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निर्वासित तसलीमा नसरीन की जिंदगी के कुछ अनछुए पन्ने, उन्हीं की जुबानी

तसलीमा नसरीन को 1994 में अपने देश से निर्वासित होना पड़ा. फिलहाल दिल्ली में रह रहीं तसलीमा की जिंदगी के कुछ अनछुए पन्ने, उन्हीं की कलम से.

अपडेटेड 18 मार्च , 2014

अपनी जिंदगी के बीस साल मैंने निर्वासित होकर बहुत-से देशों में गुजारे हैं. हर देश में जीवन अलग तरह का रहा. भारत का जीवन यूरोप-अमेरिका से बिल्कुल अलग है. इस देश में कई बार मेरे सिर की कीमत लगाई गई, मुझ पर शारीरिक हमला हुआ, मेरी किताबों पर प्रतिबंध लगा; सरकारी, गैरसरकारी सब तरह के लोगों ने मेरे लिखे को नापसंद कर मुझ पर मुकदमा किया, मुझे राज्य से यहां तक कि एक समय देश से भी निकाल दिया गया. और वहीं इसके उलट इसी देश में मेरे पाठकों की संख्या बहुत ज्यादा है. इस मुल्क के लोग मुझे जिस तरह मार देना चाहते हैं, उसी तरह प्यार भी करते हैं. जो लोग मुझे प्यार करते हैं, वे बहुत साधारण लोग हैं. इस देश में जितना आनंद है, उतना ही डर भी है. पश्चिम में कुछ भी नहीं है, न आनंद और न डर. किसी ने मुझसे पूछा था, भला इतना जोखिम उठाकर मैं इस देश में क्यों रहती हूं? मैंने जवाब दिया था, ‘‘क्योंकि मैं यहां के सब पेड़-पौधों का नाम जानती हूं.’’

इतनी घृणा पाई है, इतने आघात, इसके बावजूद यह देश बहुत अपना लगता है. बहुत से लोग मुझसे पूछते हैं कि मैं किस तरह दिन बिताती हूं? दिन बीत जाते हैं. हजारों काम हैं, करने का समय ही नहीं है. कुछ पढ़ती हूं तो लिखना रह जाता है, लिखती हूं तो पढऩा रह जाता है. जिंदगी भर इतनी किताबें खरीदी हैं, उन्हें कब पढूंगी? यह सोचकर ही सिहर उठती हूं. एक जिंदगी में तो यह संभव नहीं है. जानती हूं मर जाऊंगी एक दिन, फिर भी जीने की बहुत चाह है. विश्व-ब्रह्मांड में कितना कुछ घटेगा और वह सब मैं नहीं देख पाऊंगी, यह सोचकर ही मन खराब होता है.  

यहां भारत में घर में बैठकर लिखना-पढऩा ही मेरा मूल काम है. यूरोप-अमेरिका में तो सब काम अपने आप ही करना पड़ता था. यहां तो फिर भी घर पोंछने, बर्तन धोने आदि के लिए मदद मिल जाती है. इससे पढऩे-लिखने के लिए ज्यादा वक्त मिल जाता है. लेकिन हर समय तो लिखने-पढऩे का भी मन नहीं करता. घर से बाहर खास कहीं जाने की जगह नहीं है. ऐसा तो है नहीं कि सड़क पर चलूंगी और फेफड़ों में शुद्ध हवा भरूंगी, ब्रॉडवे म्युजिकल देखूंगी, लिंकन सेंटर जाऊंगी, किसी बेहतरीन कैफे में बैठूंगी और किसी बहुत बढिय़ा रेस्तरां में खाना खाऊंगी. यहां बाहर हवा दूषित है, चलने-फिरने का उपाय नहीं. बहुत बार निकली हूं तो लंग्स में इंफेक्शन हो जाता है. मेरा ज्यादातर भारत से बाहर ही जाना होता है. अकसर विभिन्न कार्यक्रमों में वक्तव्य देने यूरोप-अमेरिका जाती हूं. मूलतः मानवता, नारी-स्वाधीनता आदि विषयों पर बोलने के लिए आमंत्रण मिलते हैं. बहुत दिनों से कहीं कोई कविता नहीं पढ़ी. बंगाल में रहने के दौरान यह सब बहुत होता था. कविता दिन-पर-दिन जीवन से दूर होती जा रही है.

