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इंसानों से टकराव कैसे जंगली जानवरों को बदलने लगी है?

मानव-पशु मुठभेड़ों और हताहतों की संख्या में चिंताजनक वृद्धि, शहरी इलाके भी इस खतरे से अछूते नहीं

गुवाहाटी में 23 दिसंबर 2023 को एक आवासीय इलाके के निर्माण स्थल में घुसा एक तेंदुआ
गुवाहाटी में 23 दिसंबर 2023 को एक आवासीय इलाके के निर्माण स्थल में घुसा एक तेंदुआ
अपडेटेड 12 मार्च , 2025

खबरों के बेतरतीब जंगलों के बीच कुछ कहानियां अचानक हमारा ध्यान खींचती हैं. मगर ऐसी घटनाएं इतनी ज्यादा बार हो चुकी हैं कि हमने इनकी परवाह करना ही बंद कर दिया है, और इसे भी प्रदूषण की समस्या की तरह ही जीवन का एक हिस्सा मान बैठे हैं. फिर भी, इनमें से ज्यादातर घटनाएं बेहद अजीबोगरीब हैं, जिनके बारे में हमें गंभीरता से सोचना चाहिए. मसलन, बाघों का दिखना-मगर सफारी में नहीं बल्कि सड़कों के किनारे. 'भोपाल के शहरी बाघों' को ही लीजिए, जिन्होंने कलियासोत बांध के पास खुले जंगलों के आसपास अपना ठिकाना बना रखा है.

शहर से सिर्फ 10 किलोमीटर दूर राजमार्गों पर बाघों की मौजूदगी दहशत बढ़ा रही है. इनके इंसानी बस्तियों के करीब होने से कई बार अनहोनी की आशंका बनी रहती है. ऐसे में अगर कहीं इन्हें मानव मांस का स्वाद मिल जाए तो स्थिति और भी ज्यादा बिगड़ सकती है. इन्हें 'आदमखोर' कहना गलत नहीं होगा. केरल के वायनाड में 24 जनवरी को ऐसी ही एक घटना सुर्खियों में आई जब 47 वर्षीय आदिवासी महिला कॉफी एस्टेट जाते समय बाघ का शिकार बन गई.

चूंकि वायनाड पारिस्थितिकी और राजनैतिक दोनों ही लिहाज से काफी संवेदनशील है इसलिए इस घटना ने कुछ ज्यादा ही ध्यान खींचा. स्थानीय स्तर पर विरोध बढ़ा तो भटके बाघ को पकड़ने के आदेश दिए गए. वैसे वह खुद ही मर गया. उसने इस तरह किसी इंसान को आहार बनाया, इसका मतलब था कि वह पहले से ही बीमार था. लकड़ियों के लिए पेड़ निरंतर कटते जाने के बीच हमें जंगलों की जरूरत की व्यापक तस्वीर पर गौर करना होगा. इसकी वजह से उत्पन्न होने वाली मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही हैं, जो मानव और पशुओं दोनों के लिए किसी त्रासदी से कम नहीं हैं. इसके साथ ही, कुछ एकदम नए पैटर्न भी सामने आ रहे हैं.

पश्चिमी घाट भारत का ऐसा सबसे प्राचीन उष्णकटिबंधीय वर्षावन है, जो दशकों से मानवीय गतिविधियों का अनपेक्षित दबाव झेल रहा है और जहां 'मानव-पशु संघर्ष' की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं. 4 फरवरी को एक 77 वर्षीय जर्मन पर्यटक कोयंबत्तूर की वालपराई रेंज स्थित टाइगर वैली में एक उग्र जंगली हाथी से अपनी जान बचाकर भागने में कामयाब रहा. मगर, 7 से 11 फरवरी के बीच वायनाड और इडुक्की में जंगली हाथियों के अलग-अलग हमलों में चार लोगों की जान चली गई. इन सभी घटनाओं में किरदार और जगहें लगभग समान थीं—आदिवासी, वन्यजीव प्रेमी, चाय के बागान या जंगलों की सीमा पर बसे गांव और पहाड़ों पर बहती नदियां. तमिलनाडु में 2024-25 में अब तक वन्यजीवों से जुड़ी घटनाओं में 80 लोगों की मौत हो चुकी है, जो पिछले पांच साल में सबसे ज्यादा हैं. इसके अलावा फसलें खराब होने की 4,235 घटनाएं और 259 मवेशियों की मौत हो चुकी है. आंकड़ों से इनकी भयावहता का एहसास होता है. यह हमें बताता है कि देशभर के जंगलों में इंसानी दखल कितनी तेजी से बढ़ रहा है. और, यह इंसानों और जंगली जानवरों के बीच एक नए तरह का संपर्क उत्पन्न कर रहा है.

