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डॉ. मनमोहन सिंह का एक बजट कैसे बन गया बदलते भारत का निर्णायक पल?

किकर - बतौर वित्तमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के 1991 के बजट ने भारत में दुनिया की सबसे सख्त नियंत्रणकारी नीति व्यवस्था में से एक—लाइसेंस राज—को तोड़ने की प्रक्रिया शुरू की

तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह 24 जुलाई 1991 को संसद में केंद्रीय बजट पेश करने से पहले
तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह 24 जुलाई 1991 को संसद में केंद्रीय बजट पेश करने से पहले
अपडेटेड 7 जनवरी , 2025

वर्ष 1991 के आर्थिक उदारीकरण को व्यापक रूप से भारत में आजादी के बाद सबसे महत्वपूर्ण सुधारों के रूप में देखा जाता है. जिन वजहों से उदारीकरण की शुरुआत हुई, वे बहुत गंभीर थीं. 1990 में भारत बेतहाशा उधारी और भारी खर्च के कारण पैदा हुए भुगतान संतुलन (बीओपी) संकट की गंभीर चुनौती का सामना कर रहा था. भुगतान संतुलन किसी एक अवधि में एक देश में आने वाले और वहां से जाने वाले भुगतान के कुल मूल्य में अंतर को कहा जाता है.

वी.पी. सिंह सरकार ने जब 1989 में सत्ता संभाली तो उसे पिछली राजीव गांधी सरकार से घाव की मानिंद समस्याएं विरासत में मिलीं लेकिन वह उचित कदम उठाने में नाकाम रही. भारतीय योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया लिखते हैं, "वह (वीपी सिंह) सरकार जब आई तो उस समय विदेशी मुद्रा भंडार महज 3.6 अरब डॉलर या उस साल में 8 सप्ताह के आयात करने लायक था."

उन्होंने अपनी किताब बैकस्टेज: द स्टोरी बिहाइंड इंडियाज हाइ ग्रोथ ईयर्स में लिखा, "नवंबर 1990 में जब उन्होंने सत्ता छोड़ी, तो मुद्रा भंडार गिरकर 1.9 अरब डॉलर रह गया था जिससे महज तीन सप्ताह ही आयात हो सकता था."

जैसा कि अंदेशा था, वी.पी. सिंह सरकार के बाद नवंबर 1990 में आई चंद्रशेखर सरकार में विदेशी मुद्रा भंडार बिल्कुल खाली हो गया. उसने अतिरिक्त वित्त जुटाने के लिए काफी मशक्कत की, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से बड़ी मात्रा में उधार लिया. ज्यादा नाटकीय घटनाएं और सामने आ गईं.

मई 1991 में वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने भारतीय स्टेट बैंक को सरकार की ओर से जब्त 20 टन सोना यूनियन बैंक ऑफ स्विट्जरलैंड को बेचने के लिए अधिकृत कर दिया, जिसमें छह महीने बाद सोने को वापस खरीदने का प्रावधान था. उन्होंने स्वर्ण भंडार से 47 टन सोना बैंक ऑफ जापान और बैंक ऑफ इंग्लैंड को 60 करोड़ डॉलर के ऋण के लिए जमानत के रूप में गिरवी रखने के लिए बातचीत करने को भी उसे अधिकृत किया. 

21 मई, 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस पी.वी. नरसिंह राव के नेतृत्व में केंद्र में फिर से सत्ता में वापस आई. आर्थिक परिदृश्य ज्यादा चुनौतीपूर्ण था, विदेशी मुद्रा भंडार निचले स्तर पर था और चूक का खतरा सामने था. राव सरकार ने इस संकट के हल के लिए व्यापक ढांचागत सुधार लागू करने का फैसला किया जिनका मकसद सरकारी नियंत्रणों को उदार बनाना, निजी क्षेत्र को ज्यादा भूमिका देना और वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ अधिक एकीकरण था.