विदेश से एक और जो फर्क है, वह है मछली का. विदेश में बर्फ में रखी देसी मछलियां खरीदनी पड़ती थीं और यहां ताजी. मछली-भात के बिना बंगालियों का काम चलता नहीं. अकसर ही बंगाली मछली खरीदने जाती हूं. दिल्ली कलकत्ता जैसी नहीं है. दिल्ली के बंगाली इलाके को कलकत्ते का मानिकतला या गडिय़ाहाट समझने से निश्चित ही भूल होगी. मैं एक बार में ही बहुत सारी मछलियां खरीदकर फ्रिज में रख देती हूं और फिर धीरे-धीरे उन्हें खाती हूं. कुछ लोग होते हैं, जो दूसरों को खिलाना पसंद करते हैं, मैं उनमें से एक हूं. जब मैं कलकत्ता में थी, मेरे घर के दरवाजे सबके लिए खुले रहते थे. यह आतिथ्य-सत्कार किससे सीखा था मैंने? निश्चित ही अपनी मां से.
तसलीमा नसरीन
बहुत से लोग सोचते हैं कि चूंकि मेरी गृहस्थी पति और बच्चों की नहीं है, इसीलिए मैं बहुत अकेलापन महसूस करती होऊंगी. मैं अकेली रहती हूं पर इसका मतलब यह नहीं कि मैं अकेलेपन से पीड़ित हूं. यह बात मेरे हजारों बार समझाने पर भी लोग नहीं समझते. मैं लिखती हूं, पढ़ती हूं, सोचती हूं और इन सब बातों को लेकर व्यस्त रहती हूं. इन सबको लेकर रहती है? वो भी ‘‘औरतजात’’? ऐसा भी क्या है?  लिखने-पढऩे के काम का मतलब है बुद्धि का काम. यह तो पुरुषों को ही जंचता है. यह काम औरतों के लिए नहीं है. मैं लिख रही हूं, पढ़ रही हूं, सोच रही हूं, यह लोगों को उतना मुग्ध नहीं करता है, जितना कि ‘‘मैं खाना बना रही हूं’’ करता है. अब तक यह माना जाता है कि खाना बनाना ही औरतों की सबसे बड़ी प्रतिभा है. मैं अकसर खाना पकाती हूं. खासकर जब कभी बढिय़ा मछली मिल जाए तो. मांस-मछली खाती हूंजरूर, लेकिन साग-सब्जियां भी बहुत पसंद हैं. शाकाहारी जितना खाते हैं, उनसे भी ज्यादा. खुद ही जाकर सब्जियां खरीदती हूं. सच कहूं तो इस शहर में मछली बेचने वाले, सब्जीवाले, चायवाले सब मेरे दोस्त हैं. कलकत्ता में भी ऐसा ही था. ये लोग मुझे दीदी, दीदी कहकर घेर लेते हैं. असल में देश-विदेश सब जगह साधारण लोग ही मेरे दोस्त होते हैं. बड़े लोगों से मेरी बनती नहीं है.

