भारत के तमाम लोग 21 नवंबर को सुबह-सुबह इस खबर से चौंक गए कि 2008 में मुंबई पर हुए आतंकी हमले का एकमात्र जिंदा आतंकवादी अजमल कसाब को फांसी दे दी गई है. सरकार ने ज्यादा ताम-झम न करते हुए ऑपरेशन एक्स को अंजाम दिया. इसके तहत पूरी गोपनीयता बरत कर सुबह 7.30 बजे कसाब को फांसी दी गई.
पाकिस्तानी नागरिक कसाब के मृत्युदंड पर अमल करने में सरकार ने असामान्य और अभूतपूर्व दृढ़ता का परिचय दिया गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने जब इसके कुछ समय बाद मीडिया से बात करते हुए घटना का विवरण दिया तो उनका उत्साह देखने लायक था. उन्होंने कहा, ‘‘राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कसाब की दया याचिका 5 नवंबर को रद्द की थी. तब मैं (एक इंटरपोल सम्मेलन के लिए) रोम गया हुआ था. 7 नवंबर को वापस लौटते ही मैंने तुरंत इस पर दस्तखत किए. अगले दिन मैंने इसे महाराष्ट्र सरकार को भेज दिया.” शिंदे ने यह भी कहा कि आतंकवाद पर एक सख्त संदेश दिया जाना जरूरी था.
मुखर्जी ने भी साफ कर दिया कि वे महज नाम के राष्ट्रपति नहीं रहेंगे. अगर वे चाहते तो कसाब की फाइल पर कोई फैसला किए बिना चुपचाप बैठे रहते, जैसा कि उनसे पहले प्रतिभा पाटील ने अपने पांच साल के कार्यकाल में दो दर्जन मामलों में किया. गृह मंत्रालय ने कसाब की दया याचिका 23 अक्तूबर को रद्द कर दी थी. मुखर्जी ने अपना फैसला दो हफ्तों से भी कम समय में कर लिया. यह इस बात की भी झलक है कि लोकसभा चुनाव के समय से पूर्व होने की संभावनाओं के जोर मारने के बीच सरकार अपने रुख को सख्त बना रही है.
इस फांसी ने पाकिस्तान को स्तब्ध कर दिया और बीजेपी भी सोचती रह गई कि क्या प्रतिक्रिया दे. विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने दावा किया कि पाकिस्तान सरकार को कसाब की फांसी से पहले इस बारे में बता दिया गया था और कूटनयिक माध्यम से कसाब के परिवार को संदेश भेजा गया था. खुर्शीद ने एक टीवी चैनल से कहा, ‘‘मुझे उम्मीद है कि इससे दुनिया भर में यह संदेश जाएगा कि भारत में कानून का सम्मान होता है. बेशक व्यक्ति भारतीय नागरिक हो या नहीं. हमने अपनी जिम्मेदारी निभाई है. अब उम्मीद है कि पाकिस्तान भी कानून का साथ देता दिखेगा.”
भारत को यह अहसास था कि पाकिस्तान के गृह मंत्री रहमान मलिक की अगवानी करने का यह सही मौका नहीं होगा, लिहाजा उसने 20 नवंबर को उनसे अनुरोध किया कि वे 22-23 नवंबर को होने वाली अपनी भारत यात्रा को टाल दें. पाकिस्तानी पक्ष ने हाल में उदार बनाए गए भारत-पाकिस्तान वीजा समझौते को लागू करने के लिए इन तारीखों का प्रस्ताव रखा था.
यह नया समझौता 38 साल पुराने वीजा समझौते की जगह लेगा, जिससे समयबद्ध ढंग से वीजा की मंजूरी मिलने का रास्ता साफ होगा. इससे दोनों मुल्कों के लोगों को आपस में घुलने-मिलने और व्यापार करने के ज्यादा मौके मिलेंगे. अब यह यात्रा जल्द होती नजर नहीं आती क्योंकि भारत ने नई तारीखों के बारे में कोई सुझाव नहीं दिया है.