मगर, यह नया और अप्रत्याशित पैटर्न आम सोच-समझ से परे है, और पहली नजर में यह किसी बुरे सपने से कम नहीं है. इसे एक तरह का पशु-प्रतिशोध कह सकते हैं—मानो वे अपने पुराने इलाकों को वापस लेने पर उतारू हों. मार्च से सितंबर 2024 के बीच उत्तर प्रदेश के बहराइच में भेड़ियों के झुंड ने लोगों, खासकर बच्चों को अपना निशाना बनाया, जिसमें 10 लोगों की मौत हुई और 30 से ज्यादा घायल हो गए. हमले तेज होने के बाद छह भेड़ियों को पकड़ा गया. उसी दौरान मध्य प्रदेश में भोपाल के आसपास सलकनपुर, खंडवा और सीहोर आदि शहरों में सियारों के हमले बढ़े. इन घटनाओं में एक खास बात ये भी दिखी कि जानवर अब इंसानी बस्तियों, शहरों और उनके आसपास के इलाकों से ज्यादा परिचित होते जा रहे हैं.

हाल में असम के रायमोना राष्ट्रीय उद्यान के पास हाइवे पार करने से पहले शांति से गाड़ियों के गुजरने का इंतजार करते जंगली हाथियों के वीडियो ने जीव वैज्ञानिकों का ध्यान खींचा. यह अजीब है क्योंकि बीते अध्ययनों में हाथियों को इंसानों से दूर रहने वाला प्राणी बताया जाता रहा है, और वे इस तरह नियम-कायदे मानने वाले तो कतई नहीं रहे हैं. ठीक इसी तरह, एशियाई शेरों का एक झुंड गुजरात के पीपावाव बंदरगाह के पास हाइवे, घाटों और रेलवे यार्ड या विशाल कंटेनरों के आसपास घूमता नजर आ जाता है. कई बार एक शेरनी को शावकों के साथ खुले कंटेनर में आराम करते भी देखा गया.

सदियों से इंसान जंगली जानवरों के आवासों पर कब्जा करता आया है. उसने लकड़ियों के लिए पेड़ काटे, खेतों और शहरों के लिए जंगलों का नामो-निशान मिटा दिया, जमीन से खनिज और तेल निकाले हैं, पहाड़ों का सीना चीरकर खदानें और हाइवे बनाए, नौकाओं-जहाजों की मदद से समुद्र पर कब्जा जमाया और उसे भी न जाने किन-किन जहरीले तत्वों से भर दिया. लिविंग प्लैनेट डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की 2024 की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 1970 से 2020 के बीच 5,000 से ज्यादा कशेरुकी जीवों की आबादी में औसतन 73 फीसद की गिरावट आई है. कई प्रजातियां खत्म हो गईं हैं. जो कुछ भी बची हैं, उनमें से अधिकांश खुद को नए परिवेश के अनुकूल ढालने में सफल रही हैं.

