वरिष्ठ रक्षा वैज्ञानिकों का एक समूह के. विजयराघवन की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय समिति की सिफारिशों के आधार पर रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) की सूरत बदलने के प्रयासों से नाखुश है. इस तथ्य में कोई दोराय नहीं है कि देश में रक्षा अनुसंधान से जुड़ा प्रमुख संगठन कुछ व्यवस्थागत खामियों से घिरा है, जिसका नतीजा परियोजनाओं में अत्यधिक देरी और लागत बेतहाशा बढ़ने के तौर पर सामने आता है.
हालांकि, अग्नि तथा प्रलय मिसाइलें, हल्का लड़ाकू विमान (एलसीए) तेजस और अर्जुन टैंक के विकास जैसी महत्वपूर्ण सफलताएं हमारे सामने हैं, लेकिन विलंबित परियोजनाओं की भी सूची अच्छी-खासी लंबी है, जिसमें एलसीए मार्क-2 और एलसीए नेवी एयरक्राफ्ट, एयरो इंजन कावेरी और तापस बीएच-201 ड्रोन प्रमुख हैं.
फरवरी 2023 में रक्षा मंत्रालय ने संसद में जानकारी दी कि 'मिशन मोड प्रोजेक्ट’ में शुमार उच्च प्राथमिकता वाली 55 परियोजनाओं में से 23 निर्धारित समय से पीछे चल रही हैं. ऐसा माना जा रहा कि करीब 50 प्रयोगशालाओं और 30,000 से ज्यादा कर्मचारी क्षमता वाले इस संगठन ने रक्षा अनुसंधान पर ध्यान केंद्रित करना बंद कर दिया है, और खुद को अन्य क्षेत्रों तक विस्तारित कर बहुत सारी परियोजनाएं अपने हाथ में ले ली हैं.
सरकार चाहती है कि डीआरडीओ में सुधारों को लागू करके रक्षा उत्पादन को बढ़ावा दिया जाए और आत्मनिर्भर भारत जैसी पहल के जरिये आयात पर देश की अत्यधिक निर्भरता घटाई जाए. सरकार रक्षा निर्यात के मोर्चे पर भी बड़ा बदलाव चाहती है जिसे 2025 तक 35,000 करोड़ रुपए पर पहुंचाने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा गया है.
पूर्व में ए.पी.जे. अब्दुल कलाम समिति (1992), पी. रामाराव समिति (2008) और वी. रामगोपाल राव समिति (2020) जैसी कई उच्चस्तरीय समितियां भी डीआरडीओ को अधिक जवाबदेह और पेशेवर बनाने के उपाय सुझाकर स्थितियां सुधारने के प्रयास कर चुकी हैं.
इसी क्रम में अगस्त 2023 में नरेंद्र मोदी सरकार की ओर से गठित पूर्व प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार विजयराघवन की अध्यक्षता वाली उच्चस्तरीय समिति को भविष्य की प्रौद्योगिकी के अनुसंधान एवं विकास पर ध्यान केंद्रित करने और स्वदेशी रक्षा उत्पादन को गति देने के लिए अकादमिक/स्टार्ट-अप और निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने के उपाय सुझाने का जिम्मा सौंपा गया.
विजयराघवन समिति ने अपनी रिपोर्ट 'रिडिफाइनिंग डिफेंस रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट’ रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को सौंपी. समिति ने संरचनात्मक स्तर पर जिन बदलावों की सिफारिश की है, उनमें कुछ ने डीआरडीओ के वरिष्ठ वैज्ञानिकों के एक समूह को नाराज कर दिया.
वैज्ञानिकों ने राजनाथ सिंह को भेजे जवाब में असहमति जताते हुए कुछ अनुशंसित कदमों की व्यवहार्यता पर संदेह जताया है. यही नहीं, शीर्ष रक्षा वैज्ञानिकों के एक समूह ने तो रिपोर्ट पर अपनी बात रखने के लिए कथित तौर पर प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) तक से समय मांगा है, ताकि वह एकदम शीर्ष स्तर पर यह मुद्दा उठा सके.
रिपोर्ट पर वैसे तो कोई रार नहीं है, जिसका व्यापक उद्देश्य संगठन की खामियां दूर करना और अत्याधुनिक परियोजनाओं में तेजी के साथ इसे एक कुशल और चुस्त-दुरुस्त अनुसंधान एवं विकास संगठन बनाना है. आपत्ति इन उद्देश्यों को हासिल करने के लिए अपनाए जाने वाले प्रस्तावित तरीकों को लेकर जरूर है. समिति ने जो सुझाव दिए हैं, उनमें दक्षता बढ़ाने के लिए विभिन्न डीआरडीओ प्रयोगशालाओं के विलय को डीआरडीओ वैज्ञानिकों ने अपनी मंजूरी दे दी है. लेकिन कुछ अन्य सुझावों का रक्षा वैज्ञानिक बिरादरी विरोध कर रही है.
