असंगतियां कभी स्पष्ट नहीं होतीं. उनकी न पहचान स्पष्ट होती है और न यह पता लगता है कि उनका मकसद क्या है. ये ऐसे खतरे हैं जो उन लोगों के बीच भ्रांति फैलाते हैं जिन्हें पारंपरिक और निश्चित माहौल सुरक्षित और सुहावना लगता है. असंगतियां धमकाती भी हैं और संभावनाएं भी दिखाती हैं और इस अजीब भूमिका में अनिश्चित भी हो सकती है. इसका उदाहरण आम आदमी पार्टी (आप) जैसे संगठन में खास तौर पर देखा जा सकता है.
राजनैतिक दलों के बीच आप एक असंगति है. यह पार्टी जैसी लगती है, लेकिन अकसर विरोध करने वाले आंदोलन की तरह व्यवहार करती है और कभी-कभी अपना विरोध करके भी संतुष्ट हो जाती है. आज के दौर में किसी पार्टी ने लोगों का न तो इतना ध्यान खींचा है और न ही इतनी निराशा पैदा की है.
आप का उदय शुरू से ही संदेह के घेरे में था. अण्णा हजारे के आंदोलन से पैदा हुई इस पार्टी की शुरुआत महज आक्रोश के रूप में हुई थी. उस समय केजरीवाल अण्णा के सनातन सहायक नजर आते थे. केजरीवाल ने जब आंदोलन का रास्ता छोड़कर चुनाव लडऩे के लिए राजनैतिक पार्टी बनाने का फैसला किया तो बहुत सारा आक्रोश पीछे छोड़ आए थे. उनकी छवि ऐसे नायक के रूप में उभरी जिसने अण्णा से उनकी ज्वाला छीन ली थी. आम आदमी पार्टी (आप) का गठन आदेश की अवज्ञा का प्रतीक माना जाने लगा. बाद में उन पर जो अराजक होने का ठप्पा लगा वह असल में आप के गठन के मिथक से ही उपजा था.
अव्यवस्था की सीढ़ी
पार्टी के रूप में आप को उसके संदर्भ में देखना जरूरी है. कुछ आलोचक यह भी कहेंगे कि आप असल में कुछ लोगों के अहं का प्राक्कथन भी थी. आम आदमी पार्टी असल में विचारों के मुठभेड़ और कुछ नए अंदाज की प्रतीक थी. ये मीडिया की चहेती पार्टी थी जिसकी खबरें दिनभर छायी रहती थी. ये खबरें जनमानस को भा गईं और आप एक नई सोच वाला नेतृत्व तथा सक्रिय समर्थकों का उत्साही झुंड बन गई. इसने मुस्कराते हुए प्रतिरोध की राजनीति को जन्म दिया. दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत और केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने पर भी अव्यवस्था का यही एहसास था. लोगों को रिचर्ड सेनेट की मशहूर पुस्तक द यूजेज ऑफ डिस्ऑर्डर की याद आ गई. सेनेट कमाल के समाजशास्त्री और जैज संगीतकार थे जो राजनीति की नब्ज पहचानते थे. उन्होंने सिद्ध किया कि अव्यवस्था से नई खोज की शक्ति, असंतोष, नए विचार और बहस के नए अंदाज पनपते हैं जिनकी अनुशासित व्यवस्था में कोई गुंजाइश नहीं है.
आप ने अव्यवस्था के उपयोग की नीति अपनाई. पहले कुछ हफ्तों में सचिवालय में आप के खुले दरबारों में खूब उधम हुआ. मध्यमवर्गीय आलाचकों ने सत्ता और जिम्मेदारी की नौसिखिया सोच कहकर इसका मजाक उड़ाया. केजरीवाल ने इंतजाम की इस चूक के लिए बड़े लुभावने अंदाज में माफी मांग ली. फिर भी लोगों को इस शोर या परेशानी से कोई नाराजगी नहीं हुई. उन्हें लगा कि सरकार ने सुनने की मशीन पहन ली है. लोगों को उम्मीद हो गई कि बिजली और पानी की स्थिति बेहतर होगी. लेकिन आप ऐसे काम करने लगी जिसे नियमित प्रशासन की बजाए उद्वेलित विरोध प्रदर्शनों से ज्यादा मोह है. आप चौकीदारी और विरोध के बीच का फर्क नहीं समझ पाई. उससे भी बुरा यह हुआ कि मधु किश्वर ने यह चेतावनी देते हुए इस्तीफा दे दिया कि आम आदमी पार्टी ने महिलाओं के लिए कोई जगह नहीं है. इससे पता चला कि पार्टी महिलाओं की भागीदारी को सही ढंग से नहीं संभाल पाई. अफ्रीकी निवासियों का मुद्दा हो या खाप का सवाल, पार्टी इन मुद्दों का कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पाई. तब तक आप का सबसे बड़ा समर्थक मीडिया उससे मुंह फेरने लगा था.