हालाकि भारत सरकार ने 22 नवंबर से शुरू हो रहे संसद सत्र को मलिक की अगवानी नहीं कर पाने का कारण बताया, लेकिन शिंदे 26/11 की बरसी से ठीक पहले उनसे गलबहियां करते नहीं दिखना चाहते थे. सूत्रों का कहना है कि इस आतंकी हमले में शामिल लोगों को सजा दिलाने में पाकिस्तान सरकार की नाकामी इसकी मुख्य वजह थी.
इस ऑपरेशन की जानकारी केवल उन्हीं को थी, जिन्हें इस बारे में जानना जरूरी था. खुर्शीद को इस बारे में पता था क्योंकि इसमें कूटनयिक पहलू शामिल थे. इस ऑपरेशन की गति और गोपनीयता बखूबी बनी रही. शिंदे ने इस बारे में कहा, ‘‘सरकार नहीं चाहती थी कि फांसी से पहले कोई अनचाही बात हो जाए.” लेकिन गृह मंत्री एक बात पर जरूर गड़बड़ा गए.
जब मीडिया ने उनसे पूछा कि क्या प्रधानमंत्री कसाब को 21 नवंबर को फांसी देने के बारे में जानते थे, तो शिंदे ने कहा, ‘‘नहीं, नहीं. केवल गृह मंत्रालय और राष्ट्रपति को इसकी जानकारी थी.” इस बात को बाद में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने काटा, जिन्होंने टीवी चैनलों को बताया कि प्रधानमंत्री इस फैसले से अवगत थे. इस एक गफलत को छोड़ दें तो 18 सितंबर को कसाब की दया याचिका के राष्ट्रपति के पास आने से लेकर फांसी दिए जाने तक की पूरी प्रक्रिया केवल दो माह में निबट गई. जबकि 2001 में संसद पर हमले के दोषी ठहराए गए अफजल गुरु की दया याचिका अक्तूबर, 2006 से लंबित है.
बीजेपी ने अफजल गुरु का मुद्दा उठाकर कांग्रेस के गुब्बारे की हवा को निकालना चाहा. गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने फांसी के तुरंत बाद ट्वीट किया, ‘‘अफजल गुरु को लेकर क्या किया, जिसने 2001 में हमारे लोकतंत्र के मंदिर, संसद पर हमला किया था? उसका अपराध कसाब के घृणित कृत्य से कई साल पहले का है.”
दरअसल मृत्युदंड की कतार में खड़े अपराधियों की लंबी सूची को दरकिनार करके कसाब पर फैसला लिया गया. जो 15 दया याचिकाएं लंबित थीं, उनमें कसाब का नंबर आखिरी में है. इस सूची में अफजल छठे नंबर पर था. जून 2009 में तत्कालीन कानून मंत्री एम. वीरप्पा मोइली ने कहा था, ‘‘आप किसी को अलग से चुनकर फांसी पर नहीं चढ़ा सकते.” उन्होंने कहा था कि इस क्रम को तोड़ा नहीं जा सकता. जाहिर है कि अब ऐसा नहीं रह गया है.
मनमोहन सरकार इस छवि से बचना चाहती थी कि वह आतंकवाद को लेकर नरम है, अमल करने में कमजोर है या निर्णायक कदम उठाने में अक्षम है. कांग्रेस नेताओं ने भले ही इस फांसी पर छाती ठोकने या श्रेय लेने से परहेज किया हो, लेकिन उन्होंने बीजेपी से एक मुद्दा जरूर छीन लिया. लेकिन उन्होंने इस बात को जरूर माना कि अब अफजल का मसला वापस राजनैतिक केंद्र बिंदु बन जाएगा. सूत्रों ने बताया कि मुखर्जी बाकी लंबित मामलों को भी तुरंत निपटाने के पक्ष में हैं.
गृह मंत्रालय के एक अधिकारी ने बताया, ‘‘उन्होंने बाकी 14 फाइलों को भी गृह मंत्रालय के पास वापस स्पष्टीकरण के लिए भेजा है. ये मामले उनकी पूर्ववर्ती प्रतिभा पाटील के पास लंबे समय से अटके थे. वे चाहते हैं कि गृह मंत्रालय इन पर नए सिरे से विचार करे.”