विवाद के मुद्दे
डीआरडीओ को पीएमओ के दायरे में लाने का सुझाव विवाद के प्रमुख मुद्दों में शामिल है. फिर, समिति का मानना है कि डीआरडीओ रक्षा परियोजनाओं को लंबे समय तक खींचता है जिससे इनमें देरी के अलावा संसाधनों की काफी बर्बादी होती है. इसलिए उसका मानना है कि डीआरडीओ के टेक्नोलॉजीज के विकास में सशस्त्र बलों के दखल को बढ़ाया जाए.
भर्ती को लेकर भी समिति के सुझाए तरीकों पर मतभेद सामने आए हैं. समिति सीधी भर्ती की मौजूदा व्यवस्था के बजाए कैंपस साक्षात्कार के जरिये भर्ती के पक्ष में है. लेकिन जिस मुद्दे पर वैज्ञानिक सबसे ज्यादा नाखुश हैं, वह यह कि रिपोर्ट में निजी रक्षा क्षेत्र की भूमिका को बहुत ज्यादा बढ़ाने पर खास जोर दिया गया है.
रिपोर्ट के गोपनीय श्रेणी की होने के मद्देनजर रक्षा मंत्रालय ने वैज्ञानिकों का पत्र मिलने के बाद इस पर सार्वजनिक तौर पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. माना जा रहा है कि मंत्रालय सभी हितधारकों के साथ बात करेगा, सभी मुद्दों के समाधान का प्रयास करेगा और फिर उन्हें पीएमओ के समक्ष रखेगा.
एक बार पीएमओ से समिति की सिफारिशें मंजूर होने के बाद रक्षा मंत्रालय और डीआरडीओ के पास उन पर अमल शुरू करने के लिए 90 दिन की समयसीमा होगी. नई दिल्ली स्थित डीआरडीओ मुख्यालय के गलियारों में फिलहाल यही सुगबुगाहट चल रही है कि निश्चित समयसीमा में बदलावों को लागू करना कैसे मुमकिन होगा. कई वैज्ञानिकों का मानना है कि 66 साल पुराने संस्थान को महीनों में बदलकर रख देना आसान काम नहीं होगा.
समिति में विजयराघवन के अलावा पूर्व सेना उपप्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) सुब्रत साहा, पूर्व नौसेना उपप्रमुख वाइस एडमिरल एस.एन. घोरमाडे, पूर्व चीफ ऑफ इंटीग्रेटेड स्टाफ एयर मार्शल बी.आर. कृष्णा, मनोहर पर्रीकर इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज ऐंड एनालिसिस के महानिदेशक सुजान आर. चिनॉय, आइआइटी कानपुर में प्रोफेसर मणींद्र अग्रवाल, सोसाइटी ऑफ इंडियन डिफेंस मैन्युफैक्चरर्स के अध्यक्ष एस.पी. शुक्ला, लार्सन ऐंड टुब्रो डिफेंस के जे.डी. पाटिल, इसरो के जाने-माने वैज्ञानिक एस. उन्नीकृष्णन नायर और रक्षा मंत्रालय में वित्तीय सलाहकार रसिका चौबे शामिल हैं.
डीआरडीओ के पूर्व वैज्ञानिक रवि गुप्ता समिति के सुझावों पर संशय जताते हैं. उन्होंने इंडिया टुडे से कहा, "डीआरडीओ के पुनर्गठन पर सुझाव देने के लिए समितियों का नेतृत्व ऐसे बाहरी लोगों ने किया, जिन्हें रक्षा अनुसंधान और डीआरडीओ के कामकाज के बारे में कोई जानकारी नहीं है. समितियों ने नतीजों का ठीक से अनुमान लगाए बिना ही सुझाव दे डाले. किसी संगठन को बनाने में दशकों लगते हैं लेकिन उसे नष्ट करने में देर नहीं लगती." बजट अनुमान 2023-24 में डीआरडीओ का बजट 23,264 करोड़ रुपए है, और करीब 900 परियोजनाएं विकास के विभिन्न चरणों में हैं.