मुख्यमंत्री पद से केजरीवाल के इस्तीफे ने अपेक्षाओं का तारतम्य भंग कर दिया. इस फैसले में कोई समझदारी नहीं थी और यह एकाएक लिया गया था. ऐसा लगा कि आप समझ नहीं पाई कि चुने जाने का मतलब सत्ता का संचालन करना होता है. इस बार केजरीवाल ने अपनी जनता से भी बात नहीं की. ऐसा लगा कि केजरीवाल ने उस मुखौटे के लिए जनता नाम का कपोल पात्र गढ़ा था जिसकी उन्हें बेहद जरूरत थी. समर्थक खुद को छला हुआ महसूस करने लगे. ऐसा लगा मानो उन्होंने सनक में फैसला कर लिया कि मुख्यमंत्री नहीं रहना है और एक आंदोलनकारी के रूप में अपनी भूमिका से वे ज्यादा संतुष्ट नजर आए.
बेमजा नौटंकी, बेशऊर राजनीति
यह तो मानना पड़ेगा कि चुनाव करीब आते देख आप ने चतुराई से पैंतरा बदला. दिल्ली का प्रशासन भूलकर सारा ध्यान विभिन्न नाटकीय आंदोलनों पर लगा दिया गया. राम और रावण का मुहावरा तो उपयुक्त लगा लेकिन राम के बाणों का रावण के रूप में प्रचारित नरेंद्र मोदी पर कोई असर नहीं हुआ. वाराणसी का युद्ध कई तरह से मायावी रहा, लेकिन केजरीवाल समझ गए कि दिल्ली छोड़कर भागने के लिए जनता ने उन्हें माफ नहीं किया. एक जंग छोड़कर दूसरे जंग में उतरने का नाटक बुरा और उससे भी बुरी राजनीति का प्रतीक था. लोगों को लगा कि केजरीवाल को चुनने मे जो ऊर्जा उन्होंने खर्च की थी उसे इतनी आसानी से गंवा दिया गया. आप ने जब चुनाव प्रचार का नाटक करना शुरू किया तो पार्टी सत्ता की ट्रस्टीशिप को भूल गई. लेकिन राज-पाट छोडऩे की यह चाल उसके समर्थकों को बेचैन करती रही.
बीजेपी का चुनाव प्रचार कितना ही पुख्ता क्यों न रहा हो, आम आदमी पार्टी के निराले प्रचार ने लोगों का ध्यान तो खींचा. संगरूर में पार्टी ने नशे के कारोबार को मुद्दा बनाकर उसमें नेताओं की भागीदारी उजागर कर दी. कुडनकुलम में प्रचार के दौरान परमाणु संयंत्र के विरोध का सहारा लिया गया, हालांकि तब तक दूसरा रिएक्टर तैयार हो रहा था. अमेठी में कुमार विश्वास के तेवर ने जंग का रुख तय कर दिया. उन्होंने अमेठी में संभावना की राजनीति का रास्ता खोलकर स्मृति ईरानी के प्रचार की बुनियाद डाल दी. विश्वास की प्रचार नीति पर प्रेस के हमलों का कोई असर नहीं था. उसे लगातार कवि, जोकर और मसखरा बताने वाली प्रेस प्रचार के प्रति उनकी ईमानदारी को पूरी तरह समझ नहीं पाई. केजरीवाल के प्रचार ने भी मोदी की लोकप्रियता के नाटक पर आघात किया और जाहिर कर दिया कि राजनीति में विकल्प की संभावनाएं भारत को आकर्षित करती हैं. यह भी अनुभव हुआ कि आप का भविष्य चुनावी अंतर पर टिका हुआ था.