हालांकि कांग्रेस के लिए बाकी मामले इतने आसान नहीं होंगे. एक वरिष्ठ वकील ने कहा कि कसाब के विदेशी होने के कारण यूपीए इस बारे में बढ़-चढ़ कर बोलने की स्थिति में है क्योंकि इस कारण वह मृत्युदंड की कतार में खड़े अन्य लोगों से अलग था. उन्होंने कहा, ‘‘अफजल के मामले में यह इतना आसान नहीं होगा. वह वोट बैंक पर असर डाल सकता है.” लेकिन कांग्रेस पर गुरु को फांसी देने का दबाव जरूर बढ़ गया है. उसे राजनैतिक जोखिम को ध्यान में रखकर एक संतुलित कदम उठाना होगा. इन वरिष्ठ वकील ने कहा, ‘‘अगर वे अफजल को फांसी नहीं देते तो यह इस बात को स्वीकार कर लेने जैसा होगा कि कसाब एक आसान लक्ष्य था. अगर वे उसे फांसी देते हैं, तो कांग्रेस को इसके राजनैतिक नतीजों और एक महत्वपूर्ण वोट बैंक खो देने के जोखिम के बारे में सावधान रहना होगा.”
कसाब को 21 नवंबर को फांसी देने का फैसला 8 नवंबर को सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी (सीसीएस) में लिया गया था, जिसमें मनमोहन सिंह, शिंदे, वित्त मंत्री पी. चिदंबरम और रह्ना मंत्री ए.के. एंटनी शामिल थे. सूत्रों के मुताबिक, सीसीएस ने कसाब को 26 नवंबर को ही फांसी देने के बारे में विचार किया था, जो आतंकी हमले की बरसी थी. लेकिन सीसीएस का फैसला इसके खिलाफ रहा क्योंकि इससे लगता कि भारत कुछ साबित करना चाहता है. सरकारी सूत्रों ने कहा, ‘‘इसे तुरंत और बिना हो-हल्ले के निपटाने का फैसला किया गया.”
महाराष्ट्र में सिर्फ दो जेलों में फांसी देने का बंदोबस्त है—नागपुर सेंट्रल जेल और पुणे की येरवडा जेल. येरवडा को इसलिए चुना गया क्योंकि यह मुंबई के नजदीक है, जहां कसाब को आर्थर रोड जेल में रखा गया था. कसाब को एक जेल अधिकारी ने फांसी देने के बारे में 12 नवंबर को बताया था.
सूत्रों के मुताबिक, कसाब यह सुनकर फूट पड़ा और कहने लगा, ‘‘अल्लाह कसम, ऐसी गलती दोबारा नहीं करूंगा. अल्लाह मुझे माफ करे.” इस अधिकारी ने बताया, ‘‘उसने हमसे कहा कि पाकिस्तान में उसकी अम्मी को उसकी फांसी के बारे में बता दिया जाए.” कसाब की मां नूरी लई ने अप्रैल, 2009 में ही भारत आकर उससे मिलने की इच्छा जताई थी. पर उनके आने की बात राजनयिक प्रक्रियाओं में उलझकर रह गई.
आर्थर रोड जेल के अधिकारियों ने 5 नवंबर को यह खबर फैला दी कि कसाब को बुखार हो गया है. ऐसी अटकलबाजी थी कि उसे डेंगू हो गया है. बताया जाता है कि उसकी पूरी मेडिकल जांच हुई और खून का परीक्षण हुआ, जिसमें स्पष्ट हुआ कि उसे डेंगू या कोई और संक्रमण नहीं हुआ है. अब यह साफ लगता है कि जेल अधिकारियों ने डेंगू के बहाने यह परीक्षण करा लिया कि वह फांसी देने के लिए चिकित्सकीय रूप से स्वस्थ है या नहीं. भारत में यह अनिवार्य है कि फांसी देने से पहले उस व्यक्ति के स्वस्थ होने की जांच हो.