समिति के सुझाव
विजयराघवन समिति ने विशिष्ट रक्षा प्रौद्योगिकियों के लिए उपयुक्त खिलाड़ी तलाशने में रक्षा प्रौद्योगिकी परिषद (डीटीसी) की प्रभावी भूमिका की वकालत की, जिसके अध्यक्ष खुद प्रधानमंत्री हों और सदस्यों में रक्षा मंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शामिल हों. डीटीसी के नजरिये में विविधता लाने के लिए इसमें शिक्षा और उद्योग जगत के दो-दो सदस्य शामिल करने का भी प्रस्ताव है.
यह एक तरह से अहम रणनीतिक परियोजनाओं में सीधी भागीदारी के जरिये रक्षा अनुसंधान में पीएमओ के दखल का प्रतीक है. इसका एक मतलब यह है कि डीआरडीओ सीधे तौर पर पीएमओ की निगरानी में होगा. समिति ने शैक्षणिक और स्टार्ट-अप पारिस्थितिकी तंत्र में रक्षा अनुसंधान एवं विकास को बढ़ावा देने के लिए रक्षा मंत्रालय के तहत एक अलग विभाग—रक्षा विज्ञान, प्रौद्योगिकी और नवाचार विभाग (डीडीएसटीआई)—बनाने का भी सुझाव दिया है.
यह डीटीसी सचिवालय के तौर पर काम करेगा. इसके अलावा, डीटीसी के तहत एक उच्चाधिकार समिति की सिफारिश की गई है, जिसकी सह-अध्यक्षता चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) और पीएम के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार करेंगे. समिति ने रक्षा मंत्रालय में सचिव, अनुसंधान और विकास का पद भी अलग करने का सुझाव दिया है. अभी डीआरडीओ के अध्यक्ष ही इस पद की जिम्मेदारी संभालते हैं. इसलिए, ये संरचनात्मक बदलाव डीआरडीओ की व्यापक रणनीतिक स्वायत्तता को खत्म होने का संकेत देते हैं.
डीआरडीओ की भूमिका अनुसंधान और विकास तक सीमित होगी, और मौजूदा स्थिति के विपरीत वह प्रोटोटाइप या प्रौद्योगिकी प्रदर्शकों को विकसित नहीं कर सकेगा. रक्षा उत्पादन और आगे उसके विकास का जिम्मा चयनित निजी उद्योग और/या सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को सौंपा जाना है. समिति चाहती है कि डीआरडीओ की 41 प्रयोगशालाओं का पुनर्गठन कर इन्हें 10 राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं में तब्दील कर दिया जाए—बेंगलूरू और हैदराबाद में दो-दो और बाकी दिल्ली, पुणे, देहरादून, चेन्नै, विशाखापत्तनम और चंडीगढ़ में.
रक्षा वैज्ञानिकों को सबसे ज्यादा आपत्ति निजी रक्षा उद्योग, स्टार्ट-अप और शैक्षणिक संस्थानों की भागीदारी को खास अहमियत दिए जाने पर है. समिति ने 10 राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं के अलावा पांच राष्ट्रीय परीक्षण केंद्रों की स्थापना का प्रस्ताव रखा है, जहां निजी क्षेत्र अपनी नव विकसित हथियार प्रणालियों का परीक्षण कर सकें. इस तरह सरकारी संपत्तियों के इस्तेमाल का लाइसेंस मिलने से निजी उद्योग को भूमि, मशीनरी अथवा अन्य सहायक बुनियादी ढांचे में निवेश की जरूरत नहीं पड़ेगी. समिति की रिपोर्ट में शीर्ष शैक्षणिक संस्थानों में रक्षा तकनीक केंद्रों के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर रक्षा प्रौद्योगिकी रोडमैप स्थापित करने की भी सलाह दी गई है.
अंतरिम बजट में केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने ऐलान किया कि निजी रक्षा क्षेत्र में अनुसंधान एवं विकास को बढ़ावा देने के लिए एक बड़ा कोष स्थापित करने की योजना है. इसका उद्देश्य रक्षा क्षेत्र में 'डीप टेक’ यानी कृत्रिम बुद्धिमत्ता, मशीन लर्निंग और रोबोटिक्स जैसी उन्नत प्रौद्योगिकियों के प्रयोग को बढ़ावा देना है.
इसके तहत दीर्घकालिक ब्याज-मुक्त वित्तपोषण के लिए एक लाख करोड़ रुपए का एक बड़ा कोष बनाया जाना है. इसके पीछे उद्देश्य यह है कि स्टार्ट-अप और निजी उद्योग को परीक्षण केंद्रों और सत्यापन सुविधाओं के इस्तेमाल के लिए प्रोत्साहित किया जाए, उन्हें सेना का मार्गदर्शन मिल पाए और हथियार प्रणालियों के विकास के लिए ऋण मिलना सुनिश्चित हो सके.