चुनाव के नतीजे कई पार्टियों का दिल तोडऩे वाले साबित हुए. आप ने कांग्रेस को हराने का माहौल बनाने में मदद की, लेकिन चुनाव के नतीजों को बीजेपी के समर्थन में वोट माना गया. अगर अंकों को फैसले का पैमाना मानें तो भारत ने बीजेपी के लिए वोट किया था. एक पर्यवेक्षक ने सांत्वना देते हुए कहा था कि आप ने भले ही जमानत में लाखों गंवाएं हों पर गुडविल बहुत जीती है. अंकों के खेल का असर बेरहम था. विश्वास और केजरीवाल भारी अंतर से हारे. आप के नेतृत्व की जमीन हिलती नजर आई. सत्ता से खेलने वाली पार्टी ने नतीजों को इतनी गंभीरता से लिया कि पंजाब में चार सीटों पर अप्रत्याशित जीत का जश्न मनाने का जोश भी नहीं दिखा.
यह तो मानना पड़ेगा कि चुनाव के नतीजे हारने वाली पार्टियों के लिए हमेशा दुखद होते हैं. इतिहास गिनती करना बंद कर देता है और मीडिया का चहेता जल्दी ही चुप्पी के हाशिए पर सिमट जाता है. आम तौर पर पार्टियां हार के बाद छाती पीटकर मातम मनाती हैं और हार का ठीकरा फोडऩे के लिए कोई सिर तलाशती हैं. इस्तीफे महामारी की तरह फैलते हैं. आम आदमी पार्टी में भी यही हुआ. शाजिया इल्मी, अंजलि दमानिया और कैप्टन गोपीनाथ ने इस्तीफे दे दिए. ऐसा लगा कि कैप्टन गोपीनाथ के लिए कम खर्च की राजनीति चलाना कम खर्च की एयरलाइंस चलाने से ज्यादा मुश्किल था. आखिरी वार योगेंद्र यादव ने पार्टी के समितियों से इस्तीफा देकर और भीतरी लोकतंत्र के अभाव का आरोप लगाकर किया.
लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यादव ने ऐसा क्यों किया. इसकी वजह लोकतंत्र की तलाश थी, केजरीवाल की सत्ता को चुनौती थी या चुनाव नतीजों पर फूटी बौखलाहट थी? अचानक ऐसा लगा कि किसी भी दूसरे दल की तरह आम आदमी पार्टी को भी चुनाव के दिल दहलाने वाले नतीजों से उबरने के लिए कोई बहाना चाहिए. उस समय केजरीवाल भी बौखला गए और अचानक फिर दिल्ली में सरकार बनाने में दिलचस्पी दिखाने लगे. जनता के पास जाने का ऐलान कर दिया. यह फैसले की चूक थी क्योंकि इस मौके पर नैतिकता और सूझ-बूझ की जरूरत थी. बेचैन केजरीवाल के लिए जनता खेल खेलने का माध्यम नहीं हो सकती थी.
संकट मिटा, समस्या भारी
लेकिन आप की खूबी हमेशा से उसके समर्थकों की वफादारी और शक्ति में है. आप के समर्थकों की दो परतें हैं. सबसे बाहरी परत उन प्रशंसकों और आम लोगों की है जो आप को उम्मीद की नजर से देखते हैं. दूसरी परत उन अनगिनत कार्यकर्ताओं की है जिन्होंने आप की राजनीति को उम्मीद, ईमानदारी और नई सोच का रंग दिया है. उन्होंने हमेशा आक्रामक तेवर दिखाए लेकिन हमेशा सही साबित हुए, आप के लिए बहस की पर अहम पर काबू रखा. उन्होंने जो आत्मनिर्भरता और आत्मानुशासन दिखाया उसका सम्मान हुआ.
ऐसा भी लगता है कि आप के पास समझदार लोगों का एक अनौपचारिक समूह था जो ममता और चिंता के साथ आप पर नजर रखता था. सेवानिवृत्त एडमिरल रामदास, ललिता रामदास और कमल मित्र चिनॉय जैसे लोगों का ख्याल आता है जिनमें से हरेक की राजनीति के बारे में अपनी परिपक्व सोच है. उन्होंने आप के ट्रस्टी की तरह चुपचाप काम किया और उसकी खामियों का अकलमंदी से ढंका. वे जानते थे कि स्वराज का सफर आसान नहीं होगा. उन्होंने मिल-जुलकर इसे मौजूदा संकट से बाहर धकेलने और उबारने के लिए काम किया. घावों को भरते हुए , अहम को सहलाते हुए वे पार्टी के ट्रस्टी बने रहे और संकट के दौर में उसे भावी जिम्मेदारियां याद दिलाते रहे. उनके स्नेहिल हाथ ने आप को झेंपते हुए और घायल अवस्था में ही सही वापस राजनीति की कुश्ती के एक और दौर के लिए खड़ा कर दिया. मनीष सिसोदिया या यादव या केजरीवाल से ज्यादा आप पर इन दो परतों का अधिकार है जिन्होंने इसे जिंदा रखा है.
