किसी का नुक्सान किसी के नफे में कैसे बदल जाता है, ओटीटी प्लेटफार्म पर लगातार अपना रंग जमा रहे उभरते अभिनेता इसकी मिसाल हैं. महामारी ने पारंपरिक ढंग से शूटिंग और दूसरे काम तो रोके ही थे, सिनेमाघरों में जाकर फिल्में देखना भी असंभव बना दिया था. देश क्या दुनिया भर के मल्टीप्लेक्स में मातम छा गया. लेकिन लंबे समय से स्ट्रगल करते आ रहे अभिनेताओं के लिए यही वह सुनहरा मौका बन गया जो सीमित लंबाई वाली फिल्मों, नेपोटिज्म और दूसरी वजहों से 10-10, 15-15 साल से एक अदद बेहतर रोल का बस इंतजार करते आ रहे थे.
ओटीटी पर वेब सीरीज में उनकी प्रतिभा सामने आते ही उन्हें पहचान मिलने लगी. मजे की बात है कि ये कलाकार जयदीप अहलावत या दिव्येंदु शर्मा की तरह भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान (एफटीआइआइ), राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) या दूसरे किसी बड़े संस्थान से प्रशिक्षण लेकर नहीं निकले बल्कि रंगमंच और उससे जुड़ी गतिविधियों में ही धैर्य के साथ जुटे रहकर अपनी प्रतिभा तराशते रहे हैं. उम्र के तीसरे और चौथे दशक में पहुंच जाने के बावजूद वे गुजारे का कोई न कोई जरिया निकालकर मुंबई में टिके रहे. मिर्जापुर, पाताल लोक, रक्तांचल, बीहड़ का बागी और ऐसी ही दूसरी वेब सीरीज के जरिए अब वे सफलता की अपनी कहानी लिख रहे हैं. अभिषेक बनर्जी, क्रांति प्रकाश झा, इक्ष्वाकु सिंह, दिलीप आर्य उन्हीं से कुछ नाम हैं. ये चॉकलेटी चेहरे वाले 'करिश्माई' कलाकार नहीं बल्कि नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी और पंकज कपूर से प्रेरित पीढ़ी के हैं.
अभिषेक बनर्जी: चला हथौड़ा
दिल्ली के अभिषेक बनर्जी की कामयाबी का किस्सा रोचक है. कुछेक फिल्मों में उन्होंने छोटे-छोटे कॉमिक रोल किए थे लेकिन लॉकडाउन के दौरान अमेजन प्राइम पर रिलीज पाताल लोक वेब सीरीज में उनके खलनायकी किरदार विशाल उर्फ हथौड़ा त्यागी ने उन्हें चर्चित कर दिया. हथौड़ा के रोल को चरितार्थ करने के लिए उन्होंने अब तक का पूरा अनुभव झोंक दिया. वे याद 2012 के उस निर्भया कांड को याद करते हैं जब इसको लेकर लोगों में भारी गुस्सा था. हथौड़ा का रोल करने में वही गुस्सा उनके काम आया. इस कामयाबी के बाद वे अपने ऊपर जताए गए दर्शकों और फिल्मकारों के विश्वास को कायम रखना चाहते हैं.
पाताल लोक में गाली और गोली की बहुतायत के बावजूद अभिषेक का मानना है कि सफलता का यह सूत्र नहीं है. ''सुपरस्टार राजेश खन्ना ने कभी गाली नहीं दी. अमिताभ बच्चन को गाली और गोली ने एंग्री यंगमैन नहीं बनाया बल्कि उन्होंने उस दौर के बेरोजगार युवाओं के आक्रोश को स्वर दिया था. पाताल लोक में भी गाली और गोली आज के समाज का सच ही है.'' स्कूल के दिनों में अभिषेक का पढ़ाई में मन ही नहीं लगता था. बहाना बनाकर वे होमवर्क टालते रहते थे. नतीजतन पिता से डांट सुननी पड़ती. पर आज ऐक्टिंग के लिए उन्हें अच्छा-खासा होमवर्क करना पड़ता है और वे इसे जी-जान से करते हैं. ऐक्टिंग के लिए किसी संस्थान से ट्रेनिंग लेने की बजाय उन्होंने थिएटर की शरण ली और ऐक्टर बनने मुंबई आ गए, जहां उन्हें खासा संघर्ष करना पड़ा. लेकिन उस दौरान वे जिंदगी से कभी उदास नहीं हुए.
