उत्तर प्रदेश के नोएडा के सेक्टर-एक में विशाल टावर की दूसरी मंजिल के एक कमरे में एक शख्स बड़ी ही गंभीरता से लैपटॉप पर अपने एक कर्मचारी को कुछ सलाहें दे रहा है. वह विदा होता है तो वह शख्स हमसे मुखातिब होता है. उसके चेहरे पर नजर आने वाला सुकून और उनींदापन इस बात का इशारा कर देते हैं कि वह जो काम कर रहा है, उससे कितना संतुष्ट है लेकिन कुछ दिन पहले हुए आलाशीन आयोजन की थकान अब भी पूरी तरह उतरी नहीं है. वे एक मीठी मुस्कान फेंकते हुए कहते हैं, ''अब मैं रेख्ता के अलावा कुछ नहीं करता. अपनी सभी कंपनियों के लिए लोगों को तैनात कर दिया है, और सारा काम वही देखते है.'' ये शख्स संजीव सराफ हैं जो एक कामयाब उद्योगपति हैं. जिनका उत्तरी अमेरिका, थाईलैंड और तुर्की में पॉलिस्टर फिल्म मैन्यूफैक्टरिंग का काम है जबकि उत्तराखंड और पंजाब में वे हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट चलाए हुए हैं. इसके अलावा उनका लीगल डेटाबेस—मनुपत्र—का काम भी है.
ऐसे में एक कामयाब उद्योगपति का उर्दू के लिए जी-जान से जुटने का क्या सबब है? सराफ कहते हैं, ''हर वह शख्स जो बचपन से हिंदी फिल्में देखता आया है और गाने सुनता आया है, वह जाने-अनजाने में उर्दू का ही इस्तेमाल कर रहा होता है.'' उनका कहना सही भी है. उन्हें उर्दू से लगाव विरासत में मिला क्योंकि पिता को उर्दू शायरी का शौक था. परिवार का खनन का खानदानी काम था. उनकी स्कूली शिक्षा ग्वालियर के सिंधिया स्कूल में हुई. फिर उन्होंने आइआइटी-खड़ग़पुर से एग्रीकल्चरल इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की और उसके बाद खानदानी बिजनेस को करने के लिए ओडिशा गए. लेकिन 1984 में उन्होंने अपना कुछ करने का फैसला किया और दिल्ली आ गए. 1986 में उन्होंने पॉलिस्टर फिल्म्स का काम शुरू किया और पॉलिप्लेक्स कॉर्पोरेशन लिमिटेड की स्थापना की जो आज पॉलिस्टर फिल्म का उत्पादन करने वाली बड़ी उत्पादक कंपनी है. लेकिन उर्दू से उनका लगाव कायम रहा. पांच साल पहले उन्होंने उर्दू पर अपने हाथ मांजने का फैसला किया.
उर्दू से प्यार और बढ़ा लेकिन उन्हें उससे जुड़ी जानकारी के लिए मजबूत स्रोतों का अभाव नजर आया. शायरी को ढूंढा लेकिन सब कुछ बहुत ही कच्चा मिला. कई बार तो ऐसा हुआ शेर और शायरी गलत नाम से मिली. इस तरह उन्हें उर्दू के लिए ऑनलाइन स्रोत की जरूरत महसूस हुई. इसी जरूरत को पूरा करने के लिए रेख्ता की शुरुआत की. इस ऑनलाइन वेबसाइट को जबरदस्त रिस्पॉन्स मिला. उन्होंने शुरू में लोकप्रिय शायरों जैसे गालिब, जौक, जिगर, मजाज, वली से शुरुआत की. इससे सराफ के हौसले बुलंद हुए. उस समय सिर्फ 40-50 शायरों से शुरुआत की. रेख्ता पर शायरी को देवनागरी, उर्दू और रोमन लिपि में रखा गया. वेबसाइट की कामयाबी का आलम यह है कि आज इसके ऊपर दुनिया भर के मशहूर 2,350 शायर मौजूद हैं.
2,500 गजलें, 5,000 नज्में और लगभग 23,000 ई-बुक्स हैं. इस सारे काम को 60 लोगों की टीम अंजाम देती है. सराफ बताते हैं, ''हमारा फोकस ई-बुक्स पर भी है और हम उर्दू की बेशकीमती किताबों को जुटाकर उन्हें डिजिटाइज कर रहे हैं. हम हर महीने एक हजार किताबों को डिजिटल कर रहे हैं.'' इसके लिए हैदराबाद, मुंबई, पटना, इलाहाबाद, लखनऊ में काम चल रहा है. जामिया हमदर्द, गालिब सेंटर और हरदयाल लाइब्रेरी के साथ मिलकर भी किताबों को डिजिटल बनाने का काम जोरों पर है.