आप का संकट तो फिलहाल टल गया है लेकिन समस्याएं खत्म नहीं हुई हैं. एक तो उस पर भी कुछ हद तक यह छाप लगने लगी है कि वह दूसरे दलों से अलग नहीं है. आप को सत्ता को ट्रस्टीशिप मानने का अपना संकल्प दोहराना होगा. उसे ईमानदारी से जनता को बताना होगा कि संकट कैसा है और उससे कैसे मुक्ति पाई जाएगी. दूसरे सशक्तीकरण का वादा जनता के बाद अपने समर्थको से भी करना होगा. उसके वफादारों और आलोचकों, दोनों को आने वाली बहसों में नई भूमिका की जरूरत है. अपनी राजनीति को नए सिरे से गढऩे के लिए आप को इतिहास और नई खोज दोनों की जरूरत है. राजनीति कभी भी खोखले वादों या अलग-अलग मुद्दों पर पुरानी कथाएं दोहराने का खेल नहीं है. आप को राजनीति पर भारी मौन तोडऩा होगा. केजरीवाल के स्वराज के घोषणापत्र को अधिक ठोस रूप देना होगा और महज घोषणापत्र के दायरे से निकलकर एक पुस्तक या वास्तविक घटनाओं के संग्रह का रूप लेना होगा. आप के नेतृत्व को उसके मौजूदा नादिरशाही तिलिस्म को तोडऩा होगा और लोकतंत्र को सशक्तीकरण का हथियार बनाना होगा. अगर ऐसा नहीं हुआ तो अनगिनत आशाएं टूट जाएंगी. अगर उसने नए ढंग से और विनम्रता से नए भविष्य के लिए काम किया तो इतिहास उसका एहसान मानेगा क्योंकि भविष्य ही पार्टी, कल्पना और आविष्कार के रूप में आम आदमी पार्टी की असली पूंजी है.
लेखक समाज विज्ञानी हैं
राजनैतिक दलों के बीच आप एक असंगति है. यह पार्टी जैसी लगती है, लेकिन अकसर विरोध करने वाले आंदोलन की तरह व्यवहार करती है और कभी-कभी अपना विरोध करके भी संतुष्ट हो जाती है. आज के दौर में किसी पार्टी ने लोगों का न तो इतना ध्यान खींचा है और न ही इतनी निराशा पैदा की है.
आप का उदय शुरू से ही संदेह के घेरे में था. अण्णा हजारे के आंदोलन से पैदा हुई इस पार्टी की शुरुआत महज आक्रोश के रूप में हुई थी. उस समय केजरीवाल अण्णा के सनातन सहायक नजर आते थे. केजरीवाल ने जब आंदोलन का रास्ता छोड़कर चुनाव लडऩे के लिए राजनैतिक पार्टी बनाने का फैसला किया तो बहुत सारा आक्रोश पीछे छोड़ आए थे. उनकी छवि ऐसे नायक के रूप में उभरी जिसने अण्णा से उनकी ज्वाला छीन ली थी. आम आदमी पार्टी (आप) का गठन आदेश की अवज्ञा का प्रतीक माना जाने लगा. बाद में उन पर जो अराजक होने का ठप्पा लगा वह असल में आप के गठन के मिथक से ही उपजा था.
