
जवानी की दहलीज पर 1950 के दशक में आनंद शर्मा (बदला हुआ नाम) ने छोटी उम्र में ही यह समझ लिया था कि उनके पास विषमलिंगी जैसा बरताव करने के अलावा कोई चारा नहीं है. वे बताते हैं, ''मैं 14 वर्ष का था जब मुझे पता चला कि मैं महिलाओं की बजाए पुरुषों की ओर आकर्षित होता हूं, लेकिन इसके साथ ही मुझे इस बात का भी एहसास हुआ कि इसके बारे में बात न करना ही अच्छा है. बीसेक वर्ष की उम्र में ही मैं समझ चुका था कि सामाजिक स्वीकृति चाहिए तो लड़कियों के साथ ही यौन संबंध बनाना होगा.''
आज 73 वर्ष की आयु में दिल्ली में रहने वाले पूर्व निवेश बैंकर कहते हैं, उन्हें पता है कि बिना किसी कानूनी पचड़े के वे ''अपने बारे में सब कुछ'' बता सकते हैं लेकिन उनका पूरा जीवन इतने झूठों पर टिका है कि बड़ी संख्या में लोगों को ठेस पहुंचाए बिना अपना सच नहीं बोल सकते. उनके शब्दों में, ''आज की दुनिया में पल-बढ़ रहे समलैंगिकों के लिए स्थिति एकदम जुदा है. मैंने हाल ही में टीवी पर दिल्ली प्राइड परेड का कवरेज देखा और इस तरह सार्वजनिक रूप से समलैंगिकों और लेस्बियन का प्रेम जताना मेरे दिल को छू गया. मुझे खुशी है कि मैंने ऐसी दुनिया देखी जहां भावनाओं को स्वाभाविक तौर पर स्वीकार किया जाता है.''
सुप्रीम कोर्ट ने 2018 के ऐतिहासिक फैसले में कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है, जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जीवन का अधिकार, यौन अभिविन्यास और लिंग के आधार पर भेदभाव न किए जाने का अधिकार शामिल है. समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर लाने का रास्ता काफी लंबा रहा है. 1994 में एड्स भेदभाव विरोधी आंदोलन (एबीवीए) ने दिल्ली हाइकोर्ट में समलैंगिकता को अपराधमुक्त करने के लिए याचिका दायर की, जो खारिज हो गई.
इसके बाद फिर, 2001 में नाज फाउंडेशन ने दिल्ली हाइकोर्ट में एक और याचिका दायर की लेकिन उसे भी खारिज कर दिया गया. 2009 में दिल्ली हाइकोर्ट ने वयस्कों के बीच सहमति से समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर किया लेकिन 2012 में शीर्ष अदालत ने उसे पलट दिया.
आखिरकार धारा 377 को बदलने के लिए 2016 में पांच लोगों की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गईं. कुछ का कहना है कि 2018 के फैसले के समय एशियाई देशों पर वैश्विक प्रतिभाओं के लिए खुद को ज्यादा आकर्षक दिखाने का दबाव था. हांगकांग ने तो इससे पहले समलैंगिक प्रवासी कामगारों के जीवनसाथी को वीजा देने की अनुमति दी थी. कारण जो भी हो, शीर्ष कोर्ट का फैसला ऐतिहासिक रहा. समलैंगिकों के जीवन में सुधार आए. हालांकि, एलजीबीटीक्यू+ अधिकारों को लेकर समाज में अभी भी संवेदनशीलता की जरूरत है. भारत में समलैंगिक विवाहों को वैध बनाने का मामला अब भी अनसुलझा है.
क्या आप जानते हैं?
दिल्ली हाइकोर्ट ने 2009 में वयस्कों के बीच सहमति से समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था. लेकिन 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को पलट दिया और फिर इस मामले पर संसद से कानून बनाने की सिफारिश की.
इंडिया टुडे के पन्नों से

अंक: 26 सितंबर 2018
आवरण कथा: आखिरकार आज़ाद
● शहरों में रोजमर्रा की चीजें बदली हैं. जैसे साझा बैंक खाता खोलना, बीमा कराना, होम लोन लेना, आपात चिकित्सा स्थिति में रिश्तेदार के तौर पर हस्ताक्षर करना, घर का किराया बिना डर के चुकाना संभव हो पाया है

अंक: 1 जनवरी, 2014
आवरण कथा: मैं मुजरिम नहीं
●एक पीढ़ी पहले के लोगों के लिए समलैंगिक होने का मतलब कोई भी फैसला सोच-समझकर करना है. करणी के पार्टनर और केरल के कैथोलिक समुदाय के जोसफ ने परिवार से अलग होकर वित्तीय स्वतंत्रता हासिल की. ''मेरे पादरी ने सुझाया कि पोर्न का सहारा लूं, तो मुझे पता था कि एक विकल्प चुनना होगा. आखिर मैंने धर्म छोड़ दिया.''
—गायत्री जयरामन
गुलाबी क्रांति
> समलैंगिकों को आखिरकार बिना किसी डर के अपनी यौन प्राथमिकताओं के बारे में खुलकर बोलने की आजादी मिली
> पहले कई समलैंगिकों के लिए स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, पुलिस सेवाओं तक पहुंच बेहद मुश्किल थी. लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है
> फैसले ने निजता के अधिकार, संवैधानिक नैतिकता और परिवर्तनकारी संवैधानिकता जैसी नई अवधारणाओं को जन्म दिया
> अपराध के दायरे से बाहर होने से मिली आजादी ने कई लोगों को खुलकर सामने आने और आत्मविश्वास के साथ अपनी प्राथमिकताएं जाहिर करने में मदद की
''मैं जो हूं, जैसा हूं, मुझे उसी रूप में कुबूल कीजिए. कोई भी जो है, उससे बच नहीं सकता...कोई भी अपनी निजता से बच नहीं सकता. समाज निजता को स्वीकार करने के लिहाज से बेहतर हुआ है.''
—पूर्व प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्र, समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर निकालने का फैसला देने वाली पांच जजों की पीठ के सदस्य (2018)