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कांग्रेस: बदलते वक्त के साथ कदमताल की कोशिश

2014 में होने वाले आम चुनावों के लिहाज से खुद को अधिक जवाबदेह और आधुनिक पार्टी में तब्दील करने के लिहाज से जयपुर चिंतन के दूरगामी नतीजे संभावित.

राहुल गांधी और सोनिया गांधी
राहुल गांधी और सोनिया गांधी
अपडेटेड 26 जनवरी , 2013

शशि थरूर को आखिरकार कामयाबी मिल ही गई. दो साल पहले जब वे विदेश मंत्रालय में राज्य मंत्री थे तो वे जो भी कदम उठाते, उसे ट्वीट कर देते और इस पर उनकी खिंचाई हो जाती. आज समूचा कांग्रेसी नेतृत्व अपना बोरिया-बिस्तर संभाले जयपुर में है जहां उन्हें उन तरीकों को ढूंढने के लिए माथापच्ची करनी है कि वे सोशल मीडिया पर खुद को कैसे सक्रिय रखें और संवेदनशील तथा सक्रिय दिखें. टेक्नोलॉजी तो महज एक जरिया है. पार्टी को एक ऐसे संदेश की जरूरत है जिससे वह राजनीतिक तौर पर जागरूक युवाओं और गुस्सैल महिलाओं तक पहुंच सके.

इसमें जबरदस्त विडंबना है: कांग्रेस में आज भी अध्यक्ष एक महिला हैं और एक यूथ आइकन इसके भावी नेता हैं. लेकिन अभी हाल में दिल्ली में जिस तरह एक युवा महिला के साथ गैंग रेप हुआ और उसे यातनाएं दी गईं, उस मुद्दे पर दूसरी पार्टियों की ही तरह कांग्रेस भी नाराज भारत को शांत नहीं कर पाई. सड़कों पर जो भीड़ उमड़ी उसमें ज्यादातर महिलाएं और नौजवान थे. देर से ही सही मगर पार्टी के वफादार कार्यकर्ता ‘पहले होगा नारी सम्मान, फिर होगा भारत निर्माण’ जैसे नए आकर्षक नारे गढऩे में जुटे हैं. 2014 के चुनावों के लिहाज से चिकनी-चुपड़ी बातों का दौर शुरू हो गया है. सब्सिडी वाले सिलेंडर की संख्या 6 से बढ़ाकर 9 करना इसकी ताजा कड़ी है.

हाल में सूचना प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने यूआइडीएआइ के अध्यक्ष नंदन नीलेकणि के साथ एक घंटे का समय इस मुद्दे पर चर्चा में बिताया कि सोशल मीडिया के मामले में सरकार किस तरह जवाबदेह हो सकती है. एक सलाह आई कि मंत्रियों को विभिन्न सरकारी फैसलों के बारे में ट्वीट करना चाहिए क्योंकि शहरी भारत में ट्विटर ही सूचना के पहले स्रोत के रूप में तेजी से उभर रही है. इससे उत्साहित पर्यटन मंत्रालय ने जयपुर में 18-19 जनवरी को चिंतन शिविर से ऐन पहले 16 जनवरी को सोशल नेटवर्किंग साइट पर शुरुआत कर दी.Congress

तिवारी ने हाल में मीडिया को बताया, ‘‘सोशल मीडिया को नजरअंदाज करने से हमारा ही नुकसान होता है.’’ यह भी इतना ही दिलचस्प है कि चिंतन शिविर में सोशल मीडिया पर बातचीत को राजनैतिक चुनौतियों के सत्र में शामिल किया गया है. अण्णा हजारे, अरविंद केजरीवाल के आंदोलनों और दिल्ली बलात्कार कांड के बाद विरोध प्रदर्शनों की वजह से कांग्रेस ने सोशल मीडिया की ताकत पहचानी है. हजारे का आंदोलन जब ऊंचाई पर था तब तत्कालीन सूचना और टेक्नोलॉजी मंत्री कपिल सिब्बल ने सोशल मीडिया पर काबू करने की कोशिश की थी, लेकिन उनकी यह तदबीर उलटी पड़ गई, और सरकार की लोकप्रियता खासी घट गई. ऐसा लगता है कि समय के साथ चलने वाले मनीष तिवारी ने इससे सीख ली है और उनकी दलील है कि सरकार सोशल मीडिया को अपनाए, भगाए नहीं.