वैज्ञानिकों ने पाया है कि बड़े पैमाने पर उनका व्यवहार बदल चुका है. ये अब अपना शर्मीला और एकाकी स्वभाव छोड़ चुकी हैं और इंसानों के साथ आमना-सामना होने पर आक्रामक भी हो सकती हैं. भोजन, आश्रय और सुरक्षित प्रजनन की जगह की तलाश में विभिन्न प्रजातियां हमारे दरवाजों तक दस्तक देने लगी हैं. चूंकि इंसान धरती पर लगभग हर जगह बस चुके हैं, वैज्ञानिक एक नए दौर के जानवरों के विकास की बात भी कर रहे हैं. हम दोपायों की मौजूदगी से पहले की तरह डरने के बजाए वे अनिच्छा से ही सह-अस्तित्व के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं. डब्ल्यूडब्ल्यूएफ-इंडिया के नेशनल लीड फॉर एलिफेंट कन्जर्वेशन अरित्रा छेत्री इसे "साझा स्थानों में मनुष्यों और जानवरों के बीच सह-अनुकूलन" बताते हैं. सरीसृप, पक्षी, वानर और छोटे स्तनधारी जीव तो हमेशा से शहरी इलाकों में फलते-फूलते रहे हैं. लेकिन, जैसा छेत्री कहते हैं, "अब बड़े स्तनधारी जैसे तेंदुए, हाथी और बाघ भी खुद को शहरी इलाकों के आसपास रहने के अनुकूल ढाल चुके हैं."

क्या यह अच्छी खबर है? जाहिर है, नहीं. लेकिन इसका जवाब काफी पेचीदा भी है. मसलन, वैज्ञानिक जंगली प्रजातियों को दो श्रेणियों में वर्गीकृत करते है—'के-चयनित' और 'आर-चयनित', पहली श्रेणी के जानवर बड़े होते हैं, कम संतान पैदा करते हैं और अगर उनका इलाका बदलता है तो इनके विलुप्त होने का खतरा रहता है, जैसे हाथी और व्हेल. वहीं 'आर-चयनित' प्रजातियां ज्यादा और बार-बार संतान पैदा करती हैं. अगर उन्हें भोजन, आवास और प्रजनन के लिए जगह मिलती रहेगी तो वे खुद को उसके अनुकूल ढाल लेंगे और अपना अस्तित्व बचाए रखेंगे.

शहरों के किनारे डेरा जमाने वाला तेंदुआ ऐसी ही एक प्रजाति है. इसका खान-पान का तरीका काफी व्यापक है. और यही वजह है कि यह शर्मीली, चालाक बिल्ली प्रजाति मुंबई, दिल्ली-एनसीआर, बेंगलूरू और शिमला जैसे घनी आबादी वाले इलाकों में भी खुद को बचाए रख पाने में सक्षम है. हाल के घटनाक्रम और अध्ययन दर्शाते हैं कि आर-चयनित जीवों ने असल में अपने उन इलाकों को वापस पाने की जद्दोजहद शुरू कर दी है जिन पर कब्जा करके इंसानी बस्तियां बनाई जा चुकी हैं.

दूसरी तरफ, के-चयनित प्रजातियां और ज्यादा संकट में हैं. वन्यजीव विज्ञानी और भारतीय वन्यजीव संस्थान के पूर्व डीन वाइ.वी. झाला कहते हैं, "आमतौर पर हाथी 70 साल तक जीवित रहते हैं. उनके पास कोई विकल्प नहीं है. आवास में बदलाव के बावजूद मौजूदा पीढ़ी तो खत्म नहीं हो जाएगी. उनके लिए टकराव की स्थिति उत्पन्न होगी लेकिन वे खुद को बदलाव के अनुकूल ढालकर किसी तरह जीवित बने रहेंगे, भूखे होने पर फसलें भी खाएंगे. लेकिन यह अनुकूलन अगली पीढ़ी के लिए पर्याप्त नहीं होगा."

आगे एक बड़ा संकट इंतजार कर रहा है. डब्ल्यूडब्ल्यूएफ का अनुमान है कि एशियाई हाथियों के कुल विचरण क्षेत्र में से आज 15 फीसद भी नहीं बचा है. नतीजतन, उनमें से 80 फीसद संरक्षित क्षेत्रों से बाहर रहते हैं. भारत में 2023 के मध्य में इनका अनुमानित आंकड़ा 30,000 था. पर अक्तूबर 2024 में पहली बार वैज्ञानिक तरीके से हुई हाथी गणना के निष्कर्ष पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने रहस्यमय तरीके से छिपा रखे हैं.

