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उत्तराखंड: छोड़कर अपना बसेरा कहां चले गए परिंदे?

उत्तराखंड से पक्षियों की 28 प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं. बदलते पारिस्थितिक तंत्र के कारण वे अपना प्राकृतिक आवास छोड़कर किन नए ठिकानों की तलाश में जा रहे हैं.

लिटरटर्न बर्ड
लिटरटर्न बर्ड
अपडेटेड 29 सितंबर , 2015

एक प्रसिद्ध रूसी किताब है-मनुष्य महाबली कैसे बना. इनसान की तमाम वैज्ञानिक और बौद्धिक उपलब्धियों का बखान करती इस किताब का पहला ही अध्याय है-“प्रकृति का पिंजरा.” किताब बताती है कि मनुष्य बलवान है क्योंकि उसने प्रकृति के रहस्यों को खोज लिया है. लेकिन प्रकृति से ज्यादा नहीं. सबसे ज्यादा उन्मुक्त और आजाद दिखने वाले पक्षी भी दरअसल प्रकृति के उस अदृश्य पिंजरे के गुलाम हैं. वे आसमान को इस छोर से उस छोर तक नापते नजर आते तो हैं, लेकिन फिर भी अपनी भौगोलिक और प्राकृतिक सीमाओं से बाहर नहीं जाते.

इस किताब और इस कहानी का जिक्र यहां क्यों जरूरी था? दरअसल, उत्तराखंड वन विभाग ने जर्नल ऑफ बर्ड लाइफ  इंटरनेशनल के नाम से वहां के प्राकृतिक आवास में विचरण करने वाले पक्षियों की जो सूची जारी की है, वह बहुत सारे मौजूं सवाल खड़े करने वाली है.यह सूची बताती है कि उत्तराखंड से पक्षियों की 28 प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं. उत्तराखंड के पहाड़, नदियां और ठंडा मौसम कभी इनका आशियाना हुआ करता था. लेकिन अब वे उसे छोड़कर जाने किस नामालूम दुनिया में जा चुके हैं. बात यहीं खत्म नहीं होती. 28 प्रजातियां विलुप्त हो गईं तो 98 जाने कहां से विचरती हुई चली भी आईं.

उत्तराखंड वन विभाग ने सबसे पहले 2003 में पक्षियों की पहली चेकलिस्ट जारी की थी. इस सूची में कुल 623 प्रजाति के पक्षियों का जिक्र था. अब 11 साल बाद वन विभाग ने दूसरी बार राज्य में पाई जाने वाली चिडिय़ों की चेकलिस्ट जारी की तो नतीजे हैरान करने वाले हैं. हालांकि पक्षियों की कुल प्रजातियों की संख्या बढ़कर 693 हो गई है, लेकिन पहले पाई जाने वाली 28 प्रजातियां इस सूची से बाहर जा चुकी हैं. पक्षी इंसानों की तरह बेहतर जिंदगी की तलाश में अपने बसेरे नहीं बदला करते. वे अपना घर तब तक नहीं छोड़ते, जब तक अस्तित्व पर संकट न आ जाए.  इसलिए वन्यजीव प्रेमियों की चिंता का सवाल यह है कि ये पक्षी यहां के बदलते पारिस्थितिकीय तंत्र के साथ तालमेल नहीं बैठा सके, इसलिए अपना बसेरा छोड़ कहीं और उड़ गए.