जब रेख्ता का असर बढ़ा तो उन्होंने उर्दू भाषा के जश्न के लिए जश्न-ए-रेख्ता की शुरुआत का फैसला किया. 2015 में दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर आइआइसी में जश्न-ए-रेख्ता की शुरुआत हुई, जिसमें 18,000 लोग आए. इसके बाद 2016 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (आइजीएनसीए) को चुना तो इसमें 85,000 लोग आए और 2017 में यह आंकड़ा 1,40,000 तक पहुंच गया है. वे हंसते हुए कहते हैं, ''अगली बार शायद हमें प्रगति मैदान या जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम जैसी किसी जगह को चुनना पड़े.''
उर्दू में अच्छा लिखा जा रहा है लेकिन उर्दू में खरीद के संकट को संजीव जरूर स्वीकार करते हैं. उनके मुताबिक, उर्दू की शायरी देवनागरी में खूब बिकती है. कुछ समय पहले उन्होंने शायरी की किताब गजल उसने छेड़ी प्रकाशित की थी, जिसके दो संस्करण आ चुके हैं और इसके तीन खंड प्रकाशित हो चुके हैं. लेकिन वे उर्दू के अनुवाद के खिलाफ हैं, ''अनुवाद करना मतलब जिस्म से रूह को अलग करना है.'' उन्होंने उर्दू सिखाने के लिए अमोजिश नाम से वेबसाइट शुरू की है, जिसके जरिये उर्दू का बेसिक ज्ञान हासिल किया जा सकता है. इसके अलावा सूफी कलामों को एक जगह लाने के लिए सूफीनामा पर भी काम हो रहा है. भविष्य की योजनाओं के बारे में पूछने पर वे कहते हैं, ''मुझे रेख्ता को अपने पांव पर खड़ा करना है.''
जब इस तरह का काम होता है तो कई तरह की परेशानियां भी सामने आती हैं. जहां संजीव के सामने पहले समस्या उर्दू के अच्छे जानकारों की थी तो वही समय के साथ उन पर कई तरह के आरोप भी लगे. किसी ने कहा कि वे उर्दू लिपि को खाने के चक्कर में हैं और किसी ने इसे साजिश करार दिया. वे कहते हैं, ''मैं खुद उर्दू सीख रहा हूं तो मैं उसके खिलाफ कैसे जा सकता हूं. मैं उर्दू की किताबों को संरक्षित कर रहा हूं. किसी ने मुझ पर पैसा कमाने का आरोप भी लगाया. लेकिन मैंने परवाह नहीं की. मुझे तो वह काम करना है जिससे संतुष्टि मिले और उर्दू की सारी जानकारी लोगों को एक जगह आसानी से मिल जाए.''
वे अपने काम को अपनी मर्जी और आजादी के साथ करने में दिलचस्पी रखते हैं. ये पूछने पर कि क्या आज के माहौल में कुछ दिक्कत नहीं आती इस तरह के काम को आगे बढ़ाने में? तो वे हंसते हुए कहते हैं, ''मैं सरकार से दूर रहता हूं. मजहब से दूर रहता हूं. राजनीति से दूर रहता हूं. अपनी मर्जी से काम करता हूं.'' यही वजह है कि उर्दू भाषा को उन्होंने सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर हिट बना दिया है और युवाओं के बीच लोकप्रियता के नए मुकाम दिला रहे हैं.
सराफ को व्यंग्य बेहद पसंद है. क्लासिक शायरी और पुरानी फिल्मों का संगीत सुनते हैं. इन दिनों वे जॉर्ज ऑरवेल की किताब 1984 को पढ़ रहे हैं. उनकी तीन बेटियां हैं जो विदेश में पढ़ती हैं और उन्हें अपने पापा के इस काम पर गर्व है. हो भी क्यों न क्योंकि सराफ को 'इक्कीसवीं सदी का नवल किशोर' जो कहा जाने लगा है.
ऐसे में एक कामयाब उद्योगपति का उर्दू के लिए जी-जान से जुटने का क्या सबब है? सराफ कहते हैं, ''हर वह शख्स जो बचपन से हिंदी फिल्में देखता आया है और गाने सुनता आया है, वह जाने-अनजाने में उर्दू का ही इस्तेमाल कर रहा होता है.'' उनका कहना सही भी है. उन्हें उर्दू से लगाव विरासत में मिला क्योंकि पिता को उर्दू शायरी का शौक था. परिवार का खनन का खानदानी काम था. उनकी स्कूली शिक्षा ग्वालियर के सिंधिया स्कूल में हुई. फिर उन्होंने आइआइटी-खड़ग़पुर से एग्रीकल्चरल इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की और उसके बाद खानदानी बिजनेस को करने के लिए ओडिशा गए. लेकिन 1984 में उन्होंने अपना कुछ करने का फैसला किया और दिल्ली आ गए. 1986 में उन्होंने पॉलिस्टर फिल्म्स का काम शुरू किया और पॉलिप्लेक्स कॉर्पोरेशन लिमिटेड की स्थापना की जो आज पॉलिस्टर फिल्म का उत्पादन करने वाली बड़ी उत्पादक कंपनी है. लेकिन उर्दू से उनका लगाव कायम रहा. पांच साल पहले उन्होंने उर्दू पर अपने हाथ मांजने का फैसला किया.