गुजारे के लिए अभिषेक ने कास्टिंग डाइरेक्शन का रास्ता चुना और यह काम वे अब भी कर रहे हैं. लेकिन जिस सपने को लेकर वे दिल्ली से चले थे उसे पूरा करने के लिए अभी भी जुटे हुए हैं. स्त्री, बाला, ड्रीम गर्ल और मेड इन चाइना में भी उन्होंने छोटे-छोटे रोल किए हैं. घनचक्कर फिल्म में उन्हें एक किरदार पसंद आया था, जिसे वे खुद करना चाहते थे लेकिन उसके कास्टिंग डाइरेक्टर होने की वजह से उन्हें संयम बरतना पड़ा.
अभिषेक अपनी काबिलियत का आंकलन खुद करते रहते हैं. उन्हें इस बात का एहसास है कि अभी उनको ज्यादा मेहनत की जरूरत है. दिल्ली के किरोड़ीमल कालेज से पढ़ाई करने वाले अभिषेक को मुंबई में सबसे बड़ा सहारा विशाल भारद्वाज से मिला और उनके साथ रहकर उन्होंने ऐक्टिंग की बारीकियों को सीखा. अभिषेक को अब समझ में आ गया है कि रन बनाने के लिए धैर्य के साथ उसके लायक गेंद का इंतजार करना है. उन्हें यह भी पता है कि अनुशासन में रहने से उन्हें काम मिल रहा है. पाताल लोक के बाद अब अमेजन प्राइम पर पांच शार्ट फिल्मों की सीरीज अनपॉज्ड आई है, जिसमें अविनाश अरुण निर्देशित विषाणु में उन्होंने काम किया है. आकर्ष खुराना की रश्मि राकेट और उमेश शुक्ला की आंख मिचौली में भी वे दिखेंगे.
क्रांति प्रकाश झा: एक और विजय
बिहार के बेगूसराय जिले के रुदौली गांव के क्रांति प्रकाश झा को कामयाबी पाने में करीब 13 साल लग गए. एमएक्स प्लेयर पर अस्सी के दशक वाले पूर्वांचल की एक अपराध कथा पर आधारित रितम श्रीवास्तव निर्देशित वेब सीरीज रक्तांचल में वे चल निकले. इसमें उन्होंने युवाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले विजय सिंह का किरदार निभाया है. शांत स्वभाव का एक इन्सान समाज के लिए कुछ करना चाहता हो लेकिन जब उसे बहुत दबा दिया जाए तो उसका गुस्सा कैसे फूटता है, विजय सिंह का किरदार उसी की कहानी है. क्रांति स्पष्ट करते हैं, ''विजय सिंह की हिंसा और गुस्से से मैं रिलेट नहीं करता. मैं अहिसा का पैरोकार हूं. लेकिन हिंसा अगर कहानी की मांग है तो इसमें कोई बुराई नहीं. अब दो बाहुबली अपनी लड़ाई में एक-दूसरे को कोई गेंदे के फूल से तो मारेंगे नहीं. विजय सिंह से पहले क्रांति ने बाबा रामदेव और बटला हाउस में एक आतंकी की भी भूमिका निभाई है. एमएस धोनी में उन्होंने संतोष का करिदार किया था.
वे अलग-अलग शेड वाले किरदार निभाना चाहते हैं. मनोज वाजपेयी, संजय मिश्र और पंकज त्रिपाठी जैसे अभिनेताओं के संघर्ष से क्रांति खासे प्रभावित हैं. उनके पिता डॉक्टर देवचंद्र झा ने उन्हें सिखाया था कि जीवन में आपके अपने नियंत्रण में जो है, वह करते रहिए, उसका फल मिलता ही मिलता है. सफलता मिलती है और लोगों का स्नेह मिलता है तो यह एक कलाकार के लिए ऑक्सीजन का काम करता है. रक्तांचल के बाद क्रांति ने डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी की फिल्म पृथ्वीराज की शूटिंग पूरी की है जिसमें वे एक योद्धा का किरदार निभा रहे हैं.
रक्तांचल सीजन टू की भी तैयारी है. हाथ में कई और स्क्रिप्ट हैं जिसमें वे अलग-अलग किरदार चुन रहे हैं. क्रांति खुद को सौभग्यशाली मानते हैं कि वे राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की धरती से आते हैं. उन्होंने दिल्ली के हिंदू कॉलेज से पढ़ाई की. लेकिन अभिनय के लिए किसी संस्था से ट्रेनिंग नहीं ली बल्कि लगातार नाटक करते रहे. उन्हीं के शब्दों में, ''जिंदगी की जद्दोजहद और दर्द से ही अभिनय सीखा है.'' उनकी चाहत है कि कभी इम्तियाज अली, विशाल भारद्वाज और अनुराग कश्यप जैसे निर्देशकों के साथ भी उन्हें काम करने का मौका मिले.
