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चिपको आंदोलन : पेड़ बचाने की एक सीधी-सादी सी पहल कैसे पर्यावरण संरक्षण का दूसरा नाम बन गई!

पेड़ों को गले लगाने की सीधी-सादी सामूहिक पहल ने हिमालय के बचे हुए जंगलों की रक्षा की. भारत और दुनिया के दूसरे देशों के नीति निर्माताओं तथा पर्यावरण अभियानों के लिए यह प्रकाश स्तंभ का काम कर रहा

उत्तराखंड के चमोली जिले में पेड़ को गले लगातीं कार्यकर्ता, 1982
उत्तराखंड के चमोली जिले में पेड़ को गले लगातीं कार्यकर्ता, 1982
अपडेटेड 13 जनवरी , 2025

पर्यावरण के मामले में भारत के सबसे अहम आंदोलनों में से एक चिपको आंदोलन 1970 के दशक के शुरुआती सालों में उत्तराखंड के गढ़वाल इलाके की चमोली तहसील के गांवों में हुआ था. इसकी अगुआई महिलाओं ने की. वे तेजी से काटे जा रहे जंगलों के खिलाफ लड़ रही थीं, जिसकी वजह से बाढ़, मिट्टी के कटाव, भूस्खलनों और जल स्रोतों के छीजने से उनकी आजीविका पर असर पड़ रहा था.

लेकिन इसके पीछे मार्गदर्शक शख्सियत गांधीवादी पारिस्थितिकीविद् चंडीप्रसाद भट्ट और उनका दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल था. (तब उत्तर प्रदेश) सरकार ने करीब 2,500 पेड़ खेल का सामान बनाने वाली एक कंपनी को व्यावसायिक कटाई के लिए नीलाम कर दिए थे. मार्च 1974 में जब लकड़हारे रेनी गांव के नजदीक पहुंचे तो गौरा देवी और अन्य महिलाएं कटाई के लिए तय पेड़ों को गले लगाकर खड़ी हो गईं और लकड़हारों से कहा कि उनकी कुल्हाड़ी को पहले उनसे गुजरना पड़ेगा.

इससे पहले 1973 में नजदीकी मंडल गांव की महिलाओं ने भी इसी तरह लकड़हारों का मुकाबला किया था और कई दिनों तक उनके आगे डटी रही थीं. उनके प्रतिरोध की कहानियां दूर-दूर तक फैल गईं और दूसरे गांववाले इस आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित हुए.

चिपको आंदोलन की परिणति 1980 के वन संरक्षण अधिनियम में हुई

पेड़ों को गले लगाने के इस हैरतअंगेज रूप से सीधे-सादे और मर्मस्पर्शी काम को जमीन और आजीविका बचाने की खातिर शक्तिशाली अहिंसक सांस्कृतिक प्रतिक्रिया के रूप में देखा गया. सामाजिक-आर्थिक आंदोलन के रूप में चिपको दशकों तक भारत और उसके बाहर खनन, पनबिजली परियोजनाओं, औद्योगिकीकरण और शहरीकरण के खिलाफ अपने पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए कार्यकर्ताओं को प्रेरित करता रहा.

1980 और 1983 के बीच गांधीवादी कार्यकर्ता सुंदरलाल बहुगुणा ने चिपको आंदोलन के फलसफे का प्रचार-प्रसार करते हुए हिमालय की तराइयों में 5,000 किमी की पैदल यात्रा की. माना जाता है कि चिपको आंदोलन ने अपने पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए दुनिया भर के कार्यकर्ताओं को प्रेरित किया.

चिपको आंदोलन का तत्काल असर यह हुआ कि 1980 में पहाड़ों में लकड़ी काटने के ठेके वापस ले लिए गए और हिमालय के वन क्षेत्रों में पेड़ों की व्यावसायिक कटाई पर प्रतिबंध लगा दिया गया, लेकिन इस आंदोलन ने नीति निर्माताओं को यह एहसास भी करवाया कि पर्यावरण पर स्थानीय समुदायों का हक है. चिपको की भावना और लोकाचार वनों और वन्यजीवों के प्रबंधन से जुड़े नीति निर्माण में भी झलकता है.

पर्यावरण प्रभाव आकलन के लिए जो दिशानिर्देश तय किए गए और जिनमें किसी भी प्रकार के खनन या बुनियादी ढांचे के विकास की परियोजनाओं को लेकर स्थानीय समुदाय अपने सरोकारों की आवाज उठाने लिए हिस्सा लेते हैं, उनकी उत्पत्ति चिपको से हुई, वैसे ही जैसे जमीन और वन संसाधनों पर वनवासियों को मालिकाना हक देने वाले वन अधिकार अधिनियम 2006 की हुई.

प्रभावशाली आंदोलन

● चिपको आंदोलन की परिणति 1980 के वन संरक्षण अधिनियम में हुई
● इसने नीति निर्माताओं को एहसास करवाया कि प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय समुदाय का हक है और इसलिए उन्हें प्रकृति के रखवालों की तरह देखा जाना चाहिए
● आंदोलन ने अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण में महिलाओं की अहमियत पर जोर दिया

इंडिया टुडे के पन्नों से  

आंदोलन: दोधारी तलवार


अंक (अंग्रेजी): 15 मार्च, 1982 
आंदोलन: दोधारी तलवार
चमोली में महिलाएं ही चिपको आंदोलन की मुख्य ताकत हैं. जलाऊ लकड़ी बीनने का बोझ उन्हीं के कंधों पर है. मेहनत और उम्र की लकीरों से भरे चेहरे वाली 55 वर्षीया पार्वती देवी ने कहा, "जलावन बीनते-बीनते मेरा कम से कम पूरा दिन निकल जाता है. हमें 'अपने पेड़ों’ को बचाना ही चाहिए."
—राज चेंगप्पा

"हमारा आंदोलन भूमि के कटाव से परे मानवीय मूल्यों के ह्रास तक जाता है. अगर पर्यावरण के साथ हमारे रिश्ते ठीक नहीं हैं तो पर्यावरण तबाह हो जाएगा और हम अपनी जमीन गंवा बैठेंगे."
—चंडीप्रसाद भट्ट, संस्थापक, दशोली ग्राम स्वराज्य संघ

क्या आप जानते हैं?

चिपको आंदोलन के कार्यकर्ता 1730 की उस घटना से प्रेरित थे जिसमें जोधपुर के महाराज के लोगों ने खेजरली गांव में पेड़ों को गले लगाकर उन्हें काटने का विरोध कर रहे 363 बिश्नोई लोगों को मार डाला था.

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