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वकीलों से जुड़े नए कानून पर क्यों एक कदम पीछे हटी सरकार?

संशोधित ऐक्ट के मसौदे में अगर वकील कोई केस हार जाता है तो क्लाइंट को वकील के खिलाफ शिकायत करने का अधिकार दिया जा रहा है कि वकील ने ठीक से केस नहीं लड़ा

गुस्सा एडवोकेट ऐक्ट में संशोधन के मसले पर रांची में 21 फरवरी को प्रदर्शन करते एडवोकेट
अपडेटेड 11 मार्च , 2025

फरवरी की 13 तारीख के बाद देशभर के वकीलों में बहुत ज्यादा बेचैनी और आंदोलन की खदबदाहट दिख रही थी. सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन भी आंदोलन की रूपरेखा तैयार करने में जुट गई थी.

दिल्ली समेत देश के कुछ हिस्सों में धरना-प्रदर्शन शुरू हो गया था और इसकी वजह थे एडवोकेट (संशोधन) ऐक्ट 2025 के मसौदे में लिखे गए विवादित प्रावधान.

इन प्रावधानों में वकीलों को आंदोलन या काम बंद हड़ताल की इजाजत न होना, केस हारने पर मुवक्विल को शिकायत का अधिकार, वकीलों को एक ही बार एसोसिएशन में वोट का अधिकार और बार काउंसिल ऑफ इंडिया में सरकार के प्रतिनिधि शामिल करने की व्यवस्था शामिल थी.

दरअसल, 13 फरवरी को विधि और न्याय मंत्रालय की वेबसाइट पर डिपार्टमेंट ऑफ लीगल अफेयर्स ने एडवोकेट (संशोधन) बिल 2025 का मसौदा लोगों की राय जानने के लिए डाला. नए दौर की जरूरतों के मुताबिक, वकालत या विधि व्यवसाय और कानून की पढ़ाई में बदलाव करना इस मसौदे का लक्ष्य था. मगर, वकीलों को ये बदलाव रास नहीं आए और उनकी तीखी प्रक्रिया सामने आई.

वकीलों ने देश के अनेक हिस्सों में इस मसौदे के खिलाफ प्रदर्शन किए. दिल्ली में निचली अदालतों की बार एसोसिएशन की कोऑर्डिनेशन कमेटी की अगुवाई में आंदोलन हुआ. कमेटी के चेयरमैन जगदीप वत्स ने बताया, ''संशोधनों के बारे में हमारी राय नहीं ली गई. हमने केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुनराम मेघवाल से मुलाकात की और उन्हें अपनी चिंताएं बताईं.''

वकीलों की नाराजगी का यह असर हुआ कि 22 फरवरी को सरकार ने संशोधन विधेयक का यह मसौदा वापस ले लिया. साथ ही सरकार की तरफ से बताया गया कि एडवोकेट (संशोधित) बिल 2025 का मसौदा अब संशोधित कर फिर से जनता की राय के लिए लाया जाएगा. जाने-माने वकील और राज्यसभा सांसद विवेक तन्खा ने विधेयक का मसौदा वापस लेने पर कानून मंत्री की प्रशंसा की, लेकिन उनकी चिंताएं कहीं गहरी थीं.

तन्खा ने इंडिया टुडे से कहा, ''देश में जो हालात बन गए हैं, उसमें विरोध का अधिकार छीन लिया जाएगा तो हम न्याय की लड़ाई कैसे लड़ेंगे. हालांकि मैं खुद काम ठप करने के पक्ष में नहीं हूं लेकिन हड़ताल के अधिकार को खत्म करना अनुचित है. वकीलों के एसोसिएशन में सरकारी प्रतिनिधियों की नियुक्ति नाहक दखलअंदाजी है. इसमें सरकारी हस्तक्षेप स्वीकार नहीं है. बार काउंसिल की भूमिका विधि अध्ययन में खत्म की जा रही है जो ठीक नहीं है. मसौदा वापस लेना इसे रद्द करने के बराबर है.''

विधेयक का मसौदा वापस लेने के बाद भारत में विधि व्यवसाय और कानून की पढ़ाई का नियमन करने वाली संस्था बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआइ) के चेयरमैन मनन कुमार मिश्र ने बयान जारी कर कहा कि पक्षकारों की चिंताओं और सुझावों के आधार पर कानून मंत्रालय मसौदा दोबारा जारी करेगा. बीसीआइ ने वकीलों की चिंताओं से कानून मंत्री मेघवाल को अवगत करा दिया है. कानून मंत्री ने भरोसा दिलाया है कि बिल के मसौदे को अंतिम रूप देने से पहले सभी विवादास्पद पहलुओं पर विचार कर उनका समाधान किया जाएगा. बीसीआइ ने अपील की है कि सरकार के इस कदम के बाद वकीलों और बार एसोसिएशनों को हड़ताल और प्रदर्शन से दूर रहना चाहिए.