दिल्ली-कलकत्ता में बहुत पर्टियां होती हैं. कुछ लोगों ने मुझे कलकत्ता में पार्टियों में बुलाया था, पर जाकर देखा, अच्छा नहीं लगा. पार्टी-वार्टी मेरे लिए नहीं है. मैं जल्दी जाने और जल्दी आने के पक्ष में हूं. लेकिन लोग देर रात पार्टियों में जाते हैं, शराब पीते हैं और खा-पीकर लौटते-लौटते सुबह कर देते हैं. मैं शराब नहीं पीती. शराबियों के साथ बुद्धिहीन बातें करना मुझे पसंद नहीं. दिल्ली में किसी भी पार्टी में मुझे बुलाया नहीं जाता. बड़े लोगों के घरों में अंग्रेजी बोलने वाले एलीट वर्ग की पार्टियों में मैं शोभा नहीं देती. मैं मध्यवर्गीय लोगों के साथ भी फिट नहीं बैठती क्योंकि मेरी मानसिकता उनसे भी मेल नहीं खाती. दरअसल मैं किसी भी श्रेणी में फिट नहीं बैठती क्योंकि मैं श्रेणी या वर्ग जैसी चीज को पसंद ही नहीं करती. मेरे अंदर किसी भी वर्ग का चरित्र नहीं है. मैं श्रेणियों से बाहर की इंसान हूं. अगर मैं धर्म से बाहर की इंसान हूं, पुरुषतांत्रिक संस्कृति से बाहर की इंसान हूं तो स्वाभाविक रूप से समाज के बाहर की इंसान हूं. वैसे इस तरह जिंदा रहना आसान नहीं पर हर दिन यह कठिन काम करती जा रही हूं.
तसलीमा नसरीन
कितनी दूर हूं अपने देश से. बंगाल से दूर हूं. कोई नाते-रिश्तेदार नहीं, कोई दोस्त भी नहीं. हर समय लिखते रहना भी अच्छा नहीं लगता. मेरे साथ बस मेरी बिल्ली रहती है. कभी-कभी लगता है कि इंसान से बिल्ली ही बेहतर है. पर फिर अचानक लोगों से भी मिलने का बहुत मन करता है. पर किसी से भी नहीं, अच्छे, दानिशमंद लोगों से, जिनके साथ किसी विषय पर बात की जा सके. पर ऐसे लोग हैं कहां? ज्यादातर लोग या तो धर्म में आस्था रखने वाले या कुसंस्कारी हैं. नारीविरोधी, पुरुषतांत्रिक या फिर स्वार्थी और कूपमंडूक. ऐसे लोगों के साथ वक्त बर्बाद करने से अच्छा है लिखना-पढऩा या फिर ट्वीट करना. ट्विटर पर बुद्धिमान लोगों के साथ विचारों का आदान-प्रदान होता है. मैंने गौर किया है कि इधर-उधर के फालतू लोगों से बात करके वक्त बर्बाद करने से अच्छा है, सोशल नेटवर्किं ग से जुड़े रहना. थोड़े समय में दुनिया की खबरों को लेकर तरह-तरह के लोगों के विचार जाने जा सकते हैं. अपने विचार भी बताए जा सकते हैं. कोई सेंसरशिप नहीं है. मेरे लिए ट्विटर, फेसबुक और ब्लॉग बहुत जरूरी हैं क्योंकि मेरे लिखे को अकसर निषिद्ध कर दिया जाता है. ज्यादातर विभिन्न विषयों पर मेरे विचार और लोगों से अलग होते हैं, जिसे प्रकाशित करने के लिए मेरे पास कोई जरिया नहीं है. डर से कोई भी मेरा लिखा छापना नहीं चाहता है. उन्हें डर है कि सरकार नाराज हो जाएगी, क्योंकि सरकार हर वक्त मुस्लिम कट्टरपंथियों को खुश करना चाहती है, क्योंकि वे मुझे दुश्मन समझ्ते हैं. अंग्रेजी में ‘‘नो कंट्री फॉर विमेन’’ नाम से ब्लॉग लिखती हूं और बांग्ला में ‘‘मुक्तचिंता’’ नाम से. पत्रिकाओं में लिखते वक्त मुझे यह कहकर सतर्क किया जाता है कि धर्म का ‘ध’ भी नहीं होना चाहिए. मैं लगभग हर दिन ट्वीट करती हूं, ब्लॉग लिखती हूं, दो-तीन लेख लिखती हूं, कभी कविताएं तो कभी कहानियां. कुछ दिनों में एक नया उपन्यास शुरू कर रही हूं. इस तरह दिन कट जाते हैं और रात भी. रातों को जागकर लिखने का अभ्यास बढ़ गया है. कुछ दिन पहले पश्चिम बंगाल में मेरे लिखे एक मेगासीरियल के शुरू होने की बात थी. लेकिन सरकार ने धमकी दी कि अगर टीवी चैनल इस सीरियल का प्रचार करता है तो सर्वनाश हो जाएगा. अब डर से चैनल उसे नहीं दिखा रहा है.

कभी-कभी सोचती हूं कि मैं तकरीबन 40 किताबें लिख चुकी हूं. बहुत हुआ. बस अब दुनिया के रास्तों पर निकल पडूं. बाकी जिंदगी घर में बैठकर लिखते-लिखते अचानक ही किसी दिन मर गई तो! बहुत कुछ नहीं देखा है अब तक. वह सब देखे बगैर मरने की सोच भी नहीं पाती.

मेरा कोई देश नहीं, कोई घर नहीं. दूसरों के फ्लैट में रहती हूं. किसी दिन कोई भी मार देगा या सरकार निकाल देगी. जीवन में कुछ निश्चित नहीं है. न रहे! जहां भी रहूं, जिस भी देश में, अपने मन की बात लिखूंगी. इस एक जीवन में बहुत-से पुरस्कार मिले. बहुत प्यार और सम्मान मिला. और कुछ नहीं चाहिए. जो भी नफरत मिली, वह दरअसल अच्छी बातें कहने के लिए ही मिली है. धार्मिक कट्टरपंथी और नारी विरोधी अपशक्तियों से घृणा पाना एक बहुत बड़ा पुरस्कार है.
तसलीमा नसरीन
दिल्ली से बाहर जाने का कोई उपाय नहीं है. चौबीसों घंटे पुलिस का पहरा है. इस सुरक्षा व्यवस्था के लिए मैं भारत सरकार की कृतज्ञ हूं. जब घर से निकलने का मन करता है तो दिल्ली में ही घूम-फिर लेती हूं. सबसे मजा आता है जनपथ की सड़कों पर बंदरों को केले खिलाने में. सड़क पर भिखारियों को देखकर बहुत दुख होता है. उनको रुपए देती हूं. पर मेरे रुपयों से क्या उनकी दुर्दशा कम होगी? मुझे फैंसी शॉपिंग सेंटर बिल्कुल पसंद नहीं. फैंसी चीजें भी नहीं. कपड़े-लत्ते, जूते खरीदने की जरूरत पडऩे पर सरोजिनी नगर मार्केट जाती हूं और वहीं से जरूरत की चीजें सस्ते में खरीदती हूं. हमेशा से ही महंगी और डिजाइनर चीजों से दूर रही हूं.

