपेट में ले लिया है. फिक्र और खतरे की बात यह कि 35 फीसद से ज्यादा बच्चों में भी यह फैल गई है, ऐसा अध्ययनों से पता चला है.
मसला इतना गंभीर है कि 2021 में भारत एनएएफएलडी को गैर-संक्रामक रोग घोषित करने वाला पहला देश बन गया और हम इसके खिलाफ वैश्विक लड़ाई में सबसे आगे आ गए. उस साल भारत में तमाम वजहों से होने वाली लिवर की मृत्यु दरों की वैश्विक फेहरिस्तों में शीर्ष पर था: 2,77,130 मौतें, जो दूसरी पायदान पर आए चीन से करीब दोगुनी थी. लिवर के तमाम दुश्मन साथ मिलकर शिकार करते हैं.
मुश्किल बात यह कि इसके लक्षण जल्दी दिखाई नहीं देते. एनएएफएलडी छिपा हुआ खतरा है, जो भले-चंगे मालूम देते लोगों पर भी धावा बोल देता है. किसी व्यक्ति को इससे पीड़ित तब करार दिया जाता है जब उसके लिवर पर 5 फीसद से ज्यादा फैट या चर्बी जमा हो जाती है. अलबत्ता डायग्नोज होने के बाद भी मरीज इसे इसलिए हल्के में लेते हैं क्योंकि 90 फीसद से ज्यादा अलग कर दिए जाने या क्षतिग्रस्त होने के बाद भी लिवर बढ़कर अपने मूल आकार में लौट सकता है. लेकिन फैटी लिवर होता तो सुस्त और आलसी ही है और अंतत: खुद पर अभिशाप भी.
याद रखने वाली प्रमुख बात दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ लिवर ऐंड बिलियरी साइंसेज के चेयरमैन और भारत के शीर्ष हेपेटोलॉजिस्ट डॉ एस.के. सरीन ने सबसे अच्छे ढंग से बयान की: ''हालांकि यह बहुत ज्यादा वजनी और मोटे लोगों में ज्यादा है, लेकिन फैटी लिवर से ग्रस्त होने के लिए आपको मोटा होना या वसा खाना जरूरी नहीं है.''
दरअसल, क्लिनिकल लिवर डिजीज में छपे 2021 के अध्ययन से पता चला कि एनएएफएलडी के भारतीय मरीजों में 10-15 फीसद दुबले-पतले थे और उनका बॉडी मास इंडेक्स या शरीर द्रव्यमान सूचकांक मानक स्तर पर था. अंतत: उन्हें थकान, भरेपन का एहसास, मितली, पीलिया, गाढ़ा मूत्र, या हल्का-सा बढ़ा हुआ लिवर अनुभव हो सकता है. मगर जब तक रोग का पता चलता है, वे लिवर में फैट के साथ लंबे वक्त तक जी चुके होते हैं कि इसके शरीर को भीतर ही भीतर कुतर देने वाले प्रभावों की चपेट में आ जाते हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि थोड़े भी वक्त एनएएफएलडी की अनदेखी के गंभीर नतीजे हो सकते हैं.
इस हफ्ते हमारी आवरण कथा के लिए सीनियर एडिटर सोनाली आचार्जी ने इस विषय की आद्यांत जांच-पड़ताल के लिए प्रमुख डॉक्टरों और गफलत में पड़े मरीजों से बात की. उन्होंने पाया कि एनएएफएलडी बहुत हद तक हमारे खानपान से होती है. जब हम जरूरत से ज्यादा कैलोरी का सेवन करते हैं तो अतिरिक्त कैलोरी बॉडी फैट में तब्दील हो जाती है.
लिवर ही वह पहली जगह है जहां डी नोवो लिपोजेनेसिस होता है यानी अतिरिक्त कार्बोहाइड्रेट से नया फैट बनाया जाता है. इसमें से कुछ खतरनाक आंतरिक फैट के रूप में वहीं जमा हो जाता है. इसलिए भारतीयों के कार्बोहाइड्रेट पर निर्भर आहार को देखते हुए हमें इसके होने की सबसे ज्यादा आशंका है.
जांच करवाना बेहद जरूरी है क्योंकि एनएएफएलडी का इलाज न करवाया जाए तो यह स्टेटोहेपेटाइटिस (फैट से उत्पन्न सूजन) से लेकर सिरोसिस और लिवर कैंसर तक कहीं ज्यादा जटिल विकार पैदा कर सकती है. खुशकिस्मती से ट्रांजिएंट इलास्ट्रोग्राफी सरीखे नए परीक्षणों की बदौलत डायग्नोज की प्रक्रियाएं परिष्कृत होती जा रही हैं. कोई खास दवा तो नहीं है, आम तौर पर जीवनशैली में स्थायी बदलावों—खानपान, कसरत और वजन कम करने-की सलाह दी जाती है.
शरीर के वजन में 10 फीसद की कमी का भी लिवर के फैट को घटाने पर जबरदस्त असर पड़ता देखा गया है. 'सेंट्रल ओबेसिटी' या पेट का मोटापा 84 फीसद भारतीय मरीजों में सबसे आम कारक पाया गया है, इसलिए पेट का मोटापा छांटना सबसे जरूरी है. हम आपको लिवर के अनुकूल खाने की चीजों से लेकर इलाज के विकल्पों तक पूरी जानकारी दे रहे हैं.
यह चेत जाने का समय है. एक वक्त था जब हम लिवर के बारे में ज्यादा सोचे बगैर जी सकते थे. यह कहीं ज्यादा मारक वक्त है. भले-चंगे रहने के लिए लिवर को भला-चंगा रखिए.
— अरुण पुरी, प्रधान संपादक और चेयरमैन (इंडिया टुडे समूह).