इक्ष्वाकु सिंह: मिला लांचिंग पैड
पाताल लोक सीरीज से एक और ऐक्टर चमका और वो हैं दिल्ली के इक्ष्वाकु सिंह. उन्होंने भी साबित किया कि ऐक्टर बनने के लिए किसी इंस्टीट्यूट से ट्रेनिंग लेना जरूरी नहीं बल्कि ''लगातार थिएटर करते रहना काफी है. नाटक और जिंदगी के सहारे ही अभिनय की एक-एक सीढ़ी चढऩे का मौका मिलता है.'' आर्किटेक्चर की पढ़ाई करने वाले और थिएटर के शौकीन इक्ष्वाकु ने नाटक पढ़ने के अलावा थिएटर को ही अपना घर बना लिया. दिल्ली के अस्मिता ग्रुप के साथ आठेक साल उन्होंने काम किया.
इक्ष्वाकु के शब्दों में, ''पाताल लोक में इमरान अंसारी के मेरे किरदार का ही है असर है कि आइपीएस की तैयारी करने वाले युवा भी मुझसे अंसारी के बारे में बात करते हैं.'' इमरान एक मुस्लिम पुलिस अफसर है जिसके मनोविज्ञान को जानने के लिए उन्होंने कुछ किताबें पढ़ीं और उस समुदाय के लोगों से बात की. यह जानने की कोशिश की कि वे घरों में आपस में क्या बात करते हैं. इसके अलावा दिल्ली के कई पुलिस स्टेशनों में जाकर पुलिस के काम करने का तरीका सीखा. उनकी मेहनत की वजह से यह किरदार लोगों के दिलों में बस गया. उनके शब्दों में, ''इसमें पटकथा लेखक का अहम रोल है जिसने इतने अच्छे किरदार को लिखा है. गाली और गोली नहीं बल्कि अच्छी कहानी और राइटिंग ही किरदार को मजबूत बनाते हैं. पटकथा जिंदगी से जुडऩी चाहिए और लोगों को पसंद आनी चाहिए.'' अलीगढ़ फिल्म को वे अपना टर्निंग प्वाइंट मानते हैं.
इसके अलावा उन्होंने रांझना, तुम बिन-2, तमाशा, वीरे दी वेडिंग में भी छोटे-छोटे रोल किए. आनंद एल. राय और इम्तियाज अली के साथ काम किया. इक्ष्वाकु का मानना है कि उन्हें अच्छे मेंटर मिले जिससे आर्ट के क्षेत्र में उनकी जर्नी अच्छी होती गई. वे बताते हैं, ''मैंने पहला नाटक देखा था नाटककार राजेश कुमार का लिखा आंबेडकर और गांधी. जाहिर है तब मैं ऑडिएंस में था. सात साल के बाद उसी नाटक में मैं आंबेडकर का मुख्य किरदार निभार रहा था.'' इक्ष्वाकु को सामाजिक-राजनैतिक मिजाज वाले नाटक ज्यादा पसंद हैं और वे इन्हें ही नाटक करते आ रहे हैं. लॉकडाउन के दौरान उन्होंने शेक्सपीयर के अलावा राजा राव और मुल्कराज आनंद की किताबें खरीदीं. इक्ष्वाकु खुद को हर तरह के रोल के लिए तैयार करके रखना चाहते हैं ताकि वैसा मौका आने पर वे निर्देशक की उम्मीद पर खरे उतर सकें. पाताक लोक ने उनको एक लांचिंग पैड मुहैया किया है. उसी का नतीजा है कि अब उनके हाथों में कुछ पटकथाएं हैं और वे अपने लिए बेहतर कैरेक्टर तलाश रहे हैं.
दिलीप आर्य: बाल मजदूरी से अभिनय तक
एफटीआइआइ जैसे संस्थानों से प्रशिक्षण लेने वाले कलाकारों को भी हुनर दिखाने का मौका तुरंत नहीं मिलता. पाताल लोक के हाथीराम चौधरी के रूप में चर्चित जयदीप अहलावत को 10 सालं तक संघर्ष करना पड़ा तो मिर्जापुर के भैय्याजी दिव्येंदु शर्मा को भी मशक्कत करनी पड़ी है. फिलहाल अब दोनों व्यस्त हैं. पर लखनऊ की भारतेंदु नाट्य अकादमी और एफटीआइआइ से प्रशिक्षण लेने वाले फतेहपुर जिले के अमौली गांव के दिलीप आर्य के संघर्ष की कहानी अपने आप में अनोखी है. उन्होंने अगर थिएटर को नहीं पकड़ा होता तो मुंबई में 15 साल तक मुफलिसी को काटना मुश्किल हो जाता.