इस शहर में रहती हूं, लेकिन शहर या देश अब मेरे लिए सिर्फ ईंट, लकड़ी या पत्थर का घर नहीं है. देश का मतलब मेरे लिए लोग हैं, वे लोग जो मुझे प्यार करते हैं, जिन्हें मैं प्यार करती हूं.

कलकत्ता का मेरा घर
घर तुम कैसे हो?
क्या अकेले हो खूब?
मैं भी खूब अकेली, मैं भी तो
डर नहीं लगता रात में? .....
चीन्ह पाते हो मुझ अंधेरे में
पैरों की आवाज लेते हो पहचान?
घर रखना ध्यान मेरे लिखने वाले कमरे का
सबकुछ तो है उसी में
लिखना ही है जीवन....
वह सब छोड़कर कैसे रह सकती हूं भला!
मन-ही-मन अशरीरी घूमती-फिरती
छोड़े हुए दरवाजों में
गिरा आती आंखों का जल
बरामदे के पौधों में दे दे जो पानी
ऐसा कोई भी तो नहीं
आंखों के जल से नहीं बचेंगे पौधे
मेरी आंखों में है नदी भर जल,
कहो तो भेज दूंगी एक समुद्र बराबर
घर तुम बचे रहना
तुम्हें छोड़कर लगता नहीं मन
निर्वासन में एक भी पल.

पिता को पत्र
बाबा कैसे हो तुम?
क्या पहले की तरह अब भी
सैर करने निकलते हो ब्रह्मपुत्र के किनारे?
अब जबकि पानी ही नहीं बचा
तब तुम ब्रह्मपुत्र में क्या देखते हो?.....
क्या वे लोग अब भी तुम्हारी तरफ बढ़ आते हैं
जान-पहचान वाले लोग? दोस्त?
या फिर दो-चार पड़ोसी?
या इस धर्मद्रोही लड़की को
पैदा करने के अपराध में
तुम्हें चलना पड़ता है सिर झुकाकर
पेड़-पौधों की आड़ में,
लोगों की गिद्घ दृष्टि से बचते.....
तुम्हारे लिए बड़ा दुख होता है मुझे....
बाबा तुम टूट मत जाना
जिस तरह तुमने मुझे सिखाया था
रीढ़ सीधी करके खड़े रहना
वैसे ही खड़े रहना तुम,
आज हम भले ही हार गए हों
लोग बरसा रहे हों हमारी पीठ पर कोड़े
लेकिन एक दिन देखना तुम्हारा गांव भी
धान, पाट, फल और सब्जी से खुशहाल होगा
धन-दौलत नहीं, सम्मान नहीं
तुम्हीं बताओ, हमारे सीने में एक निष्कलंक स्वप्न के सिवा और है ही क्या?

कत्थई किताब
सुबह-सुबह एक अदरकवाली चाय के बिना
मेरा दिन अच्छा नहीं बीतता
ऑपरेशन थिएटर में दो-चार अधमरे
रोगियों को नाप-नापकर देती हूं दवा
ऑक्सीजन, नाइट्रस ऑक्साइड, हालोथेन
पेथिड्रिन दूं कि नहीं ये सोचते हुए
बार-बार टटोल लेती हूं मरीज की नब्ज
बाएं हाथ की नस में सेलाइन चढ़ा देती हूं
जरूरत पड़ी तो दाहिने हाथ में खून की बोतलें
ऐसे ही कट जाती है सारी दोपहर
’’’’’
शाम को शहर का एक चक्कर लगाए बिना
मन उदास रहता है
उसके बाद गाना सुनना, अड्डेबाजी या फिर
अकेले कमरे में लिखना-पढऩा आधी रात तक
जब थकी हुई देह फैला लेती हूं बिस्तर पर
तब मन करता है कोई हाथ बढ़े
थाम ले मेरा चेहरा
कोई होंठ चूम ले मेरे होंठों को
एक गहरे चुंबन के बिना नहीं कट पाती
अच्छी तरह मेरी रात

(परिकल्पना: मनीषा पांडेय और बांग्ला से अनुवादः अमृता बेरा)

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