बनारस इधर 2-3 साल से खासी हलचलों वाला शहर बन गया है. इसी शहर के एक कोने में पिछले 4-5 साल से एक क्रिएटिव बदलाव भी आकार लेता आ रहा है. यहां रामलीला तो तुलसीदास ने ही शुरू करवा दी थी, जिसमें नारी पात्र अब भी पुरुष कलाकार ही करते आ रहे हैं. लेकिन परंपराओं को चुटकी न काटे, लग्गी न लगाए तो बनारस कैसा! यहीं की एक अभिनेत्री 23 वर्षीया स्वाति विश्वकर्मा ने, इसके उलट पुरुष पात्र शिद्दत से निभाने शुरू कर दिए हैं. जयशंकर प्रसाद की कामायनी में मनु बनकर उन्होंने अपनी अभिनय सृष्टि रचनी शुरू की. दिनकर के रश्मिरथी में उन्होंने कर्ण के द्वंद्व और ऊहापोह को जिया. और निराला की राम की शक्ति पूजा में राम की काया-छाया में उतरते ही उन्हें वह मिल गया, जिसकी शायद उन्हें तलाश थी. तुलसी के मर्यादा पुरुषोत्तम और निराला के मनुष्यवत् राम में फर्क क्या-क्या हैं, ऐसे पक्षों पर कवि-निर्देशक व्योमेश शुक्ल से लंबी चर्चाओं ने उनका समाधान किया. नतीजाः सिर पर भारी मुकुट, वस्त्राभूषण, बाजूबंद, लंबा पुष्पहार पहने होने के बावजूद, शास्त्रीय नृत्य-गतियों के साथ भावाभिनय में वे राम की करुणा को गहराई से उकेरती चली गईं.
अब नए नाटक चित्रकूट में उन्होंने तुलसी के राम को जीना शुरू किया है. 4 अप्रैल को दिल्ली के इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में इसका मंचन होने जा रहा है. बनारस के करीब 200 सदस्यों वाले एक विस्तृत मध्यवर्गीय विश्वकर्मा परिवार की स्वाति अब तक देश, खासकर उत्तर भारत में अपने नाटकों के करीब 100 शो कर चुकी हैं. डेढ़ साल छोटी बहन नंदिनी सीता और दूसरे स्त्री-पुरुष किरदारों में मंच पर उनके आसपास ही रहती हैं.
पोएट्री के टेक्स्ट पर अभिनय की प्रक्रिया में स्वाति के भीतर का गद्यपन घुलते-बहते-छनते हुए छंद के सौंदर्यबोध में ढल गया है. उनकी देह कविता का व्याकरण और उसके गहरे अर्थों को खोलने का उपकरण बन गई है. उन्हें गढऩे वाले व्योमेश भी मानते हैं, ''स्वाति में कविता के मर्म की ठोस समझ है. उनमें गहरी एकाग्रता और आत्म सजगता है." हलचल क्यों न हो बनारस में.
थियेटर: स्वाति के राम
23 वर्षीया अभिनेत्री स्वाति विश्वकर्मा ने, इसके उलट पुरुष पात्र शिद्दत से निभाने शुरू कर दिए हैं.

अपडेटेड 3 अप्रैल , 2017
Advertisement
Advertisement