2,500 गजलें, 5,000 नज्में और लगभग 23,000 ई-बुक्स हैं. इस सारे काम को 60 लोगों की टीम अंजाम देती है. सराफ बताते हैं, ''हमारा फोकस ई-बुक्स पर भी है और हम उर्दू की बेशकीमती किताबों को जुटाकर उन्हें डिजिटाइज कर रहे हैं. हम हर महीने एक हजार किताबों को डिजिटल कर रहे हैं.'' इसके लिए हैदराबाद, मुंबई, पटना, इलाहाबाद, लखनऊ में काम चल रहा है. जामिया हमदर्द, गालिब सेंटर और हरदयाल लाइब्रेरी के साथ मिलकर भी किताबों को डिजिटल बनाने का काम जोरों पर है.
जब रेख्ता का असर बढ़ा तो उन्होंने उर्दू भाषा के जश्न के लिए जश्न-ए-रेख्ता की शुरुआत का फैसला किया. 2015 में दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर आइआइसी में जश्न-ए-रेख्ता की शुरुआत हुई, जिसमें 18,000 लोग आए. इसके बाद 2016 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र (आइजीएनसीए) को चुना तो इसमें 85,000 लोग आए और 2017 में यह आंकड़ा 1,40,000 तक पहुंच गया है. वे हंसते हुए कहते हैं, ''अगली बार शायद हमें प्रगति मैदान या जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम जैसी किसी जगह को चुनना पड़े.''
उर्दू में अच्छा लिखा जा रहा है लेकिन उर्दू में खरीद के संकट को संजीव जरूर स्वीकार करते हैं. उनके मुताबिक, उर्दू की शायरी देवनागरी में खूब बिकती है. कुछ समय पहले उन्होंने शायरी की किताब गजल उसने छेड़ी प्रकाशित की थी, जिसके दो संस्करण आ चुके हैं और इसके तीन खंड प्रकाशित हो चुके हैं. लेकिन वे उर्दू के अनुवाद के खिलाफ हैं, ''अनुवाद करना मतलब जिस्म से रूह को अलग करना है.'' उन्होंने उर्दू सिखाने के लिए अमोजिश नाम से वेबसाइट शुरू की है, जिसके जरिये उर्दू का बेसिक ज्ञान हासिल किया जा सकता है. इसके अलावा सूफी कलामों को एक जगह लाने के लिए सूफीनामा पर भी काम हो रहा है. भविष्य की योजनाओं के बारे में पूछने पर वे कहते हैं, ''मुझे रेख्ता को अपने पांव पर खड़ा करना है.''
जब इस तरह का काम होता है तो कई तरह की परेशानियां भी सामने आती हैं. जहां संजीव के सामने पहले समस्या उर्दू के अच्छे जानकारों की थी तो वही समय के साथ उन पर कई तरह के आरोप भी लगे. किसी ने कहा कि वे उर्दू लिपि को खाने के चक्कर में हैं और किसी ने इसे साजिश करार दिया. वे कहते हैं, ''मैं खुद उर्दू सीख रहा हूं तो मैं उसके खिलाफ कैसे जा सकता हूं. मैं उर्दू की किताबों को संरक्षित कर रहा हूं. किसी ने मुझ पर पैसा कमाने का आरोप भी लगाया. लेकिन मैंने परवाह नहीं की. मुझे तो वह काम करना है जिससे संतुष्टि मिले और उर्दू की सारी जानकारी लोगों को एक जगह आसानी से मिल जाए.''
वे अपने काम को अपनी मर्जी और आजादी के साथ करने में दिलचस्पी रखते हैं. ये पूछने पर कि क्या आज के माहौल में कुछ दिक्कत नहीं आती इस तरह के काम को आगे बढ़ाने में? तो वे हंसते हुए कहते हैं, ''मैं सरकार से दूर रहता हूं. मजहब से दूर रहता हूं. राजनीति से दूर रहता हूं. अपनी मर्जी से काम करता हूं.'' यही वजह है कि उर्दू भाषा को उन्होंने सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर हिट बना दिया है और युवाओं के बीच लोकप्रियता के नए मुकाम दिला रहे हैं.
सराफ को व्यंग्य बेहद पसंद है. क्लासिक शायरी और पुरानी फिल्मों का संगीत सुनते हैं. इन दिनों वे जॉर्ज ऑरवेल की किताब 1984 को पढ़ रहे हैं. उनकी तीन बेटियां हैं जो विदेश में पढ़ती हैं और उन्हें अपने पापा के इस काम पर गर्व है. हो भी क्यों न क्योंकि सराफ को 'इक्कीसवीं सदी का नवल किशोर' जो कहा जाने लगा है.