अब बाघ संरक्षण की सफलता पर कुछ बात कर लें—भारत में हर साल 6 फीसद की दर से उनकी आबादी बढ़ रही है और पूरे देश में यह प्रजाति देखने को मिलेगी, अवैध शिकार पर काफी हद तक शिकंजा कसा जा चुका है. लेकिन भारत के 65 फीसद बाघ सामान्यत: अभयारण्यों में रहते हैं. 2020 के एक अध्ययन में सामने आया कि उनके आवास का लगभग 60 फीसद हिस्सा ऐसा है, जहां से सड़कों की दूरी पांच किलोमीटर से कम है. इसने उनके जानवरों के शिकार करने लायक इलाके को 20 फीसद घटा दिया है.

फरवरी 2025 में साइंस जर्नल में प्रकाशित झाला के हालिया अध्ययन के मुताबिक, बाघ वास्तव में अपने ऐतिहासिक क्षेत्र के 90 फीसद से ज्यादा हिस्से से विलुप्त हो चुके हैं. भारत में यह प्रजाति आज 6.6 करोड़ लोगों के सह-अस्तित्व में बसी है. क्या ये मानवीय मौजूदगी के 'आदी' हो रहे हैं? झाला का कहना है, "बड़ी बिल्लियां खुद को नए परिवेश में ढालने में सक्षम होती हैं. बाघ कम घनी इंसानी बस्तियों के आसपास पाए जा रहे हैं. शेर तो अधिक घनी बस्तियों के नजदीक भी नजर आ रहे हैं." एक अन्य संरक्षणवादी कहते हैं कि भारत के जंगली एशियाई शेर अब पूरी तरह 'जंगली' नहीं रह गए हैं. सिर्फ एक जीन पूल, एक ही इलाके में सीमित होने और आसपास इंसानी मौजूदगी के कारण एशियाई शेर एक ऐसी विकास प्रक्रिया से गुजर रहे हैं जिसमें वे अपेक्षाकृत शांत और इंसानों पर निर्भर होते जा रहे हैं.

हर कोई इस बारे में अवश्य जानता होगा कि '90 के दशक के शुरू में कुछ लाख की संख्या में पाए जाने वाले गिद्ध कैसे घटते-घटते विलुप्ति के कगार पर पहुंच गए. लेकिन इसी तरह की ही एक अन्य प्रजाति ब्लैक काइट (चील) ने आसानी से खुद को शहरीकरण के अनुकूलित करके शोधकर्ताओं को हैरानी में डाल दिया. भारतीय वन्यजीव संस्थान से जुड़े निशांत कुमार ने दिल्ली में ब्लैक चील मिल्वस की अच्छी-खासी आबादी होने पर अध्ययन किया है. कुमार कहते हैं, "यह प्रजाति अत्यधिक शहरी वातावरण का फायदा उठाने में कामयाब रही और इसने अपने व्यवहार को इंसानों के अनुकूल बना लिया. मसलन, ब्लैक काइट की आबादी मुस्लिम बस्तियों में पांच दशकों से अधिक समय तक स्थिर रही, जहां मांस खिलाना धार्मिक परंपरा का हिस्सा है. इसलिए, खुद को बचाने की जद्दोजहद के बजाए उसने इंसानों के बीच हासिल संसाधन पर निर्भर रहना ज्यादा बेहतर समझा."

सूरत में लेसर फ्लेमिंगो का एक झुंड

सर्दियों में भारत आने वाले लाखों प्रवासी पक्षियों में से भी कुछ में अनुकूलन के संकेत दिखते हैं. प्रवासी पक्षियों में ग्रेटर और लेसर फ्लेमिंगो सबसे शर्मीले माने जाते हैं. मगर 2021 में लेसर फ्लेमिंगो ने भावनगर स्थित हवाईअड्डे के पीछे राजमार्ग के किनारे एक आर्द्रभूमि में घोंसला बनाने का प्रयास किया, जबकि वहां बहुत वाहन गुजरते हैं. इस घटनाक्रम ने संरक्षणवादियों को नई उम्मीद दी है. शोधकर्ता कंदर्प और प्रशांत अंधारिया कहते हैं यह उनके पारंपरिक प्रजनन क्षेत्र वाले मैदानों से 300 किमी दूर था, "अगर 1994 में पोरबंदर में नजर आने को छोड़ दें तो उनका इस तरह यहां घोंसला बनाना अपने आप में एक रिकॉर्ड है."