कांग्रेस नेताओं में जयपुर में सबसे पहले महिला सशक्तिकरण के मुद्दे पर चर्चा के लिए सहमति बनी जबकि पहले यह तय किया गया था कि कल्याणकारी योजनाओं से होने वाले बदलाव पर चर्चा होगी. पार्टी की एक सांसद के मुताबिक,  ‘‘ऐसा नहीं है कि कांग्रेस महिलाओं के लिए पर्याप्त कार्य नहीं करती रही है.’’ उनका कहना है, ‘‘खुद सोनिया गांधी महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण को बढ़ावा देती रही हैं. हमने ही घरेलू हिंसा, कृषि संपत्ति में महिलाओं के उत्तराधिकार के विधेयक पास किए. समस्या यह है कि ये विधेयक जल्दबाजी में पारित कर दिए जाते हैं. हमने जो कुछ भी किया है, उन पर समन्वित तरीके से एक मंच पर विचार होना चाहिए.’’

ज्यादातर कांग्रेसी नेता निजी तौर पर यह मानते हैं कि यूपीए ने अपनी साख इसलिए खोई क्योंकि त्वरित कार्रवाई नहीं हो सकी. कांग्रेस में अब महिलाओं के खिलाफ अपराधों पर झटपट कार्रवाई और कड़ी सजा को लेकर जोर है. इसे यूं भी कहा जा सकता है कि गहरे जख्म को बैंड-एड से ढकने की कोशिश की जाएगी.

मनमोहन सिंह ने 19 मई, 2009 को दोबारा कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुने जाने के फौरन बाद कहा था, ‘‘अधीर होना युवाओं के स्वभाव में है. वे काम-काज के सामान्य तरीके को बर्दाश्त नहीं करेंगे. वे हमसे नई ऊर्जा के साथ काम करने की उम्मीद करते हैं.’’ लगभग चार साल बाद भी उनकी सरकार को नई ऊर्जा की तलाश है.

केंद्र में यूपीए ने अपनी छवि भी बेहतर बनाने की कोशिश नहीं की. मनमोहन सरकार ने तीन साल बाद आखिरकार अक्तूबर 2012 में मंत्रिमंडल में फेरबदल के समय ज्योतिरादित्य सिंधिया, तिवारी और सचिन पायलट को स्वतंत्र प्रभार सौंपा. हालांकि प्रधानमंत्री ने इस फेरबदल को ‘‘युवा और अनुभव्य’ का मेल करार दिया, लेकिन देश में युवाओं की आबादी के मद्देनजर काफी लोगों ने इसे पर्याप्त करार नहीं दिया.

एफडीआइ के बाद सुधारवादी आवाजों को आखिरकार एक मंच मिल रहा है. कांग्रेस के दान-भत्ते की पारंपरिक राजनीति से अलग हटने के संकेत को पार्टी महासचिव दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में एक समूह द्वारा सामाजिक आर्थिक चुनौतियों पर तैयार किए गए पेपर में देखने को मिलेगा. इस पेपर में सुधार और लोकलुभावनवाद में सही संतुलन की बात कही गई है. यह संतुलन पारंपरिक प्रार्थी भारत और आक्रामक युवा वोट बैंक के बीच में है.

मुद्दा सिर्फ नई नीतियां बनाने का नहीं है, बल्कि नेताओं को भी बदलते भारत के अनुरूप खुद को बदलना होगा. दिल्ली में हाल ही में हुए विरोध प्रदर्शनों के दौरान राहुल गांधी ने प्रदर्शनकारियों से सिर्फ एक बार मुलाकात की. मुद्दा चाहे बलात्कार का हो या भारतीय जवान का सिर कलम कर देने का हो, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को प्रतिकिया देने में कई दिन लग गए. जनता की चिंता करने वाले और उनके साथ हमदर्दी रखने वाले की छवि बनाने की खातिर जयपुर में फौरन प्रतिक्रिया जताने वाले नेतृत्व की जरूरत पर भी विचार-विमर्श होगा.

1976 में जब युवा कांग्रेस का शिविर लगा था तो प्रगति मैदान में एक गांव ही  बसा दिया गया था, सभी प्रतिनिधियों के केवल भोजन के लिए तीन विशालकाय हॉल बने थे. तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी डिनर के लिए शिविर पहुंची थीं. उस समय की युवा कांग्रेस की अध्यक्ष अंबिका सोनी बताती हैं, ‘‘मुझे याद है कि श्रीमती गांधी तीनों डानइनिंग हॉल में गईं. उन्होंने उस रोज सबका साथ देने के लिए तीन रोटियां खाईं-इतना उन्होंने कभी नहीं खाया.’’ जिम्मेदार नेतृत्व के लिहाज से उनके पोते के लिए इससे अच्छा सबक नहीं हो सकता.

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