अव्यवस्था की सीढ़ी
पार्टी के रूप में आप को उसके संदर्भ में देखना जरूरी है. कुछ आलोचक यह भी कहेंगे कि आप असल में कुछ लोगों के अहं का प्राक्कथन भी थी. आम आदमी पार्टी असल में विचारों के मुठभेड़ और कुछ नए अंदाज की प्रतीक थी. ये मीडिया की चहेती पार्टी थी जिसकी खबरें दिनभर छायी रहती थी. ये खबरें जनमानस को भा गईं और आप एक नई सोच वाला नेतृत्व तथा सक्रिय समर्थकों का उत्साही झुंड बन गई. इसने मुस्कराते हुए प्रतिरोध की राजनीति को जन्म दिया. दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत और केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने पर भी अव्यवस्था का यही एहसास था. लोगों को रिचर्ड सेनेट की मशहूर पुस्तक द यूजेज ऑफ डिस्ऑर्डर की याद आ गई. सेनेट कमाल के समाजशास्त्री और जैज संगीतकार थे जो राजनीति की नब्ज पहचानते थे. उन्होंने सिद्ध किया कि अव्यवस्था से नई खोज की शक्ति, असंतोष, नए विचार और बहस के नए अंदाज पनपते हैं जिनकी अनुशासित व्यवस्था में कोई गुंजाइश नहीं है.
आप ने अव्यवस्था के उपयोग की नीति अपनाई. पहले कुछ हफ्तों में सचिवालय में आप के खुले दरबारों में खूब उधम हुआ. मध्यमवर्गीय आलाचकों ने सत्ता और जिम्मेदारी की नौसिखिया सोच कहकर इसका मजाक उड़ाया. केजरीवाल ने इंतजाम की इस चूक के लिए बड़े लुभावने अंदाज में माफी मांग ली. फिर भी लोगों को इस शोर या परेशानी से कोई नाराजगी नहीं हुई. उन्हें लगा कि सरकार ने सुनने की मशीन पहन ली है. लोगों को उम्मीद हो गई कि बिजली और पानी की स्थिति बेहतर होगी. लेकिन आप ऐसे काम करने लगी जिसे नियमित प्रशासन की बजाए उद्वेलित विरोध प्रदर्शनों से ज्यादा मोह है. आप चौकीदारी और विरोध के बीच का फर्क नहीं समझ पाई. उससे भी बुरा यह हुआ कि मधु किश्वर ने यह चेतावनी देते हुए इस्तीफा दे दिया कि आम आदमी पार्टी ने महिलाओं के लिए कोई जगह नहीं है. इससे पता चला कि पार्टी महिलाओं की भागीदारी को सही ढंग से नहीं संभाल पाई. अफ्रीकी निवासियों का मुद्दा हो या खाप का सवाल, पार्टी इन मुद्दों का कोई संतोषजनक जवाब नहीं दे पाई. तब तक आप का सबसे बड़ा समर्थक मीडिया उससे मुंह फेरने लगा था.
मुख्यमंत्री पद से केजरीवाल के इस्तीफे ने अपेक्षाओं का तारतम्य भंग कर दिया. इस फैसले में कोई समझदारी नहीं थी और यह एकाएक लिया गया था. ऐसा लगा कि आप समझ नहीं पाई कि चुने जाने का मतलब सत्ता का संचालन करना होता है. इस बार केजरीवाल ने अपनी जनता से भी बात नहीं की. ऐसा लगा कि केजरीवाल ने उस मुखौटे के लिए जनता नाम का कपोल पात्र गढ़ा था जिसकी उन्हें बेहद जरूरत थी. समर्थक खुद को छला हुआ महसूस करने लगे. ऐसा लगा मानो उन्होंने सनक में फैसला कर लिया कि मुख्यमंत्री नहीं रहना है और एक आंदोलनकारी के रूप में अपनी भूमिका से वे ज्यादा संतुष्ट नजर आए.
बेमजा नौटंकी, बेशऊर राजनीति
यह तो मानना पड़ेगा कि चुनाव करीब आते देख आप ने चतुराई से पैंतरा बदला. दिल्ली का प्रशासन भूलकर सारा ध्यान विभिन्न नाटकीय आंदोलनों पर लगा दिया गया. राम और रावण का मुहावरा तो उपयुक्त लगा लेकिन राम के बाणों का रावण के रूप में प्रचारित नरेंद्र मोदी पर कोई असर नहीं हुआ. वाराणसी का युद्ध कई तरह से मायावी रहा, लेकिन केजरीवाल समझ गए कि दिल्ली छोड़कर भागने के लिए जनता ने उन्हें माफ नहीं किया. एक जंग छोड़कर दूसरे जंग में उतरने का नाटक बुरा और उससे भी बुरी राजनीति का प्रतीक था. लोगों को लगा कि केजरीवाल को चुनने मे जो ऊर्जा उन्होंने खर्च की थी उसे इतनी आसानी से गंवा दिया गया. आप ने जब चुनाव प्रचार का नाटक करना शुरू किया तो पार्टी सत्ता की ट्रस्टीशिप को भूल गई. लेकिन राज-पाट छोडऩे की यह चाल उसके समर्थकों को बेचैन करती रही.
