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मंडल आयोग: जिसने देश की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया

मंडल रिपोर्ट पर अमल से भारतीय राजनीति का परिदृश्य पूरी तरह से बदल गया और जाति आधारित राजनैतिक दलों के लिए मैदान तैयार हो गया

दिल्ली में 28 अक्टूबर, 1992 को मंडल रथ पर सवार रामविलास पासवान, वी.पी. सिंह और शरद यादव
दिल्ली में 28 अक्टूबर, 1992 को मंडल रथ पर सवार रामविलास पासवान, वी.पी. सिंह और शरद यादव
अपडेटेड 9 जनवरी , 2025

जब दिल्ली के देशबंधु कॉलेज के युवा छात्र राजीव गोस्वामी ने दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग या मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के तब के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के फैसले के विरोध में 19 सितंबर, 1990 को आत्मदाह करने की कोशिश की तो वह दुखद कदम देश में विरोध का प्रतीक बन गया और उसने देश के सामाजिक ताने-बाने की भंगुरता को उजागर कर दिया.

1979 में मोरारजी देसाई सरकार की ओर से गठित इस आयोग के अध्यक्ष बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बाबू बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल थे. आयोग ने केंद्र सरकार की नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए 27 फीसद आरक्षण का प्रस्ताव किया. यह रिपोर्ट 11 साल तक गुमनाम पड़ी रही. वी.पी. सिंह ने उसे इतिहास के कूड़ेदान से निकाला और 7 अगस्त, 1990 को लागू करने का ऐलान कर दिया.

कुछ लोगों की नजर में यह लंबे समय से प्रतीक्षित सामाजिक न्याय की दिशा में कदम था, दूसरे लोगों ने इसे पिछड़ी जातियों के समर्थन को एकजुट करने के लिए खुला राजनैतिक जुआ करार दिया. लेकिन इस घोषणा के विरोध में संपन्न जातियों के लोगों की घोर जवाबी प्रतिक्रिया हुई. उन्होंने आरक्षण व्यवस्था में इसे अपने अवसरों के कम होने के रूप में देखा. दो साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी बनाम केंद्र मामले में अपने ऐतिहासिक फैसले में पिछड़ी जातियों के लिए 27 फीसद आरक्षण को बरकरार रखा, आरक्षण पर 50 फीसद की सीमा जड़ दी और 'मलाईदार तबके' की अवधारणा लागू कर दी.

मंडल रिपोर्ट पर अमल से भारतीय राजनीति का परिदृश्य पूरी तरह से बदल गया और जाति आधारित राजनैतिक दलों के लिए मैदान तैयार हो गया. इससे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी निकली तो बिहार में राष्ट्रीय जनता दल. इस तरह से बिहार में लालू प्रसाद यादव और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह और मायावती जैसे ताकतवर नेताओं का उदय हुआ. इसके समानांतर चले घटनाक्रम में भारतीय जनता पार्टी ने मंडल की काट के लिए अपना अभियान शुरू किया, जिसे कमंडल राजनीति कहा गया. लालकृष्ण आडवाणी ने अक्टूबर 1990 में राम रथ यात्रा शुरू की, जो हिंदुत्व की छतरी तले सभी हिंदू जातियों को गोलबंद करने की कोशिश थी.

मंडल का प्रेत अभी भी जीवित है और तीन दशक बाद भी उसका असर जारी है. दबदबे वाली जातियां—गुजरात में पाटीदार, हरियाणा में जाट और महाराष्ट्र में मराठा—पिछड़े वर्ग में शामिल होने और अपने लिए आरक्षण हासिल करने को आंदोलन कर रहे हैं. जाति की राजनीति अब जाति आधारित दलों तक सीमित नहीं रही, भाजपा ने भी अपना हिंदुत्व एजेंडा छोड़े बगैर इस खेल को खेलना सीख लिया है. कांग्रेस ने पूरी तरह एक नया मुद्दा उठा लिया है और देशभर में जाति जनगणना की मांग कर रही है.

