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विदेशी फर्मों पर निर्भर रहने वाला भारत कैसे बना दुनिया भर में दवा का सप्लायर?

भारत का दवा उद्योग जो कभी विदेशी फर्मों पर निर्भर था, आज उसका वैश्विक दबदबा है. जेनेरिक, बायोफार्मा में सफलताओं और नवाचार के बल पर उसने भारत की हैसियत विश्व की फार्मेसी के रूप में मजबूत की

वाइ.के. हमीद
वाइ.के. हमीद
अपडेटेड 7 जनवरी , 2025

भारतीय फार्मास्युटिकल उद्योग के उत्थान की कहानी ने दुनिया का उतना ध्यान नहीं खींचा होगा जितना भारत की आइटी और आउटसोर्सिंग में सफलताओं ने खींचा. पर यह भी उतनी ही आकर्षक है. जिस उद्योग पर 1947 में आजादी के वक्त विदेशी फार्मास्युटिकल कंपनियों का प्रभुत्व था, आज भारतीय दवा निर्माता इतने मजबूत हो गए हैं कि उनका घरेलू बाजार में दबदबा है और ज्यादा कीमती अमेरिकी और यूरोपीय बाजारों में भी उनकी बड़ी मौजूदगी है.

विदेशी दवा फर्मों ने पेटेंट कानूनों का इस्तेमाल करते हुए अपनी मिल्कियत वाली दवाओं को कॉपी करने से बचाया लेकिन पेटेंट अधिनियम 1970 पारित होने के साथ ही वे भारत में अपनी दवाओं का पेटेंट बरकरार नहीं रख सकती थीं. सिर्फ प्रक्रिया पेटेंटों—एक्टिव फार्मा इनग्रेडिएंट का इस्तेमाल करते हुए दवा बनाने की प्रक्रिया—की अनुमति दी गई और यह एक बड़ा निर्णायक मोड़ साबित हुआ.

इससे घरेलू फर्में वही उत्पाद बनाने में सक्षम हो गईं जो बहुराष्ट्रीय कंपनियां बनाती थीं लेकिन यह काम रिवर्स इंजीनियरिंग प्रक्रिया के जरिए किया गया. इसका मतलब था कि इस तरह बनाई गई दवाइयां अपने ब्रांडेड समकक्षों की दवाओं के पेटेंट का उल्लंघन नहीं करें, लेकिन उनमें वही इनग्रेडिएंट थे जो उन्हें कारगर बनाते थे. 

’80 और ’90 के दशक ने भारतीय फार्मा उद्योग को वैश्विक दिग्गज के रूप में विकसित होते देखा. सिप्ला, डॉ. रेड्डीज लैबोरेट्रीज, रैनबेक्सी लैबोरेट्रीज और सन फार्मा जैसी कंपनियों ने जेनेरिक दवा क्रांति की अगुआई की, विदेशी बाजारों की खोज करते हुए बहुराष्ट्रीय कंपनियों (एमएनसी) की उन ब्रांडेड दवाओं को चुनौती दी जिनका अमेरिकी बाजार में पेटेंट खत्म हो रहा था. सफलतापूर्वक चुनौती देने वाली इन दवाओं को 'जेनेरिक दवा’ का नाम दिया गया.

इनकी कीमत ब्रांड की दवा की तुलना में मामूली थी और अब अमेरिका में सभी दवा पर्चों का 80 फीसद से ज्यादा हिस्सा इन्हीं का होता है. भारत में जेनेरिक की ऐसी दवाएं तैयार हुई हैं जिन्होंने औषधि जगत में सनसनी पैदा कर दी. जैसे, सिप्ला ने 2001 में एड्स-रोधी दुनिया की पहली 3 इन 1 फिक्स्ड डोज कॉम्बिनेशन दवा विकसित की और पश्चिमी देशों की लागत से बहुत कम पर विकासशील देशों को इस दवा मिश्रण की आपूर्ति की पेशकश की. इससे एड्स के इलाज में बड़ी क्रांति आ गई. 

धीरे-धीरे, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मूल नवाचार से निकली दवा के विकास और भारत में उनके जेनेरिक विकल्पों के बीच समय का अंतर कम होता गया. 1 जनवरी, 1995 को भारत ट्रेड रिलेटेड एस्पेक्ट्स ऑफ इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स (ट्रिप्स) यानी बौद्धिक संपदा अधिकार के व्यापार से संबंधित पहलुओं से जुड़े समझौते में शामिल हो गया. इसके तहत भारत के लिए प्रोडक्ट के पेटेंट को मान्यता देना जरूरी था. घरेलू फर्मों ने इसे अनुसंधान और विकास बढ़ाने और अपनी इनोवेटिव दवा की तलाश के अवसर के रूप में लिया. यह प्रक्रिया आज भी जारी है.

बायोटेक क्षेत्र में बायोकॉन ने भारत को बायोफार्मास्युटिकल के वैश्विक नक्शे पर पहुंचाया है. उसने 2004 में पहला बायोसिमिलर (ऐसा बायोटेक उत्पाद जो पहले से ही मंजूर दूसरे उत्पाद जैसा है) रिकॉम्बिनेंट मानव इन्सुलिन विकसित किया है. सिर और गले के कैंसर के उपचार के लिए यह भारत का पहला स्वदेशी रूप से उत्पादित नोवल मोनोक्लोनल ऐंटीबॉडी (मानव निर्मित प्रोटीन) है.

सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका के साथ 2021 में कोविड-रोधी टीका कोविशील्ड बनाकर भारत का नाम ऊंचा किया. 2008 में जन औषधि कार्यक्रम के रूप में सरकार ने भारत में गरीब लोगों को सस्ती, बिना ब्रांड वाली क्वालिटी दवाइयां उपलब्ध कराने की पहल शुरू की. इसे सरकार समर्थित फार्मेसियों के जरिए शुरू किया गया जिससे भारत में जेनेरिक दवाइयों का उपयोग और बढ़ा है.

दुनिया पर दबदबा

● भारत दुनिया के सबसे बड़े दवा बाजार अमेरिका में बेची जाने वाली जेनेरिक दवाओं की करीब 40% आपूर्ति करता है. ब्रिटेन में आपूर्ति की जाने वाली जेनेरिक दवा में इसका एक-चौथाई हिस्सा है
● भारत यूएसएफडीए-अनुपालन वाली फार्मा मैन्युफैक्चरिंग इकाइयों के साथ विश्व में अग्रणी है. उसकी इकाइयों की संख्या 2023 में 670 थी
● भारत में एक्टिव फार्मास्यूटिकल इनग्रेडिएंट (एपीआइ) के 500 उत्पादक हैं जिनका वैश्विक एपीआइ बाजार में करीब 8% का योगदान है
● भारत की 70% तक की दवा मांग घरेलू कंपनियां पूरी करती हैं 
● भारत टीकों की वैश्विक मांग की 50% से अधिक की आपूर्ति करता है 
● एड्स पर नियंत्रण के लिए दुनिया भर में इस्तेमाल ऐंटीरेट्रोवायरल दवाओं का 80% भारतीय कंपनियां मुहैया कराती हैं

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