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वे तो जिंदगी से ही लॉगआउट करने लगे

आइटी कर्मियों के लिए पिंक स्लिप जान पर जोखिम पैदा कर रही है

अपडेटेड 9 सितंबर , 2013
भारत की सिलिकॉन वैली माने जाने वाले बंगलुरू को नया मगर जायका बिगाड़ देने वाला खिताब हासिल हो रहा है. यह खिताब है भारत में आत्महत्याओं की राजधानी होने का. एक्सीडेंटल डेथ्स ऐंड सुइसाइड इन इंडिया 2012 की रिपोर्ट बताती है कि पिछले साल नौकरियां हाथ से निकलने और बेरोजगारी की वजह से यहां 89 लोगों ने जीवनलीला समाप्त कर ली. 2011 में यह आंकड़ा 47 का था.

नौकरी से बर्खास्त होने पर या नौकरी गंवाने के डर से टेक्नोलॉजी कर्मी खुदकुशी का रास्ता चुन रहे हैं. इनमें ज्यादातर छोटी कंपनियों में काम करने वाले हैं. चिंता की बात यह है कि ऐसे हालात सिर्फ बंगलुरू के ही नहीं हैं. धृति अस्पताल की ओर से इस महीने हैदराबाद में 127 सॉफ्टवेयर प्रोफेशनल्स के सैंपल साइज पर किए गए सर्वेक्षण से पता चला है कि:

उनमें से 16 को हाल ही में उनकी नौकरियों से निकाला गया था.
उनमें से 10 के मन में आत्महत्या के छिटपुट विचार आए थे.
चार टेक्निकल एक्सपर्ट पहले भी आत्महत्या की कोशिश कर चुके थे.

हैदराबाद की कन्सल्टेंट साइकिएट्रिस्ट डॉ. पूर्णिमा नागराज कहती हैं, ''पिछले चार साल से हम देख रहे हैं कि यहां आने वाले टेक्निकल कर्मियों में नौकरी की असुरक्षा, काम के दबाव से पैदा होने वाली बेचैनी आम बात हो गई है. वे कंपनियों की कॉस्ट कटिंग वाली प्रवृत्ति से तालमेल नहीं बिठा पा रहे हैं.

एक बार अगर इन प्रोफेशनल्स को बिना काम के बैठा दिया जाए तो यह वैसा ही है जैसे आपकी नौकरी जा चुकी हो. इसलिए बहुत से टेक्निकल एक्सपर्ट जो आसानी से नौकरियां बदल लिया करते थे, अब बमुश्किल अपनी नौकरी बचाए हुए हैं.”

नौ महीने तक बेरोजगार रहे एक सॉफ्टवेयर प्रोफ्रेशनल ने इंडिया टुडे को बताया कि उसने आत्महत्या करने के सबसे कम दर्द पहुंचाने वाले तरीके पर काफी खोज-पड़ताल भी की. उसी के शब्दों में, ''यह खयाल हमेशा हमारे दिमाग में आता रहता था कि हम अपनी नौकरी गंवा सकते हैं.

हम जिन प्रोजेक्ट्स पर काम कर रहे थे, उनके पूरे होने पर अगर हमें रिन्यूअल नहीं मिला तो हमें नौकरी से निकाल दिया जाएगा. मैं नौ महीने बेकार बैठा रहा और फिर अपनी मूल कंपनी में लौट आया. मैं कर्ज में भी डूबा था और खासा डरा हुआ था.”

बंगलुरू के रेडियो स्टेशन पर एक कॉल-इन टॉक शो की मेजबानी करने वाले साइकिएट्रिस्ट डॉ. श्याम भट्ट इस तथ्य को चिंता का सबब मानते हैं कि ज्यादातर फोन युवाओं के होते हैं. बंगलुरू जैसा शहर पूरे देश के युवाओं को चुंबक की तरह खींचता है और ये युवा प्राय: अपने परिवार से दूर तनहा जिंदगी बसर करते हैं.

ऐसी स्थिति में जब वे अपने वर्कप्लेस पर तनाव का सामना करने में असमर्थ होते हैं तब उनकी मुश्किलों को कम करने के लिए उनके पास परिवार का भी सहारा नहीं होता.

हैदराबाद के ही एक अन्य कन्सल्टेंट साइकिएट्रिस्ट डॉ. निरंजन रेड्डी कहते हैं, ''मैं ऐसे बहुत-से लोगों से मिलता हूं, जिनकी नौकरियां छूट गई हैं. वे शायद एक लाख रु. तनख्वाह पाते रहे हों लेकिन अचानक एक दिन वे बेरोजगार हो जाते हैं. लाचारी की ऐसी स्थिति में उन्हें यह नहीं पता होता कि अब किया क्या जाए. जिनके पास आत्मसम्मान और आत्मविश्वास की कमी होती है वे इसे संयत ढंग से नहीं ले पाते.”

पिछले चार साल में हैदराबाद, चेन्नै और बंगलुरू जैसे शहरों में परामर्श के लिए आने वाले टेक्नोलॉजी एक्सपर्ट की संख्या में 8 से 10 फीसदी तक का इजाफा हुआ है. यह इस बात की ओर साफ इशारा है कि इस युवा वर्ग के बहुत-से लोग अपने वर्कप्लेस के पूरे परिवेश से कटा हुआ-सा महसूस कर रहे हैं.

हैदराबाद की हेल्पलाइन रोशनी के पास सैकड़ों ऐसे फोन आते हैं, जिनमें आत्महत्या के इरादों से पीछा छुड़ाने के लिए मदद की मांग की जाती है. रोशनी की कन्सल्टेंट साइकिएट्रिस्ट डॉ. सुचरिता कहती हैं, ''वे परिवार वाले, कर्जदार और समाज में अच्छी तरह स्थापित लोग होते हैं.”

कॉर्पोरेट घरानों ने भी समस्या की गंभीरता को महसूस किया है. पिछले दो साल में कॉर्पोरेट घरानों की ओर से काउंसलर्स की सेवाएं लेने में 15 से लेकर 20 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है. यूनियन फॉर आइटी एनेबल्ड सर्विसेज इंडिया की बंगलुरू इकाई के महासचिव कार्तिक शेखर कहते हैं, ''कंपनियों के पास कुछ फोरम अवश्य होने चाहिए. कर्मचारियों को थोड़ी राहत दें. काम और जिंदगी में एक संतुलन होना चाहिए.” लेकिन जब पूरी अर्थव्यवस्था ही डावांडोल हो रही हो तो यह संतुलन कहां से आए.
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