अभी तक रक्षा अनुसंधान निधि में डीआरडीओ वैज्ञानिकों की पूरी हिस्सेदारी रहती थी, इसलिए यह समझा जा सकता है कि डीआरडीओ वैज्ञानिक इससे नाखुश क्यों हैं. डीआरडीओ के एक शीर्ष वैज्ञानिक का कहना है, "समिति ने अनुसंधान एवं विकास की बारीकियों पर ध्यान दिए बिना बस मनमाने ढंग से सिफारिश कर दी है. डीआरडीओ ने एक विशेष प्रणाली विकसित करने में वर्षों समय लगाया है और आप इसे रातोरात किसी निजी कंपनी को नहीं सौंप सकते."
समिति ने दूसरा बड़ा बदलाव डीआरडीओ की भर्ती रणनीति को लेकर सुझाया है. सीधी भर्ती की नीति के बजाए, समिति चाहती है कि डीआरडीओ कॉलेजों-विश्वविद्यालयों से कैंपस भर्ती की सक्रिय रणनीति अपनाए, ताकि नई और होनहार प्रतिभाओं को आकृष्ट करके निजी क्षेत्र से प्रतिस्पर्धा की जा सके. समिति का मानना है कि अभी अमूमन निजी क्षेत्र में अच्छी नौकरियां पाने में नाकाम लोग ही अंतिम उपाय के तौर पर डीआरडीओ में आने का विकल्प चुनते हैं.
ज्यादा जवाबदेही
विजयराघवन समिति का कहना है कि डीआरडीओ परियोजनाओं में करीब 60 फीसद देरी आवश्यक प्रौद्योगिकी उपलब्ध न होने जैसे आंतरिक मुद्दों के कारण होती है, जबकि 17-18 फीसद सशस्त्र बलों की खास जरूरतें और लक्ष्य लगातार बदलने की वजह से होती है. कुछ परियोजनाओं में देरी के लिए नौकरशाहों की लालफीताशाही भी जिम्मेदार होती है. अब, जब सभी मौजूदा परियोजनाओं की समीक्षा की जा रही है, केवल उन्हीं परियोजनाओं के बचे रहने की उम्मीद है जो व्यावहारिक होंगी. डीआरडीओ मुख्यालय ने भी अपनी प्रयोगशालाओं से कहा है कि उन परियोजनाओं को जल्द पूरा करें जो अंतिम चरण में पहुंच चुकी हैं.
डीआरडीओ की जनशक्ति का सही प्रबंधन भी एक अहम पहलू है, जिसमें करीब 7,500 वैज्ञानिक, 10,000 रक्षा अनुसंधान और तकनीकी कर्मचारी तथा 12,500 प्रशासनिक और अन्य सहायक कर्मचारी शामिल हैं. साथ ही, करीब 30,000 संविदा कर्मचारी भी हैं जो विशिष्ट परियोजनाओं पर काम कर रहे हैं. समिति ने सेना की अग्निवीर योजना की तर्ज पर परियोजनाओं की जरूरत के हिसाब से 3-5 साल के लिए पीएचडी और पोस्ट ग्रेजुएट डिग्रीधारियों की भर्ती का प्रस्ताव रखा है.
इस अवधि के बाद, उनमें से करीब 25 फीसद को नियमित तौर पर डीआरडीओ का हिस्सा बना लिया जाएगा. समिति का मानना है कि इससे प्रदर्शन को लेकर जवाबदेही ज्यादा बढ़ेगी और उच्च गुणवत्ता वाली जनशक्ति को बनाए रखा जा सकेगा.
प्रदर्शन न करने वालों को बाहर करने के संबंध में समिति का सुझाव है कि इससे पहले उनके पिछले दस वर्षों के कामकाज और उपलब्धियों की कड़ी समीक्षा की जाए. योगदान न देने वाले वैज्ञानिकों को समय-पूर्व सेवानिवृत्ति लेने को कहा जा सकता है. वहीं, प्रशासन और संबद्ध सेवाओं से जुड़े कर्मचारियों को अन्य सरकारी मंत्रालयों में स्थानांतरित किया जा सकता है. ये योजनाएं महत्वाकांक्षी हैं, लेकिन क्या डीआरडीओ इसके लिए तैयार होगा?