राज मिस्त्री के बेटे और बाल मजदूरी करके अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने वाले दिलीप को 15 साल बाद एमएक्स प्लेयर पर बीहड़ का बागी वेब सीरीज के जरिए चुपके-से चमकने का मौका मिला. चुपके-से मतलब पिछले नवंबर के आखिर में यह वेब सीरीज बिना किसी पब्लिसिटी के रिलीज कर दी गई. और एक हफ्ते में ही ऐसा धमाल कि इसे 2.4 करोड़ लोगों ने देखा. इस सफलता के पीछे का राज? दिलीप कहते हैं, ''कोई राज नहीं, बस मेहनत. लगे रहे. डटे रहे. और जिद पर अड़े रहे. नहीं तो जीवन में लोग वाकआउट कर जाते हैं. फील्ड छोड़ देते हैं. 2005 में आया था, 15 साल हो गए. धैर्य बनाए रखा.''
पंद्रह साल में वे पहली बार परदे पर नजर आए हैं. डेढ़ दशक बाद दिलीप के हुनर को रक्तांचल वेब सीरीज के निर्देशक रतिन श्रीवास्तव ने पहचाना जो संघर्ष के दौरान मुंबई में कभी दिलीप के रूममेट हुआ करते थे. दिलीप के शब्दों में, ''बीहड़ का बागी चूंकि ददुआ डाकू पर आधारित है तो ददुआ के लिए मेरा चयन तो किया गया लेकिन बाजार में मेरा चेहरा बिकाऊ नहीं था तो कुछ बड़े ऐक्टरों से बात हुई. आखिर में रतिन के कहने पर प्रोड्यूसर ने मुझ पर भरोसा किया और मैंने भरोसा कायम रखा.'' अब इसमें उनके अभिनय की तारीफ हो रही है.'' दिलीप बताते हैं कि ददुआ की पोशाक मेरा गांव मेरा देश, शोले, बैंडिट क्वीन, सोनचिरैया और पान सिंह तोमर के डाकुओं जैसी नहीं थी.
बुंदेलखंड इलाके में चार खेत पैदल लांघकर डाकू अपना इलाका बदल लेते थे, इसलिए ददुआ के मेकअप और गेटअप पर मेहनत नहीं करनी पड़ी. ''ददुआ की छवि रॉबिनहुड की थी. अपनी कुर्मी जाति के लोगों के हितों का उसने खास ख्याल किया. यहां तक कि उन्हें राजनीति के क्षेत्र में भी आगे किया. ददुआ के गैंग में स्कूल में पढ़ने वाले लड़के छुट्टियों में काम करते और छुट्टी खत्म होते ही पढ़ने स्कूल चले जाते. ददुआ उन्हें 7,000-8,000 रु. महीना तनख्वाह देता था.'' दिलीप के मुताबिक, वेब सीरीज में ददुआ का महिमामंडन नहीं किया गया है.
दिलीप को ऐक्टर बनने की सनक नसीरुद्दीन शाह और ओमपुरी के इंटरव्यू पढ़ने के बाद पैदा हुई. दिलीप ने सोचा कि जब वे ऐक्टर बन सकते हैं तो दिलीप क्यों नहीं. एमए तक की पढ़ाई करने वाले दिलीप ने दिल्ली के एक्ट वन ग्रुप से जुड़कर नाटक किए और एफटीआइआइ में एडमिशन फिल्म बंधु संस्था के दिए पैसे से हुआ, जिसकी अध्यक्ष तब जया बच्चन थीं. मुंबई में रोजी-रोटी का जुगाड़ महिंद्रा ऐंड महिंद्रा जैसे कॉर्पोरेट घरानों ने किया. उनके लिए मुफलिसी अब भी है पर बीहड़ का बागी की सफलता से उन्हें 2021 में कुछ अच्छे प्रोजेक्ट मिलने की उम्मीद जगी है. कुछ स्क्रिप्ट हाथ में हैं. दिलीप के शब्दों में, ''आप कह सकते हैं कि मजदूरी करने वाला लड़का हीरो बन गया. लेकिन सहज और सरल स्वभाव है मेरा. इंडस्ट्री का नियम है कि ऐक्टर कमजोर है, लेकिन इंसान अच्छा है तो काम मिलता है.''