2003 में जारी इसी सूची में मसूरी के झड़ीपानी और नैनीताल में मिलने वाली माउंटेन क्वैल (पर्वतीय बटेर), जिसे हिमालयन क्वैल भी कहते हैं, के लुप्त हो जाने की आशंका व्यक्त की गई थी. इस सूची में भी माउंटेन क्वैल का नाम नहीं है. गायब हो चुकी 28 प्रजातियों के अलावा बेयर्स पोचर्ड, तीन किस्म के गिद्ध स्लेंडर बिल्ड वल्चर, व्हाइट वल्चर और रेड हेडेड वल्चर के अस्तित्व पर भी खतरा बताया गया है. इसके अलावा विलुप्त हो गई प्रजातियों में रेन क्वैल, किंग क्वैल, लेसर लोरीकन, इंडियन कोर्सर, लिटिल गल, लिटिल टर्न, तिबतन सैंडक्रूज, यूरोपियन टर्टल डव, बार्ड कुकू डव, थिक बिल्ड, ग्रीन पिजन, इंडियन स्विफ्टलेट, सिल्वर ब्रेस्टेड ब्राइबिल, ग्रे चिन्नड़ मिनिवेट, यूरोपियन स्काइलार्क, स्लेटी विलाइड टेसिया, रेडीज बार्बलर, यलो ब्राउडर बार्बलर, थिक बिल्ड बार्बलर आदि हैं.

गुजरी फरवरी में पक्षियों के इस आकर्षक संसार के जरिए ईको पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए उत्तराखंड सरकार ने कार्बेट नेशनल पार्क  से लगे पवलगढ़ कंजर्वेशन रिजर्व में स्प्रिंग बर्ड फेस्टिवल का भी आयोजन किया था. यह राज्य का दूसरा बर्ड फेस्टिवल था. इससे पहले देहरादून के पास आसन बैराज में बर्ड फेस्टिवल किया गया था. एक ओर तो राज्य सरकार अपने ईको पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए पक्षियों की ये प्रजातियां दुनिया को दिखाने की योजना बना रही है और दूसरी ओर पक्षी विलुप्त होते जा रहे हैं. यह सूची राज्य सरकार के लिए भी बड़ा झटका है. उत्तराखंड से लापता हो रहे पक्षियों के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए राज्य के वन मंत्री दिनेश अग्रवाल कहते हैं, “राज्य सरकार वन्यजीवों के प्रति लोगों को जागरूक कर रही है. हमारी कोशिश वन्यजीवन को लोगों के रोजगार से जोडऩे की है, ताकि वे उनके संरक्षण को लेकर ज्यादा गंभीर हो सकें.”

पवलगढ़ कंजर्वेशन रिजर्व की खासियत यह है कि यहां एक छोटे इलाके में 352 प्रजाति के पक्षियों का कलरव एक साथ सुनाई देता है. हालांकि 70 से ज्यादा नई प्रजाति के पक्षियों की आमद खुशी की बात भी है. राज्य के प्रमुख वन्यजीव प्रतिपालक दिग्विजय सिंह खाती कहते हैं, “संभवतः बदलते हुए पारिस्थितिकीय तंत्र के कारण ही पक्षियों की कई प्रजातियां विलुप्त हो गई हैं और इसी कारण नई प्रजातियां इस ओर आकर्षित भी हुई हैं.”

राज्य के बदलते पारिस्थितिकीय तंत्र का प्रभाव सिर्फ पक्षियों पर ही नहीं पड़ा है. जलीय जीव-जंतुओं के अस्तित्व पर भी संकट मंडरा रहा है. बांध बनने और नदियों के सूखने के कारण मछलियों की कई प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं. हेमवती नंदन बहुगुणा केंद्रीय विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक प्रो. एस.एन. बहुगुणा कहते हैं, “श्रीनगर में बने बांध ने अलकनंदा को कई जगहों पर सूखने की स्थिति में पहुंचा दिया. इस कारण यहां मिलने वाली मछलियों का वजूद भी संकट में पड़ गया है.”

मनुष्य विकास के नाम पर प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर रहा है, जंगल काट रहा है, बांध बना रहा है. कहीं नदियां डुबो रही हैं तो कहीं सूख रही हैं. कहीं पहाड़ फट रहे हैं तो कहीं धरती विकराल रूप धारण कर रही है. मौसम के बदलने का आलम तो यह है कि इंसान हैरान-परेशान है. पक्षियों और जीव-जंतुओं का क्या कहें. सब बात खत्म हो जाने के बाद भी सवाल जस का जस है. मनुष्य बलवान जरूर है, लेकिन प्रकृति से ज्यादा नहीं. उससे ज्यादा बलवान होने की कोशिश ही इस उथल-पुथल के रूप में सामने आई है.

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