राव भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर और योजना आयोग के पूर्व प्रमुख मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री के रूप में लाए. सरकार ने दुनिया की सबसे सख्त नियंत्रणकारी नीति व्यवस्था में से एक—लाइसेंस राज—को तोड़ने की प्रक्रिया शुरू की. इसमें सभी कारोबारों को लाइसेंस लेकर ही अपना परिचालन करना पड़ता था और ये लाइसेंस हासिल करना बहुत मुश्किल काम था.

उत्पादन और मूल्यों पर सरकार का नियंत्रण था और कर्मचारियों की छंटनी या कारोबार बंद करने के लिए सरकार की मंजूरी जरूरी थी. भारत में शुल्क की दरें भी काफी ऊंची थीं जो कई मामलों में सीधे-सीधे आयात को प्रतिबंधित करती थीं और भारतीय कंपनियां विदेशी प्रतिस्पर्धा से बची हुई थीं. लेकिन यह सब बदलने वाला था.

इन सुधारों ने गैर एकाधिकार कानूनों को आसान बनते देखा जो इंदिरा गांधी की सरकार में एकाधिकार और प्रतिबंधात्मक व्यापार व्यवहार (एमआरटीपी) अधिनियम के तहत बहुत ज्यादा प्रतिबंधात्मक बनाए गए थे. 34 उद्योगों में 51 प्रतिशत तक स्वामित्व की इजाजत ऑटोमेटिक रूट के तहत दी गई. 1 जुलाई और 3 जुलाई, 1991 को दो बार में रुपए का अवमूल्यन किया गया और व्यापार नीतियों को उदार बनाते हुए कुछ मध्यवर्ती इनपुट यानी कच्चे माल और कैपिटल गुड्स को छोड़कर सभी तरह के आयात लाइसेंस खत्म कर दिए गए.

वर्ष 1991-92 के बजट में सीमा शुल्क की अधिकतम दरें 300 प्रतिशत से घटाकर आधी यानी 150 प्रतिशत कर दी गईं. बिल्कुल आश्चर्य की बात नहीं कि तब प्रत्यक्ष विदेशी निवेश या एफडीआइ के उदारीकरण का सभी ने स्वागत नहीं किया, खास तौर पर उद्योगपतियों के तथाकथित समूह 'बॉम्बे क्लब’ ने जिसने विदेशी कंपनियों के साथ 'बराबरी के मौके’ के पक्ष में तर्क दिए.ठ्ठ

क्या आप जानते हैं?

बैंक ऑफ इंग्लैंड और बैंक ऑफ जापान ने कुछ हद तक अपमानित करते हुए इस पर जोर दिया कि उनके पास गिरवी 47 टन सोना भौतिक रूप से लंदन में बैंक ऑफ इंग्लैंड की तिजोरी में पहुंचाया जाए

वृद्धि के वाहक

● वस्तुओं और सेवाओं के विश्व निर्यात में भारत का हिस्सा आजादी के समय 2 प्रतिशत था, जो 80 के दशक के मध्य में 0.5 प्रतिशत तक गिर गया. 2002 में यह बढ़कर 0.8 प्रतिशत और वित्त वर्ष 2024 में 1.8 प्रतिशत पर पहुंच गया

● वैश्विक सेवाओं के व्यापार में हिस्सा 1995 में 0.5 प्रतिशत जो 2018 में चार गुना से ज्यादा बढ़कर 3.5 प्रतिशत पर पहुंच गया और वित्त वर्ष 2023 तक 4.3 प्रतिशत पर आ गया

● विदेशी संस्थागत निवेशकों को सितंबर 1992 में भारत में प्रवेश की इजाजत दी गई, जो शेयर बाजार के मुक्चय चालक बन गए. वित्त वर्ष 2024 में इक्विटी क्षेत्र में शुद्ध विदेशी पोर्टफोलियो निवेश प्रवाह 25.3 अरब डॉलर (2.1 लाख 
करोड़ रुपए) रहा

● सार्वजनिक क्षेत्र का एकाधिकार खत्म होने के साथ ही ज्यादा निजी उद्यम परिदृश्य पर उभरे और अधिक रोजगार अवसरों की संभावनाएं बढ़ाईं

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