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उत्तराखंड: कौन है मूल निवासी?

मूल निवासी के सवाल पर उत्तराखंड के दो प्रमुख राजनैतिक दलों में फूट.

अपडेटेड 13 जनवरी , 2013

उत्तराखंड का मूल निवासी कौन? यह विवाद इस राज्य के गठन के समय से ही जारी है. पिछले दिनों प्रदेश की संसदीय कार्यमंत्री इंदिरा हृदयेश ने यह बयान देकर एक बार फिर इसे हवा दे दी कि राज्य के गठन के समय उत्तराखंड में रह रहे लोग ही यहां के मूल निवासी माने जाएंगे.

हरिद्वार से भाजपा विधायक आदेश चौहान के सवाल के जवाब में इंदिरा हृदयेश ने सदन में कहा कि राज्य गठन की तारीख 9 नवंबर, 2000 तक राज्य में बस चुके सभी लोगों को राज्य का मूल निवासी माना जाएगा. इस घोषणा से राज्य गठन के समय तक दूसरे प्रदेशों से आकर राज्य के मैदानी जिलों में बसे लाखों लोगों को अब सरकारी नौकरियां पाने और आरक्षण का लाभ लेने का रास्ता मिल गया है. यही विवाद की जड़ है.

एक दशक से चल रहे विरोध और समर्थन के बावजूद अब तक आईं चार सरकारें इस मुद्दे पर कोई फैसला नहीं कर पाईं. 17 सितंबर, 2012 को उत्तराखंड हाइकोर्ट के न्यायाधीश सुधांशु धूलिया की एकल पीठ ने मूल निवास और जाति प्रमाण के मामले में दायर आधा दर्जन से अधिक व्यक्तिगत याचिकाओं पर निर्णय देते हुए कहा कि राज्य गठन के समय तक स्थायी रूप रह से रहे लोगों को यहां का मूल निवासी माना जाएगा.

आदेश में साफ  किया गया है कि संवैधानिक आदेश 1950 के तहत जिन जातियों को एससी/एसटी/ओबीसी की श्रेणी में रखा गया है, अगर वे राज्य गठन से पूर्व उत्तराखंड में बसे हैं तो उन्हें राज्य की किसी भी सुविधा से वंचित नहीं किया जा सकता. मूल निवासी का अर्थ यह नहीं है कि जिसके पूर्वज भौगोलिक क्षेत्र उत्तराखंड में रहते हों, वही यहां का मूल निवासी होगा, बल्कि इसका आशय प्रथम प्रेसिडेंशियल आदेश के समय 1950 में समस्त उत्तर प्रदेश में बसे लोगों से है.uttrakhand

अदालत के आदेश और मंत्री की घोषणा के बाद राजनैतिक दल और आंदोलनकारी संगठन भड़क गए हैं. वहीं पिछले तीन दशक के दौरान देहरादून, हरिद्वार, ऊधमसिंह नगर और नैनीताल में बसे लाखों लोग इस फैसले से राहत महसूस कर रहे हैं.

सबसे बड़ी राहत तो उन छात्रों को मिली है, जिनका जन्म और पढ़ाई उत्तराखंड में हुई लेकिन वे प्रतियोगी परीक्षा में भाग लेने से सिर्फ इसलिए वंचित रहे क्योंकि उनके पास जाति और स्थायी निवास प्रमाण पत्र नहीं था. मनीषा भारती, ज्योत्सना जैसे अनेक ऐसे छात्र भी इससे वंचित रहे, जिन्हें जाति प्रमाण पत्र हासिल करने के लिए हाइकोर्ट तक लड़ाई लडऩी पड़ी.

सरकार की इस घोषणा से गुस्साए राजनैतिक दल और संगठन सड़कों पर आंदोलन कर रहे हैं. यूकेडी (पी) ने सरकार के आदेश के खिलाफ 13 दिसंबर को विधानसभा के बाहर उपवास और 16 से 24 दिसंबर तक विधायक आवास का घेराव किया.

यूकेडी (पी) के अध्यक्ष त्रिवेंद्र ङ्क्षसह पंवार कहते हैं, ''सभी राज्यों के लिए मूल निवासी होने की सीमा वर्ष 1950 तय है, लेकिन सरकार ने यह सीमा 2000 कर दी. यह राज्य के वास्तविक मूल निवासियों की अनदेखी है. '' यूकेडी ने भाजपा-कांग्रेस विधायकों को घेरकर इस मुद्दे को सदन में उठाने का वायदा भी लिया है. भाजपा-कांग्रेस के कई नेता इस मुद्दे पर आंदोलनकारियों के साथ जुड़ रहे हैं.

भाजपा नेता और राज्य आंदोलनकारी सम्मान परिषद के पूर्व उपाध्यक्ष रवींद्र जुगरान कहते हैं, ''सरकार ने यह फैसला बिल्डरों, भू माफिया, शराब और खनन माफिया को बैकडोर से फायदा पहुंचाने के लिए किया है. ''

भाजपा-कांग्रेस के मैदानी जिलों के विधायक सरकार की घोषणा और कोर्ट के आदेश से खुश हैं जबकि पहाड़ी जिलों के विधायक इस फैसले के खिलाफ  हैं. दोनों पार्टियां साफ -साफ कुछ भी कहने से बच रही हैं. बावजूद इसके जहां भाजपा प्रवक्ता सतीश लखेड़ा ने कहा कि सरकार को राज्य गठन की अवधारणा के मुताबिक निर्णय करना चाहिए, वहीं हरिद्वार से भाजपा विधायक आदेश चौहान ने कहा कि यह निर्णय तो पहले होना चाहिए था.

पूर्व संसदीय कार्यमंत्री और भाजपा नेता प्रकाश पंत ने मूल निवास के मुद्दे पर हो रही राजनीति को प्रदेश को बांटने वाला कदम करार दिया. बकौल पंत, ''राज्य गठन के लिए संसद में पेश किए बिल के दौरान राज्य में मूल निवासी के लिए कट ऑफ  डेट पर निर्णय नहीं हो पाया था. '' वहीं इंदिरा हृदयेश कहती हैं कि राज्य में पैदा हुए और बढ़े सभी बच्चे प्रमाण पत्र पाने के हकदार हैं.

विरोध के साथ फैसले का स्वागत भी हो रहा है. उत्तरांचल संयुक्‍त सर्व समाज के प्रदेश अध्यक्ष कुंवर जपेंद्र्र सिंह कहते हैं, ''इस फैसले का विरोध उत्तराखंड के विकास का विरोध है. '' कांग्रेस नेता धीरेंद्र प्रताप का कहना है कि मूल निवास पर कट ऑफ  डेट तय करते समय सरकार को आंदोलनकारियों की भावना का सम्मान करना चाहिए. सीपीआइ-एमएल के गढ़वाल सचिव इंद्रेश मैखुरी कहते हैं कि बाहरी लोगों को राज्य में आने से रोकना संविधान विरोधी और अंध क्षेत्रीयतावादी मानसिकता है.

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