
उन्नीस सौ सत्तर के दशक में बिहार की भीड़ भरी जेलों की ढहती दीवारों के अंदर दसियों हजारों भूली-बिसरी आत्माएं इंतजार कर रही थीं—इंसाफ की नहीं, बल्कि वक्त के हाथों निगले जाने की. वे विचाराधीन कैदी थे, वर्षों बल्कि दशकों से जेल में बंद, अदालत में अपने दिन की बाट जोहते, गरिमा और उम्मीद से वंचित.
जुझारू युवा वकील कपिला हिंगोरानी महज एक याचिका और इंसाफ को जीतते देखने के जिद्दी जज्बे के साथ उनकी व्यथा को सुप्रीम कोर्ट में ले आईं. न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती ने सुनी. नई इबारत लिखने वाले 1979 के फैसले में अदालत ने कहा कि त्वरित मुकदमा बुनियादी अधिकार है.
देश भर में 40,000 से ज्यादा कैदी आजाद हो गए और उनकी रिहाई ने न्याय की अवधारणा को नए सिरे से परिभाषित करके जनहित याचिका (पीआईएल) के लिए देश की न्यायिक व्यवस्था में जगह बना दी. हाशिए पर पड़े और वंचित समुदायों के वास्ते अदालत के दरवाजे खोलने के लिए गढ़ी गई पीआईएल न्याय और जवाबदेही को बढ़ावा देकर सामाजिक सुधार के ताकतवर औजार के रूप में विकसित हुई.
पीआईएल की जड़ें 1976 के मुंबई कामगार सभा बनाम अब्दुल भाई के उस ऐतिहासिक फैसले में हैं जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने समाज के सामूहिक मुद्दों को संबोधित करने की अहमियत को मान्यता दी और 'सुने जाने का अधिकार' के उस प्रतिबंधात्मक नियम पर सवाल उठाए, जो अदालत तक सीधे प्रभावित पक्षों की पहुंच को सीमित करता था (मामला इस बात के इर्द-गिर्द घूमता था कि ट्रेड यूनियन कामगारों के हित में अपने नाम से कानूनी मुकदमा दायर कर सकती है या नहीं).
पी.एन. भगवती और वी.आर. कृष्ण अय्यर सरीखे दूरदृष्टि-संपन्न जजों ने व्यवस्थागत अन्याय के खिलाफ इंसाफ के लिए इस अवधारणा की हिमायत की. ऐतिहासिक एस.पी. गुप्ता बनाम केंद्र (1981) मुकदमे में न्यायमूर्ति भगवती ने सुने जाने के अधिकार का विस्तार करते हुए जनहितैषी नागरिकों को दरकिनार तबकों को प्रभावित करने वाले मुद्दे अदालत में लाने की इजाजत दे दी.
तभी से पीआईएल ने न्याय को लोकतांत्रिक बनाया, अदालतों को साधारण नागरिकों के करीब लाई, और राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों में गुंथे सिद्धांतों को लागू कराया. इससे बंधुआ मजदूरी, लैंगिक न्याय, और पर्यावरण की रक्षा सरीखे मुद्दों को सुलझाया जा सका और लोगों तथा नागरिक संगठनों को उन लोगों की वकालत करने में समर्थ बनाया जो खुद अदालत तक नहीं पहुंच पाते.
मगर पीआईएल को चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा. न्यायपालिका तुच्छ और राजनीति से प्रेरित जनहित याचिकाओं के बोझ से दब गई. मसलन, बाल्को एंप्लॉईज यूनियन बनाम केंद्र पीआईएल में भारत एल्यूमिनियम कंपनी के विनिवेश को चुनौती दी गई थी.
सुप्रीम कोर्ट ने उसे खारिज कर दिया, और यह बात प्रमुखता से सामने रखी कि नीतिगत फैसले न्यायिक अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं, जब तक कि वे कानूनी अधिकारों का उल्लंघन न करें, और 'पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन' शब्द गढ़ते हुए प्रचार या राजनैतिक एजेंडे के लिए पीआईएल के दुरुपयोग के खिलाफ आगाह भी किया.
चेतावनियों के बावजूद दुरुपयोग जारी है. सांस्कृतिक या नैतिक आधारों का हवाला देते हुए फिल्मों, टीवी शो और मशहूर हस्तियों के विज्ञापनों पर पाबंदी लगाने की मांग वाली पीआईएल दाखिल की गईं. जैसे टेनिस स्टार सानिया मिर्जा की तेलंगाना के ब्रांड एंबेसडर के रूप में नियुक्ति को चुनौती देने वाली पीआईएल, जिसमें दावा किया गया कि इससे राज्य के निवासियों की भावनाएं आहत हुईं.
या 2006 में कुसुम लता बनाम केंद्र (खनन के पट्टे में नाकाम बोली लगाने वाले की तरफ से दायर पीआईएल), जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने 'हिसाब चुकता करने के हथियार' के तौर पर या 'निजी द्वेष या निहित स्वार्थ' के साधन के रूप में पीआईएल के दुरुपयोग के खिलाफ आगाह किया. मगर इन झटकों के बावजूद जनहित याचिका सामाजिक-आर्थिक न्याय और सरकारी जवाबदेही के लिए बेहद अहम ताकत बनी हुई है.
क्या आप जानते हैं?
न्यायपालिका ने चिट्ठियों तक को पीआईएल मान लिया. 'पत्राचार न्याय' से सुनील बत्रा बनाम दिल्ली सरकार मामला आया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने कैदियों को मानवीय गरिमा का अधिकार दिया
12 लाख पीआईएल सुप्रीम कोर्ट में दायर हुईं 1985 से अक्तूबर 2023 तक.
''मैंने देश में सामाजिक कार्यों के लिए याचिका की शुरुआत की. मैंने सुने जाने के अधिकार का पक्ष लिया क्योंकि वह गरीबों और वंचितों तक इंसाफ की पहुंच में रोड़ा था. और मुझे इस पर गर्व है.''
—न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती, भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश
इंडिया टुडे के पन्नों से

अंक (अंग्रेजी): 26 दिसंबर, 2005
वार्षिकांक: 30 निर्णायक वर्ष-
1986/जनहित याचिका
● नए युग में पीआईएल रहेगी. देश को इसका आभारी होना चाहिए. मगर जैसा कि अपेक्षित था, असहमति के स्वर भी हैं. सामाजिक खींचतान में न्यायिक भागीदारी लोकतंत्र के सुधार से जुड़े कदमों से ध्यान बंटाती है और समाज से लोकतंत्र का उत्साह छीन लेती है.
● संवैधानिक अधिकारों से वंचित किए जाने पर न्यायिक सक्रियता कर्तव्य बन जाती है.
—न्यायमूर्ति एम.एन. वेंकटचलैया, पूर्व सीजेआई
पीआईएल से आए ऐतिहासिक फैसले
> हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य (1979): त्वरित सुनवाई के अधिकार को अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का हिस्सा माना, जिससे 40,000 से ज्यादा विचाराधीन कैदी रिहा हुए.
> न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टास्वामी बनाम केंद्र (2017): निजता के अधिकार को मूलभूत अधिकार घोषित किया.
> विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (1997): कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न रोकने के लिए दिशानिर्देश, विशाखा गाइडलाइंस को बाद में पीओएसएच अधिनियम 2013 के रूप में संहिताबद्ध किया गया.