बीजेपी का चुनाव प्रचार कितना ही पुख्ता क्यों न रहा हो, आम आदमी पार्टी के निराले प्रचार ने लोगों का ध्यान तो खींचा. संगरूर में पार्टी ने नशे के कारोबार को मुद्दा बनाकर उसमें नेताओं की भागीदारी उजागर कर दी. कुडनकुलम में प्रचार के दौरान परमाणु संयंत्र के विरोध का सहारा लिया गया, हालांकि तब तक दूसरा रिएक्टर तैयार हो रहा था. अमेठी में कुमार विश्वास के तेवर ने जंग का रुख तय कर दिया. उन्होंने अमेठी में संभावना की राजनीति का रास्ता खोलकर स्मृति ईरानी के प्रचार की बुनियाद डाल दी. विश्वास की प्रचार नीति पर प्रेस के हमलों का कोई असर नहीं था. उसे लगातार कवि, जोकर और मसखरा बताने वाली प्रेस प्रचार के प्रति उनकी ईमानदारी को पूरी तरह समझ नहीं पाई. केजरीवाल के प्रचार ने भी मोदी की लोकप्रियता के नाटक पर आघात किया और जाहिर कर दिया कि राजनीति में विकल्प की संभावनाएं भारत को आकर्षित करती हैं. यह भी अनुभव हुआ कि आप का भविष्य चुनावी अंतर पर टिका हुआ था.
चुनाव के नतीजे कई पार्टियों का दिल तोडऩे वाले साबित हुए. आप ने कांग्रेस को हराने का माहौल बनाने में मदद की, लेकिन चुनाव के नतीजों को बीजेपी के समर्थन में वोट माना गया. अगर अंकों को फैसले का पैमाना मानें तो भारत ने बीजेपी के लिए वोट किया था. एक पर्यवेक्षक ने सांत्वना देते हुए कहा था कि आप ने भले ही जमानत में लाखों गंवाएं हों पर गुडविल बहुत जीती है. अंकों के खेल का असर बेरहम था. विश्वास और केजरीवाल भारी अंतर से हारे. आप के नेतृत्व की जमीन हिलती नजर आई. सत्ता से खेलने वाली पार्टी ने नतीजों को इतनी गंभीरता से लिया कि पंजाब में चार सीटों पर अप्रत्याशित जीत का जश्न मनाने का जोश भी नहीं दिखा.
यह तो मानना पड़ेगा कि चुनाव के नतीजे हारने वाली पार्टियों के लिए हमेशा दुखद होते हैं. इतिहास गिनती करना बंद कर देता है और मीडिया का चहेता जल्दी ही चुप्पी के हाशिए पर सिमट जाता है. आम तौर पर पार्टियां हार के बाद छाती पीटकर मातम मनाती हैं और हार का ठीकरा फोडऩे के लिए कोई सिर तलाशती हैं. इस्तीफे महामारी की तरह फैलते हैं. आम आदमी पार्टी में भी यही हुआ. शाजिया इल्मी, अंजलि दमानिया और कैप्टन गोपीनाथ ने इस्तीफे दे दिए. ऐसा लगा कि कैप्टन गोपीनाथ के लिए कम खर्च की राजनीति चलाना कम खर्च की एयरलाइंस चलाने से ज्यादा मुश्किल था. आखिरी वार योगेंद्र यादव ने पार्टी के समितियों से इस्तीफा देकर और भीतरी लोकतंत्र के अभाव का आरोप लगाकर किया.
लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यादव ने ऐसा क्यों किया. इसकी वजह लोकतंत्र की तलाश थी, केजरीवाल की सत्ता को चुनौती थी या चुनाव नतीजों पर फूटी बौखलाहट थी? अचानक ऐसा लगा कि किसी भी दूसरे दल की तरह आम आदमी पार्टी को भी चुनाव के दिल दहलाने वाले नतीजों से उबरने के लिए कोई बहाना चाहिए. उस समय केजरीवाल भी बौखला गए और अचानक फिर दिल्ली में सरकार बनाने में दिलचस्पी दिखाने लगे. जनता के पास जाने का ऐलान कर दिया. यह फैसले की चूक थी क्योंकि इस मौके पर नैतिकता और सूझ-बूझ की जरूरत थी. बेचैन केजरीवाल के लिए जनता खेल खेलने का माध्यम नहीं हो सकती थी.