बिहार में 2022 में नीतीश कुमार ने इस तरह का जन सर्वेक्षण करवाया. उससे खुलासा हुआ कि पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग के लोग राज्य की आबादी का करीब 63 फीसद हैं जिससे आरक्षण बढ़ाने का मामला मजबूत होता है. सुप्रीम कोर्ट ने इस पर 50 फीसद की सीमा लगा रखी है. मंडल 2.0, जैसा कि इसे कहा जा रहा है, का दावा जाति आधारित गैर-बराबरी के असली आंकड़े इकट्ठे करना है, जिससे कि नीति निर्माण को ज्यादा लक्षित और व्यापक बनाया जा सके.

आलोचक इसे और कुछ नहीं बल्कि जाति आधारित चुनावी राजनीति को फिर से जीवित करने का सोचा-समझा कदम मानते हैं. भाजपा, जो हर दशक में होने वाली जनगणना में पहले से ही देरी से चल रही है और जिसे आम चुनाव से पहले अपने सवर्ण जाति या पिछड़े मतदाताओं के नाराज होने का डर था, ने इस सवाल को एकदम से टाल दिया और इसके बजाए आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 फीसद आरक्षण दे दिया.

मंडल आयोग की विरासत जटिल बनी हुई है. उसने ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर पड़ी वंचित जातियों को सशक्त बनाया है, सामाजिक गतिशीलता के नए रास्ते खोले हैं और जातियों के सामाजिक ढांचे को तोड़ा है. लेकिन साथ ही साथ उसने योग्यता, समानता और सकारात्मक कार्रवाई की सीमा को लेकर स्थायी बहस भी छेड़ दी है. राजनैतिक रूप से इससे तय-सा हो गया है कि वोट बैंक की राजनीति के लिए चारे की कभी कोई कमी नहीं होती.

मंडल का सामाजिक न्याय का एजेंडा और कमंडल की सांस्कृतिक गोलबंदी की परियोजना देश के राजनैतिक और सामाजिक विकास को आकार देते रहेंगे. राजीव गोस्वामी के विरोध स्वरूप उठाए गए त्रासद कदम की लपटें उठती रहेंगी और देश से बराबर हिस्सेदारी और समावेशी भविष्य के लिए अपनी महत्वाकांक्षाओं के साथ विभाजित अतीत को खत्म करने की अपील करती रहेंगी.

क्या आप जानते हैं?

देश में जाति आधारित आरक्षण का पहला मामला 1902 का है. कोल्हापुर के शासक शाहू महाराज ने 50 फीसद सरकारी नौकरियां पिछड़ों के लिए आरक्षित कीं

63 फीसद ओबीसी हैं बिहार की आबादी में, जो मंडल रिपोर्ट में अनुमानित 52 फीसद से ज्यादा हैं

इंडिया टुडे के पन्नों से

अंक: 17 अक्टूबर, 1990
आवरण कथा: मंडल रिपोर्ट: हानिकारक हश्र

आंदोलन ने रातोरात छात्रों को भी जातियों के हिसाब से बांट दिया. राजनीतिविज्ञान के शोध छात्र हरेंद्र कुमार ने कहा: ''हम पहले हिंदू बनाम स्टीफन्स या मिरांडा बनाम एलएसआर की होड़ देखते थे. अब वे हमें जातियों के हिसाब से सोचने को मजबूर कर रहे हैं.'' 
—पंकज पचौरी और अन्य

आरक्षण चाहिए मार्च 2017 में दिल्ली के जंतर मंतर पर आरक्षण के लिए जाटों का धरना-प्रदर्शन

मंडल असर

सपा, बसपा और राजद जैसे जाति आधारित दलों और बिहार में लालू प्रसाद और उत्तर प्रदेश में मायावती और मुलायम सिंह जैसे राजनैतिक नेताओं का उदय हुआ

हिंदू पहचान की गोलबंदी को बल मिला और राम जन्मभूमि आंदोलन शुरू हुआ

आरक्षण का लाभ लेने के लिए अन्य समुदायों के आंदोलन को शह मिली

आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10 फीसद आरक्षण का रास्ता निकला

मंडल 2.0 का आधार बना और अब जाति जनगणना की मांग उठ रही

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