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भारत-अमेरिका एटमी समझौता : जिसने खोला भारत के लिए न्यूक्लियर ऊर्जा का रास्ता

भारत-अमेरिका एटमी समझौते के जरिए अमेरिका ने एटमी टेक्नोलॉजी के पहरेदार देशों के साथ अपनी गोलबंदी तोड़कर भारत को वैश्विक एटमी व्यापार में दाखिल करवाया

2 मार्च, 2006 को नई दिल्ली में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह
2 मार्च, 2006 को नई दिल्ली में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश के साथ तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह
अपडेटेड 10 जनवरी , 2025

भारत-अमेरिका असैन्य एटमी समझौता भारत के कूटनीतिक  और रणनीतिक इतिहास का निर्णायक क्षण था. इस पर 2008 में दस्तखत हुए. इसे 123 समझौते के नाम से भी जाना जाता है. इसने न केवल भारत-अमेरिका रिश्तों में नए युग का सूत्रपात किया बल्कि एटमी अप्रसार के वैश्विक मानदंडों और भारत की ऊर्जा तथा प्रौद्योगिकीय महत्वाकांक्षाओं के लिए इसके गहरे निहितार्थ भी थे.

इसने अंतरराष्ट्रीय एटमी व्यापार से भारत के अलगाव को खत्म किया और 1974 तथा 1998 में किए गए एटमी परीक्षणों के बाद उस पर थोपी गई वैश्विक पाबंदियों को हटाने की भी कोशिश की. प्रतिबंधों के बावजूद भारत ने एटमी अप्रसार संधि (एनपीटी) को पक्षपातपूर्ण बताकर दस्तखत करने से मना कर दिया था. मगर भारत ने अप्रसार का बेदाग रिकॉर्ड कायम रखा और मजबूत स्वदेशी एटमी कार्यक्रम विकसित किया.

वहीं, 2000 के दशक के शुरुआती वर्षों में ज्यों-ज्यों भारत की अर्थव्यवस्था बढ़ी, ऊर्जा की मांग आसमान छूने लगी. इससे निबटने के लिए एटमी ऊर्जा एक समाधान के रूप में सामने आई पर यूरेनियम की कमी बड़ी अड़चन थी. राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश की अगुआई में अमेरिका ने आतंकवाद और चीन के उभार समेत वैश्विक चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए साझेदार के तौर पर भारत की रणनीतिक क्षमता को पहचाना. ऐसे में एटमी समझौता भारत-अमेरिका की रणनीतिक भागीदारी की आधारशिला बन गया.

भारत-अमेरिका असैन्य एटमी समझौते का लक्ष्य भारत से कुछ निश्चित अप्रसार मानदंडों का पालन सुनिश्चित करवाते हुए उसके लिए वैश्विक एटमी टेक्नोलॉजी और ईंधन बाजार सुलभ करवाना था. इसके प्रमुख प्रावधानों में असैन्य और सैन्य एटमी कार्यक्रमों को अलग करना तथा असैन्य एटमी कार्यक्रम को अंतरराष्ट्रीय एटमी ऊर्जा एजेंसी (आइएईए) के सुरक्षा उपायों के अधीन लाना शामिल था.

दूसरी बात, समझौते ने एटमी सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) के लिए भारत को छूट देने का रास्ता साफ किया, जिससे उसे एनपीटी पर दस्तखत न करने के बावजूद असैन्य एटमी व्यापार की इजाजत मिल गई. तीसरे, इस समझौते की बदौलत भारत एटमी रिएक्टर, टेक्नोलॉजी और यूरेनियम अमेरिका तथा दूसरे देशों से आयात कर सका. असल में, समझौता वैश्विक व्यवस्था के प्रमुख खिलाड़ी के रूप में भारत के उभरने संकेत था.

चुनौतियां अब भी हैं, मगर समझौते की अहमियत भारत की रणनीतिक भागीदारियों, ऊर्जा सुरक्षा और वैश्विक हैसियत पर इसके स्थायी प्रभाव में निहित है. यह इस बात के सांचे का काम करता है कि आपस में जुड़ी हुई दुनिया में देश परस्पर लाभ हासिल करने के लिए अलग-अलग प्राथमिकताओं के बीच सामंजस्य कैसे बिठा सकते हैं.

समझौता अमेरिका की विदेश नीति में बदलाव का भी प्रतीक था, जिसने भारत को जिम्मेदार एटमी शक्ति और एशिया में प्रमुख रणनीतिक भागीदार के रूप में मान्यता दी.

इस समझौते ने भारत को घरेलू एटमी टेक्नोलॉजी और बुनियादी ढांचे में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित किया और ऐसा रोडमैप बनाने में मदद की जिसका मकसद साल 2032 तक 63 गीगावॉट एटमी ऊर्जा का उत्पादन करना है.

भारत की बढ़ती ऊर्जा जरूरतों ने एटमी ऊर्जा को उसके ऊर्जा मिश्रण का बेहद अहम हिस्सा बना दिया, जिससे कोयले और तेल पर निर्भरता कम होगी और वह जलवायु परिवर्तन से लडऩे के मामले में वैश्विक कोशिशों की कतार में आ जाएगा. इस समझौते ने शांतिपूर्ण एटमी ऊर्जा और वैश्विक सुरक्षा मानदंडों के प्रति भारत की प्रतिबद्धता को मजबूत किया.

क्या आप जानते हैं?

अमेरिका ने पहली बार ऐसे देश के साथ एटमी समझौता किया जिसने एटमी अप्रसार संधि (एनपीटी) पर दस्तखत नहीं किए थे

मिला-जुला असर

● समझौता अमेरिका के साथ भारत के घनिष्ठ रणनीतिक रिश्ते की बुनियाद था

● इसने भारत के साथ बरती जाने वाली एटमी अस्पृश्यता को खत्म किया और वह रूस, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, कनाडा के साथ यूरेनियम के आयात के लिए समझौते कर सका

● इसने भारत को एटमी हथियार विकसित करना जारी रखने में सक्षम बनाया और हथियार ग्रेड रिएक्टरों को आइएईए के दायरे से बाहर लाने की अनुमति दी

● एटमी समझौते को भारत में प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, जिसमें अमेरिका के रसूख के आगे रणनीतिक स्वायत्तता को खतरे में डालने को लेकर चिंताएं जाहिर की गईं

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