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माधवराव सिंधिया की कोशिशों से पहली बार 160 किमी/घंटे की रफ्तार से दौड़ी ट्रेन; भारत में आई शताब्दी एक्सप्रेस की कहानी

देश की आजादी के करीब 40 साल बाद 1988 में शुरू की गई शताब्दी एक्सप्रेस ने रफ्तार और आराम दोनों के मेल के साथ भारतीय रेल यात्रा को नई परिभाषा दी. इसी ने फिर वंदे भारत एक्सप्रेस जैसे आधुनिक नवाचारों की नींव रखी

रफ्तार की दरकार एक शताब्दी एक्सप्रेस; बतौर रेल मंत्री माधवराव सिंधिया (इनसेट) ने 1980 के दशक में इस तरह की ट्रेन की परिकल्पना की थी
अपडेटेड 8 जनवरी , 2025

अधिकतर भारतीय 10 जुलाई, 1988 से पहले बिजनेस क्लास ट्रेन यात्रा के विचार से नावाकिफ थे. ट्रेन का सफर काफी हद तक किसी जरूरत के तहत किया जाता था, और लंबी दूरी की प्रीमियम यात्रा पर राजधानी एक्सप्रेस का प्रभुत्व हुआ करता था. राजधानी एक्सप्रेस को उससे भी लगभग दो दशक पहले शुरू किया गया था और जो तब राष्ट्रीय राजधानी को कलकत्ता और बंबई से जोड़ती थी.

बाकी सभी ट्रेनें इनके निकलने लिए रास्ता बनाती थीं, जिससे भारतीय रेलवे की सिरमौर के रूप में इसका दर्जा बुलंद हो गया. फिर शताब्दी एक्सप्रेस आई, जिसने ढर्रे को तोड़कर रेल यात्रा को नए सिरे से परिभाषित किया. न्यूनतम स्टॉप के साथ एक बिंदु से दूसरे बिंदु तक सफर कराने वाली शताब्दी ने 150 किमी प्रति घंटे की शीर्ष गति हासिल की और यह भारत की सबसे तेज ट्रेन बन गई.

इसमें हवाई यात्रा के मॉडल पर आधारित आलीशान रिक्लाइनिंग सीटें और चलती ट्रेन में भोजन परोसा जाता था. जाहिर है, सभी सेवाएं टिकट की कीमत में शामिल थीं. शताब्दी भविष्य की एक झलक थी, जिसमें रफ्तार, आराम और दक्षता को तरजीह दी गई. राजीव गांधी के दौर में शुरू की गई शताब्दी का नाम उनके नाना और भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की जन्म शताब्दी के उपलक्ष्य में रखा गया था, जो अगले साल होने वाली थी.

यह दिल्ली और झांसी के बीच आगरा, ग्वालियर होते हुए तत्कालीन रेल मंत्री और पूर्व राजघराने के मुखिया माधवराव सिंधिया के गृह क्षेत्र के रास्ते चलती थी. सिंधिया ने ही इसके विचार को आगे बढ़ाया था. उन्होंने जापान और फ्रांस की अपनी यात्राओं के दौरान हाइ-स्पीड रेल सिस्टम से प्रेरणा ली.

केंद्रीय मंत्री और माधवराव के बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया, जो उस यात्रा पर अपने पिता के साथ थे, याद करते हैं, ''हमने जापान में शिंकानसेन (बुलेट ट्रेन) देखी. उन्होंने तेज रफ्तार वाली ट्रेनों के विचार का अध्ययन किया जो कम ठहराव के साथ एक स्थान से दूसरे स्थान तक यात्रा करेंगी, ताकि लोग कम समय में अपने गंतव्य तक पहुंच सकें.''

फ्रांस में माधवराव ने टी.जी.वी. देखी, जिसका संचालन 1981 में ही शुरू हुआ था. ज्योतिरादित्य बताते हैं, ''उन्होंने देखा कि कैसे प्लेट और कटलरी के बिना, सिल्वर-फॉइल कैसरोल में खाना परोसा जाता था. शताब्दी भारत की पहली ट्रेन थी जिसमें इस तरह खाना परोसना शुरू हुआ...एक तरह से, यह अपने समय की देसी बुलेट ट्रेन थी.''

नब्बे के दशक के उदारीकरण के बाद के दौर में शताब्दी तेजी से देश के उभरते मध्यम वर्ग की पसंदीदा बन गई. यह तेज इंटरसिटी कनेक्शन की मांग करने वाले व्यापारिक और शहरी यात्रियों की जरूरतों को पूरा करती थी. वक्त के साथ नेटवर्क का विस्तार हुआ, कई मार्गों को जोड़ा गया और भारतीय रेलवे के लिए एक बेंचमार्क स्थापित किया गया.