लेकिन सबसे ज्यादा चिंतित निचली अदालतों के वकील ही थे. वत्स कहते हैं, ''संशोधित ऐक्ट के मसौदे में अगर वकील कोई केस हार जाता है तो क्लाइंट को वकील के खिलाफ शिकायत करने का अधिकार दिया जा रहा था कि वकील ने ठीक से केस नहीं लड़ा. वकील के पास कोई पावर तो होती नहीं है कि वह जमानत दे सके या कोई ऑर्डर दे सके. क्लाइंट के खिलाफ ऑर्डर आ जाए तो मुसीबत वकील की हो जाती. यह बहुत घातक प्रावधान था. बार एसोसिएशन रजिस्ट्रार ऑफ सोसाइटीज ऐक्ट के तहत संचालित होती हैं. कार्य से विरत रहने को भी प्रोफेशनल मिस कंडक्ट में ला रहे थे.''

इसके अलावा नए मसौदे में हर पांच साल में दस्तावेजों के सत्यापन की बात कही गई थी. यह काफी संवेदनशील मुद्दा रहा है. मालूम हो कि जून 2015 में दिल्ली के तत्कालीन कानून मंत्री जितेंद्र सिंह तोमर को दिल्ली पुलिस ने फर्जी डिग्री लगाने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था. वे दिल्ली बार काउंसिल के साथ पंजीकृत थे और गिरफ्तारी के बाद उनका पंजीकरण रद्द कर दिया गया था.

तन्खा कहते हैं कि डिग्रियों का वेरिफिकेशन होना चाहिए ताकि फ्रॉड आदमी प्रैक्टिस नहीं करे. मगर वे कहते हैं कि इसका तरीका अलग होना चाहिए, यह कोई लाइसेंस नहीं है जिसे हर पांच साल में रिन्यू कराया जाए. वहीं वत्स का मानना है कि बार काउंसिल को लाइसेंस जारी करने से पहले ऐसा करना चाहिए. वकीलों का मानना है कि संशोधनों से वकीलों और उनकी संस्थाओं की स्वायत्तता खत्म होती है.

बहरहाल, सरकार ने आनन-फानन विधेयक का मसौदा वापस लेकर वकीलों के एक बड़े आंदोलन को टालने में कामयाबी हासिल की है. देश में 25 लाख से ज्यादा वकील हैं और केवल दिल्ली में ही 1.60 लाख वकील हैं. सच यह है कि 90 फीसद वकील किसी तरह आजीविका चला रहे हैं. सरकार को चाहिए कि इनकी स्थिति सुधारने की कोई व्यवस्था की जाए.

बदलाव के विवादित बिंदु

परिभाषा: लीगल प्रैक्टिशनर की परिभाषा व्यापक की गई है, इसमें कॉर्पोरेट लॉयर, इन हाउस लॉयर,  फॉरेन लॉयर या विधिक काम करने वालों को भी शामिल किया गया.

एनरोलमेंट: परीक्षा पास करने और बार से लाइसेंस लेने के साथ स्थानीय बार एसोसिएशन में भी रजिस्ट्रेशन कराना होगा. एक ही जगह वोट दे सकेंगे. शहर बदलने पर 30 दिन के अंदर सूचना देनी होगी.

हड़ताल: हड़ताल के अधिकार में कटौती. प्रतीकात्मक या एक दिन का प्रदर्शन प्रशासनिक या अन्य मामले के लिए प्रदर्शन मान्य है. लेकिन कोर्ट का काम प्रभावित नहीं होना चाहिए. हड़ताल या न्यायिक काम का बहिष्कार कदाचार माना जाएगा.

सरकार का दखल: बार काउंसिल में मौजूदा सदस्यों के अलावा केंद्र सरकार के तीन सदस्य होंगे. सरकार डायरेक्शन दे सकती है.

सजा: किसी वकील को तीन साल की सजा में दोषी पाए जाने पर प्रैक्टिस से रोक. छूटने के दो साल के बाद प्रैक्टिस कर सकेगा.

वेरिफिकेशन: हर पांच साल में वकीलों के दस्तावेजों का वैरिफिकेशन होगा.
(ये प्रावधान एडवोकेट (संशोधन) ऐक्ट 2025 में संशोधन के मसौदे में थे. मसौदा केंद्र सरकार ने 22 फरवरी, 2025 को वापस ले लिया)

मैं खुद काम ठप करने के पक्ष में नहीं हूं. लेकिन हड़ताल करने के वकीलों के अधिकार को खत्म करना अनुचित है. वकीलों के संगठनों में सरकारी प्रतिनिधियों की नियुक्ति नाहक दखलंदाजी है. इसमें सरकारी हस्तक्षेप स्वीकार नहीं है. 

विवेक तन्खा, राज्यसभा सांसद और जाने-माने वकील

विवेक तन्खा, राज्यसभा सांसद और जाने-माने वकील

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