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भारत @2025: तेजी से गर्म हो रही धरती; क्या देश में अब ग्रीन भारत अभियान की बारी?

2010 के बाद लगातार गर्मी तेजी से बढ़ रही है. पिछले 14 साल में ही 10 सबसे गर्म साल दर्ज किए गए हैं. दूसरी तरफ ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन भी अभी कम नहीं हुआ है. यही वजह है कि देश में अब ग्रीन भारत अभियान शुरू करने की जरूरत महसूस हो रही है

खुद पर भरोसा ; इलस्ट्रेशन: नीलांजन दास
अपडेटेड 29 जनवरी , 2025

जलवायु परिवर्तन ने 2004 में अपनी निरंतर गति जारी रखी. एक बार डेटा आ जाने के बाद 2024 गर्मी के रिकॉर्ड के मामले में यकीनन 2023 को पछाड़ देगा. वैसे, यह कोई अपवाद नहीं है; दर्ज किए गए सभी 10 सबसे गर्म साल 2010 के बाद के हैं.

फिर भी जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन अभी कम नहीं हुआ है बल्कि बढ़ रहा है. 2023 के दौरान उत्सर्जन में 1 फीसद से ज्यादा इजाफा हुआ. वैज्ञानिकों का कहना है कि गर्मी 2030 तक चरम पर पहुंचने के बाद 25 फीसद से 40 फीसद तक घटेगी.

दरअसल, इसका आम लोगों की जिंदगी से क्या वास्ता है? दक्षिण एशिया में रहने वाले हमारे जैसे लोगों को यकीनन बार-बार अत्यधिक गर्मी की घटनाओं, बाढ़ और सूखे का सामना करना होगा. सेहत और अर्थव्यवस्था पर इसका बहुत असर पड़ेगा. चूंकि गर्मी के मौसम में इंसान की उत्पादकता गिरती है, इसलिए अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन का अनुमान है कि 2030 तक दक्षिण एशिया में श्रम उत्पादकता में 5 फीसद की कमी आएगी, जो 4.3 करोड़ पूर्णकालिक नौकरियों के नुकसान के बराबर है.

जलवायु परिवर्तन की वजह से से ही पाकिस्तान में 2022 की बाढ़ आई थी, जिसने देश की एक-तिहाई भूमि को जलमग्न कर दिया, लगभग 3.3 करोड़ लोगों को प्रभावित किया और 80 लाख लोगों के घरों को उजाड़ दिया. जलवायु परिवर्तन न केवल किसी देश को वर्षों पीछे धकेल सकता है, बल्कि यह मौजूदा खतरों के प्रभाव को भी कई गुना बढ़ा सकता है. मसलन, ज्यादा तापमान ज्यादा ओजोन से जुड़ा हो सकता है, जिससे वायु प्रदूषण बढ़ सकता है. जलवायु परिवर्तन भारत और दक्षिण एशिया में समृद्धि और सुरक्षा के उपाय के काम को कई तरह से और भी मुश्किल बना सकता है.

खासकर दुनिया के गरीब और सबसे कमजोर लोगों के लिए लगातार बढ़ते खतरे के इस संदर्भ ने इस साल अजरबैजान की राजधानी बाकू में आयोजित वार्षिक जलवायु वार्ता की पृष्ठभूमि बनाई. बाकू में वित्त पर ध्यान दिया गया: क्या विकसित देश विकासशील देशों को भविष्य में कम कार्बन पैदा करने की कोशिश करके अपरिहार्य वार्मिंग के लिए अनुकूलन को सक्षम करने के लिए ज्याद वित्त देंगे? अब जैसा कि यह आम बात हो चली है, वार्ताएं तनावपूर्ण थीं और आखिरी वक्त तक चलीं.

नतीजा: अमीर देशों ने 2030 तक जलवायु वित्त को बढ़ाकर 300 अरब डॉलर प्रति वर्ष करने का वादा किया. यह लगभग 100 अरब डॉलर के मौजूदा स्तर से ज्यादा है, लेकिन थोड़ा गहराई से देखें, तो इसके मायूस करने वाले नतीजे होने की कई वजहें हैं: यह अभी नहीं, बल्कि एक दशक के दौरान वित्त बढ़ाने का वादा है; विभिन्न उच्च-स्तरीय अनुमान में वित्त की जरूरत को 10 खरब डॉलर से ज्यादा आंका गया है; और, शायद सबसे ज्यादा परेशानी की बात यह है कि इस राशि में धन के सभी संभावित स्रोत शामिल हैं. सार्वजनिक, निजी, बहुपक्षीय, द्विपक्षीय और अन्य कोई भी चीज जिसके बारे में सोचा जा सकता है. इससे कम कार्बन वाले विकास को बढ़ावा मिलने या जलवायु प्रभावों के खिलाफ आश्वासन मिलने की संभावना नहीं है.