एक नया विकास क्रम?

तो क्या यह सह-अस्तित्व के विकास का एक नया चरण है? इस पर एटीआरईई में संरक्षण जीवविज्ञानी अबी तमीम वनक का कहना है, "भारत जैसे देशों में मानव-वन्यजीव संघर्ष रोका तो नहीं जा सकता. लेकिन कुछ स्थानों को छोड़ दें तो वन्यजीव फल-फूल रहे हैं क्योंकि उन्हें मनुष्यों की तरफ से संसाधन मुहैया कराए जा रहे हैं. सियार और जंगली बिल्लियां कृषि क्षेत्रों में पल-बढ़ रही हैं. वे मुर्गियों को अपना शिकार बनाती हैं. प्राकृतिक रूप से कचरा साफ करने वाली प्रजातियों में शुमार लकड़बग्घे, भेड़िये और तेंदुए जैसे जीव मानव मल पर निर्भर होते हैं. ऐसा लगता है कि उन्होंने खुद को अनुकूलित कर लिया है. उनके पास कोई विकल्प भी नहीं है."

ग्रामीण क्षेत्रों में वन्यजीव प्रजातियां हमेशा से मनुष्यों के साथ रहती आई हैं. राजस्थान के पाली जिले के जवाई में इंसानों और तेंदुओं का सह-अस्तित्व स्थानीय लोककथाओं का हिस्सा है. वे चट्टानी झाड़ियों के बीच स्थित जंगली गुफाओं में डेरा डाले रहते हैं. कई बार मंदिरों और राजमार्गों पर घूमते भी नजर आ जाते हैं लेकिन उन पर इंसानी हमलों की कोई घटना नहीं होती.

इंसानों-वन्यजीवों के बीच संघर्ष में नुक्सान दोनों ही पक्षों का होता है. ऐसे में अगर जानवर खुद को इंसानों के साथ सह-अस्तित्व के लिए तैयार कर रहे हैं तो इंसानों के लिए भी अपनी मानसिकता बदलना जरूरी हो जाता है, खासकर नीति के स्तर पर. और, साझे अस्तित्व की इस गूढ़ पहेली का जवाब कहीं न कहीं भारत के प्राचीन सांस्कृतिक लोकाचार में ही छिपा है.

जान-माल की क्षति

> वायनाड में 24 जनवरी को बाघ के हमले में एक आदिवासी महिला मारी गई और उस घटना के बाद विरोध-प्रदर्शन हुए. बाद में वह आदमखोर बाघ मृत पाया गया. 

> फरवरी की शुरुआत में एक हफ्ते के भीतर केरल-तमिलनाडु के घाटों के इलाके में हाथियों के साथ मुठभेड़ में पांच लोग मारे गए.

> केवल तमिलनाडु में 2024-25 में अब तक वन्यजीवों के हमले में 80 मौतें हो चुकी हैं. इसके अलावा राज्य में फसलें खराब होने की 4,235 घटनाएं और 259 मवेशियों की मौत हो चुकी है. तमिलनाडु, केरल और कर्नाटक के जंगली इलाकों में ये घटनाएं अब आम हैं.

> साल 2024 में उत्तर प्रदेश के बहराइच में भेड़ियों से कई गांव आतंकित रहे. भेड़ियों ने 10 लोगों को मार डाला और 30 से ज्यादा घायल हो गए. मध्य प्रदेश के खंडवा और सीहोर के आसपास बड़े इलाके में सियारों के हमले सामने आए.

> केरल में जंगली सुअर के हमलों की वजह से 2023-24 में 11 लोग तो 2024-25 में आठ लोग मारे गए.

> महाराष्ट्र में, अधिकतर ताडोबा के आसपास, साल 2022 और 2023 में बाघ के हमलों के कारण 117 लोगों की मौत हुई.

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