फांसी से एक घंटे पहले भी आखिरी क्षणों में उसकी मेडिकल जांच की गई. कसाब को एक विशेष विमान से 19 नवंबर को तड़के मुंबई से पुणे ले जाया गया था. इस पूरे अभियान की निगरानी राज्य पुलिस के 10 वरिष्ठ अधिकारियों ने की, जिनमें डीजीपी संजीव दयाल, आइजीपी देवेन भारती और संयुक्त आयुक्त हिमांशु राय शामिल थे. जब वे आर्थर रोड जेल में कसाब की कोठरी में पहुंचे तो वह डरा हुआ दिख रहा था. एक अधिकारी ने बताया, ‘‘चार साल में पहली बार हमने उसके चेहरे पर डर देखा.” जेल अधिकारियों ने कसाब को उसकी फांसी के बारे में गृह मंत्रालय का आदेश पढ़कर सुनाया. येरवडा जेल अधिकारियों को सुपुर्द करने से पहले आदेश पर हस्ताक्षर कराए गए.
येरवडा जेल अधिकारियों ने 21 नवंबर की सुबह फांसी देने से ठीक पहले कसाब को ‘परेशान’ देखा. उसने एक मिनट के लिए इबादत की और अधिकारियों से पूछा कि क्या उसके परिवार को उसकी फांसी के बारे में बता दिया गया है. उसने कोई वसीयत नहीं लिखी, न ही कोई आखिरी इच्छा बताई. सूत्रों के मुताबिक, कसाब ने फांसी की खबर मिलने के बाद अपने आखिरी नौ दिनों में ज्यादा भावनाएं नहीं दिखाईं. एक सूत्र ने बताया, ‘‘वह अपनी स्पेशल सेल में ही रहा और पहले की तरह ही किसी से बात नहीं करता था.”
कसाब ने अपने आखिरी मिनट इबादत करके बिताए. उसने कोई खास अंतिम इच्छा नहीं बताई, न ही वह अपने घर में किसी से बात करना चाहता था. जब उसे बता दिया गया कि अब और किसी अपील की गुंजाइश बाकी नहीं है, तो वह ‘शांत और घबराया हुआ’ फांसी के तख्त की ओर बढ़ा. मुंबई पर 26/11 के हमले में इकलौते जिंदा पकड़े गए इस आतंकवादी को फांसी के बाद उसी परिसर में दफना दिया गया क्योंकि किसी ने उसकी लाश लेने के लिए दावा नहीं किया.
एसीपी दिलीप माणे ने कहा, ‘‘इतने सारे निर्दोष लोगों की हत्या करने वाले का यही सही अंत था. माणे ने जब पनवेल स्थित अपने घर में इस फांसी के बारे में सुना तो वे अपनी कुर्सी से उछल पड़े. गवर्नमेंट रेलवे पुलिस के सीनियर इंस्पेक्टर के रूप में छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर 26 नवंबर, 2008 की रात को माणे ने भीड़ के बीच बिखरीं लाशों को देखा था. वे कहते हैं कि घायल यात्रियों के चेहरों और उनकी चीखों ने उनके मन को चीर दिया था. अजमल कसाब और इस्माइल खान गोलियां बरसाते और ग्रेनेड फेंकते हुए स्टेशन के अंदर आए. उन्होंने 58 लोगों को मारा और 104 को घायल कर दिया. मुंबई के आतंकी हमले में मारे गए 166 लोगों में से एक तिहाई लोगों को उन्होंने ही मारा.
कसाब और खान ने स्टेशन से बाहर निकलने के बाद भी हत्याओं का सिलसिला जारी रखा. इन दोनों ने नौ पुलिसकर्मियों को भी मारा, जिनमें दो कामा अस्पताल में मारे गए, छह लोग एक पुलिस गाड़ी में जिसमें एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे, अशोक कामटे और सीनियर इंस्पेक्टर विजय सालसकर भी थे, और बाद में बहादुर असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर तुकाराम ओंबले, जिन्होंने कसाब को गिरगाम चैपाटी पर दबोचा था.
सामाजिक कार्यकर्ता किशोर भट्ट उन लोगों में थे, जिन्होंने कसाब को 26 नवंबर, 2008 को देर रात पुलिस की गिरफ्त में सबसे पहले देखा. भट्ट ने कहा, ‘‘उसे इलाज के लिए नायर हॉस्पिटल लाया गया था. वह पुलिसवालों से गिड़गिड़ा रहा था कि मुझे मार दो, मेरा मिशन पूरा हो गया है.” भारत सरकार ने आखिरकार उसकी इच्छा पूरी कर ही दी.
—साथ में देवेश कुमार