संकट मिटा, समस्या भारी
लेकिन आप की खूबी हमेशा से उसके समर्थकों की वफादारी और शक्ति में है. आप के समर्थकों की दो परतें हैं. सबसे बाहरी परत उन प्रशंसकों और आम लोगों की है जो आप को उम्मीद की नजर से देखते हैं. दूसरी परत उन अनगिनत कार्यकर्ताओं की है जिन्होंने आप की राजनीति को उम्मीद, ईमानदारी और नई सोच का रंग दिया है. उन्होंने हमेशा आक्रामक तेवर दिखाए लेकिन हमेशा सही साबित हुए, आप के लिए बहस की पर अहम पर काबू रखा. उन्होंने जो आत्मनिर्भरता और आत्मानुशासन दिखाया उसका सम्मान हुआ.
ऐसा भी लगता है कि आप के पास समझदार लोगों का एक अनौपचारिक समूह था जो ममता और चिंता के साथ आप पर नजर रखता था. सेवानिवृत्त एडमिरल रामदास, ललिता रामदास और कमल मित्र चिनॉय जैसे लोगों का ख्याल आता है जिनमें से हरेक की राजनीति के बारे में अपनी परिपक्व सोच है. उन्होंने आप के ट्रस्टी की तरह चुपचाप काम किया और उसकी खामियों का अकलमंदी से ढंका. वे जानते थे कि स्वराज का सफर आसान नहीं होगा. उन्होंने मिल-जुलकर इसे मौजूदा संकट से बाहर धकेलने और उबारने के लिए काम किया. घावों को भरते हुए , अहम को सहलाते हुए वे पार्टी के ट्रस्टी बने रहे और संकट के दौर में उसे भावी जिम्मेदारियां याद दिलाते रहे. उनके स्नेहिल हाथ ने आप को झेंपते हुए और घायल अवस्था में ही सही वापस राजनीति की कुश्ती के एक और दौर के लिए खड़ा कर दिया. मनीष सिसोदिया या यादव या केजरीवाल से ज्यादा आप पर इन दो परतों का अधिकार है जिन्होंने इसे जिंदा रखा है.
आप का संकट तो फिलहाल टल गया है लेकिन समस्याएं खत्म नहीं हुई हैं. एक तो उस पर भी कुछ हद तक यह छाप लगने लगी है कि वह दूसरे दलों से अलग नहीं है. आप को सत्ता को ट्रस्टीशिप मानने का अपना संकल्प दोहराना होगा. उसे ईमानदारी से जनता को बताना होगा कि संकट कैसा है और उससे कैसे मुक्ति पाई जाएगी. दूसरे सशक्तीकरण का वादा जनता के बाद अपने समर्थको से भी करना होगा. उसके वफादारों और आलोचकों, दोनों को आने वाली बहसों में नई भूमिका की जरूरत है. अपनी राजनीति को नए सिरे से गढऩे के लिए आप को इतिहास और नई खोज दोनों की जरूरत है. राजनीति कभी भी खोखले वादों या अलग-अलग मुद्दों पर पुरानी कथाएं दोहराने का खेल नहीं है. आप को राजनीति पर भारी मौन तोडऩा होगा. केजरीवाल के स्वराज के घोषणापत्र को अधिक ठोस रूप देना होगा और महज घोषणापत्र के दायरे से निकलकर एक पुस्तक या वास्तविक घटनाओं के संग्रह का रूप लेना होगा. आप के नेतृत्व को उसके मौजूदा नादिरशाही तिलिस्म को तोडऩा होगा और लोकतंत्र को सशक्तीकरण का हथियार बनाना होगा. अगर ऐसा नहीं हुआ तो अनगिनत आशाएं टूट जाएंगी. अगर उसने नए ढंग से और विनम्रता से नए भविष्य के लिए काम किया तो इतिहास उसका एहसान मानेगा क्योंकि भविष्य ही पार्टी, कल्पना और आविष्कार के रूप में आम आदमी पार्टी की असली पूंजी है.