बाकू ने डीकार्बनाइजेशन को तेज करने के व्यापक काम पर भी बहुत उम्मीद नहीं जताई. विकसित देशों ने पिछली बैठकों में जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से कम करने के इरादे को आगे बढ़ाते हुए सामूहिक बयान की मांग की; विकासशील देशों ने सही ही कहा कि मुसीबत खड़ी करने के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार विकसित देश को और ज्यादा वित्त देना चाहिए और, किसी भी तरह से, प्रस्तावित सीमित धन जलवायु परिवर्तन पर सामूहिक कार्रवाई के दावों को खोखला बनाता है. इसमें कोई शक नहीं है कि जलवायु वार्ता में गतिरोध की राजनीति समस्या को गंभीरता से दूर करने के बारे में संदेह पैदा करती है. फिर भी, यह समस्या और आगे के संभावित तरीकों की अधूरी समझ होगी.

जलवायु राजनीति और नीति में उम्मीद की किरण अंतरराष्ट्रीय वार्ता से परे नजर आती है. नवीकरणीय ऊर्जा की लागत में भारी गिरावट और इस बढ़ती धारणा कि ये भविष्य की तकनीकें हैं, के मद्देनजर ब्लूमबर्ग का अनुमान है कि पिछले साल ऊर्जा संक्रमण में निवेश में 17 फीसद का इजाफा हुआ, और पिछले दो साल में 27 फीसद की वृद्धि हुई. इस मामले में चीन ने अगुआई की है, लेकिन कई अन्य देश भी उसका अनुसरण कर रहे हैं. दुनिया भर के देश और व्यवसाय अब यह उम्मीद कर रहे हैं कि विश्व ऊर्जा का भविष्य तेजी से स्वच्छ हो रहा है, और वे पहले कदम उठाकर दुनियाभर में लगी इस होड़ का फायदा उठाएंगे. एक और प्रेरणा यह है कि स्वच्छ ऊर्जा वायु प्रदूषण और रहने योग्य शहरों जैसे अन्य मुद्दों में भी मदद कर सकती है. 

स्वच्छ ऊर्जा के इर्द-गिर्द बढ़ते कन्वर्जेंस ने वार्ता गतिरोध को तोड़कर ज्यादा महत्वाकांक्षी वैश्विक प्रतिज्ञाओं और कार्रवाई के चक्र को क्यों नहीं बढ़ावा दिया है? देश कम कार्बन वाले भविष्य की ओर बढ़ तो रहे हैं, लेकिन इतनी तेजी से नहीं कि कम से कम 1.5 डिग्री सेल्सियस और शायद 2 डिग्री सेल्सियस तक वैश्विक तापमान वृद्धि से बचा जा सके. और जितनी तेजी से यह बदलाव होगा, यह उतना ही तबाही मचाने वाला होगा. जैसे-जैसे मौजूदा उद्योग बाधित होंगे, पेट्रोल कार निर्माण और कोयला खनन जैसे क्षेत्रों में नौकरियां खत्म होंगी और उनकी जगह नई नौकरियां लानी होंगी.

दुर्लभ और महंगी पूंजी को अन्य दबावपूर्ण विकास से अलग पुनर्वितरित करने की जरूरत होगी. लोगों को अपनी यात्रा, अपने घरों को ठंडा रखने और खाने-पीने की आदतों में बदलाव के लिए राजी करना होगा. ये चीजें सरकारों के लिए राजनैतिक रूप से महंगी हो सकती हैं. सामाजिक रूप से विघटनकारी बदलाव की आशंका के कारण देश आक्रामक प्रतिबद्धताओं के बारे में सतर्क हैं. वे इसकी जगह ऊर्जा परिवर्तन की गति और सीमा पर लचीलापन चाहते हैं. 

भारत के लिए इसका क्या मतलब है? हमारी ऊर्जा जरूरतें बहुत हैं और प्रति व्यक्ति कम उत्सर्जन स्तरों की वजह से जलवायु परिवर्तन को रोकने की सीमित जिम्मेदारी है. खासकर ऊर्जा के मामले में व्यवधान महंगा पड़ सकता है. लेकिन हम जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील भी हैं और स्वच्छ ऊर्जा में पहले कदम उठाने से भारतीय अर्थव्यवस्था को संभावित लाभ मिलते दिख रहे हैं.

अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर भारत का संभावित विकल्प समझदारी भरा है. उत्सर्जन में कमी और वित्त के लिए विकसित देशों पर दबाव बनाए रखना, अंतरराष्ट्रीय प्रतिज्ञाओं को सीमित करते हुए घरेलू स्तर पर ऊर्जा परिवर्तन की तैयारी करना. लेकिन जलवायु नेतृत्व के दावों की राह में देर-सबेर ज्यादा जोखिम लेने और ज्यादा साहसिक अंतरराष्ट्रीय प्रतिज्ञाओं के लिए दबाव बनाया जाएगा.

ज्यादा दिलचस्प संभावनाएं और रचनात्मक कार्रवाई की सबसे ज्यादा गुंजाइश देश में ही है. भारत के लिए सबसे पहले जलवायु के प्रति अधिक लचीला बनना होगा, क्योंकि अब कुछ हद तक गर्मी का बढ़ना अपरिहार्य है. सभी देशों की तरह भारत को अपने शहरों और तटों को जलवायु के प्रति ज्यादा लचीला बनाना होगा और कृषि और जल जैसे क्षेत्रों में अनुकूलन की योजना बनानी होगी; शहर-दर-शहर गर्मी से निबटने के ऐक्शन प्लान इसकी मिसाल हैं. यह कोई मामूली काम नहीं है. इसके लिए स्थानीय स्तर की योजना, वैज्ञानिक बुनियादी ढांचा और सभी स्तरों पर ज्यादा प्रभावी सरकारों की जरूरत है.

दूसरा, भारत को रोजगार पैदा करने वाली कम कार्बन अर्थव्यवस्था बनाने के अपने प्रयासों को दोगुना करके बेहद फायदा होगा. अभी बिखरे हुए दृष्टिकोण को आदर्श रूप से ज्यादा रणनीतिक दृष्टिकोण से बदलना चाहिए. हमें रोजगार पैदा करने की संभावनाओं के साथ प्रतिस्पर्धी अवसरों की पहचान करने की जरूरत है, और ऐसे क्षेत्रों की पहचान करनी चाहिए जहां स्वच्छ ऊर्जा संक्रमण वायु प्रदूषण को कम करने जैसे विकास लक्ष्यों को पूरा करता है. 

तीसरा, ज्यादातर देशों की तरह भारत में जलवायु परिवर्तन की जटिलताओं के लिए डिजाइन की गई सरकार नहीं है. इसके लिए आर्थिक परिवर्तन लाने और मंत्रालयों के बीच समन्वय करने की रणनीतिक क्षमता की जरूरत होती है; यह काम पर्यावरण मंत्रालय से आगे बढ़कर कृषि, जल, बिजली, कोयला और शहरी विकास मंत्रालयों और इसके अलावा कई अन्य मंत्रालयों तक फैला हुआ है. इसके लिए केंद्र, राज्य और स्थानीय स्तरों पर समन्वय और स्थानीय अनुकूलन पर समुदायों के साथ और ऊर्जा संक्रमण पर व्यवसाय के साथ काम करने की क्षमता की भी जरूरत है.

जलवायु परिवर्तन से निबटने का रास्ता भारत और अन्य देशों में घरेलू पहल में निहित है. यह साल अहम है. क्या ट्रंप वैश्विक प्रक्रिया को कमजोर करते हुए अमेरिकी जलवायु प्रतिज्ञाओं से पीछे हटेंगे? क्या चीन अपने स्वच्छ ऊर्जा संक्रमण, जिस मामले में वह बेशक अग्रणी है, पर दोगुना जोर देना जारी रखेगा? ये देश और भारत अपने यहां जो कुछ भी करेंगे, उसका असर वैश्विक गतिरोध को तोड़ने या उसे मजबूत करने की क्षमता पर भी पड़ेगा. जलवायु परिवर्तन पर प्रगति की गुंजाइश है, लेकिन यह वैश्विक सफलता से ज्यादा देशों की अर्थव्यवस्थाओं को कम कार्बन और जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीला बनाने के लिए फिर से कल्पना करने से जुड़ा है.

नवरोज़ के. दुबाश

नवरोज़ के. दुबाश प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में हाई मीडोज एनवायरनमेंटल इंस्टीट्यूट में पब्लिक ऐंड इंटरनेशनल अफेयर्स के प्रोफेसर हैं. 

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