तेजस एक्सप्रेस और अनुभूति कोच जैसी ट्रेनों के जरिए इसकी सफलता को दोहराने की कोशिश नाकाम रही. फिर भी शताब्दी की विरासत ने वंदे भारत एक्सप्रेस के लिए मार्ग प्रशस्त किया, जिसकी पहली ट्रेन को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 फरवरी, 2019 को दिल्ली और वाराणसी के बीच हरी झंडी दिखाई थी. एक तकनीकी छलांग करार दी गई वंदे भारत देश की पहली स्वदेश निर्मित ट्रेन है, जो 180 किमी प्रति घंटे की रफ्तार पकड़ने में सक्षम है. दुनियाभर की हाइ-स्पीड रेल प्रणालियों से प्रेरित यह ट्रेन भविष्य की ओर एक साहसिक कदम का प्रतिनिधित्व करती है.

इस बीच, केवल 22 शताब्दी ट्रेनें सेवा में रह गई हैं. वंदे भारत के उदय ने उन्हें फीका कर दिया है. देश में 54 वंदे भारत चल रही हैं. अगली योजना बुलेट ट्रेन चलाने की है. हालांकि अभी तक कोई भी इसे स्वीकार नहीं कर रहा, लेकिन वह दिन दूर नहीं जब देश में ट्रेन के सफर को हमेशा के लिए बदल देने वाली शताब्दी एक्सप्रेस की सेवा आखिरकार समाप्त हो सकती है.

क्या आप जानते हैं?
● तत्कालीन रेल मंत्री माधवराव सिंधिया ने शताब्दी में भोजन कैरी करने के लिए एक ट्रॉली डिजाइन करने का काम आइआइटी दिल्ली को सौंपा, जो विमान में इस्तेमाल की जाने वाली ट्रॉली के समान थी. इसे न केवल गलियारे में फिट होना था, बल्कि कोच के अंत में सुविधाजनक रूप से मुड़ना भी था...बाकी सब तो अब इतिहास का हिस्सा है

इंडिया टुडे के पन्नों से

15, जुलाई, 1988
शताब्दी एक्सप्रेस: फास्ट ट्रैक पर
मौजूदा 3,900 एचपी इंजन के ढांचे को फिर से डिजाइन किया गया;  शॉप एब्सॉर्प्शन के लिए रबर से बने कंपोनेंट लगाए गए और ब्रेकिंग सिस्टम भी उन्नत किए गए- इस सबसे तेज ट्रेन 160 किमी/घंटे की रक्रतार से दौड़ने में सक्षम हुई. लेकिन इसमें एक और डिवाइस लगाया गया जो 145 केएमपीएच से ऊपर जाने पर ऑटेमेटिक तरीके से ब्रेक लगाता है

परिवर्तन के पहिए

> शताब्दी देश के मध्यम वर्ग के लिए आधुनिकीकरण का प्रतीक बन गई. 1990 के दशक के उदारीकरण के बाद के युग में लोग एक शहर से दूसरे शहर की व्यावसायिक यात्रा के लिए अधिक विकल्प चाहते थे

> इसने भारतीय यात्रियों के लिए रेल अनुभव को बदल दिया—वे अब रक्रतार, दक्षता और प्रीमियम ऑनबोर्ड सेवाओं का आनंद लेते हैं

> इसने जापान के शिंकानसेन और फ्रांस की टीजीवी से प्रेरित होकर भारत को जोड़ने के लिए एक तेज और अधिक कुशल साधन वंदे भारत एक्सप्रेस के आगमन से पहले भारत की हाइ-स्पीड रेल की नींव रखी

> देश में ही निर्मित वंदे भारत ट्रेनसेट में डिस्ट्रीब्यूटेड पावर और 180 किमी प्रति घंटे तक की रफ्तार है. इसके साथ ही भारत ट्रेनसेट निर्माताओं के कुलीन समूह में शामिल हो गया है और अब बुलेट ट्रेन बनाने का लक्ष्य है

''तेज रफ्तार से लेकर गर्म कैसरोल भोजन तक, शताब्दी ने भारत में इंटरसिटी रेल यात्रा में क्रांति ला दी. एक और ट्रेन वंदे भारत को शुरू करने में हमें 30 साल लग गए, जिसे एक बेहतर और सुरक्षित विकल्प के रूप में विकसित किया गया है.''
मोहम्मद जमशेद, पूर्व सदस्य ट्रैफिक, रेलवे बोर्ड, जो 1988 में शताब्दी के उद्घाटन समारोह में मौजूद थे

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