रमजान के महीने में रायसेन जिले में अलस्सुबह और सूरज ढलने के बाद तोप की जोरदार आवाज सुनाई देती है. रायसेन के किले के नजदीक की एक पहाड़ी पर शान से खड़ी इस तोप का काम है शहर के रोजेदारों को इफ्तार और सहरी का वक्त बताना.
शाम को तोप की आवाज से रोजेदारों को पता चल जाता है कि इफ्तार का वक्त हो चुका है जबकि सुबह इसकी आवाज बताती है कि सहरी का वक्त खत्म हो चुका है. सहरी के वक्त तोप चलाने से दो घंटे पहले किले से नगाड़े भी बजाए जाते हैं. ये नगाड़े तब तक जारी रहते है जब तक सहरी खत्म होने का ऐलान तोप के धमाके से नहीं हो जाता.
इस परंपरा की शुरुआत भोपाल की बेगमों ने 18वीं सदी में की थी. तब रायसेन भोपाल रियासत में ही आता था. बाद में भोपाल और रायसेन समेत सीहोर में भी इस परंपरा का पालन किया जाता था. लेकिन अब यह सिर्फ रायसेन में ही जारी है. किसी जमाने में तोप की आवाज 45 किमी तक सुनाई देती थी. अब गाड़ियों के शोर के बावजूद 7-8 किमी तक आवाज जाती है.
रायसेन शहर के काजी जहीरउद्दीन बताते हैं, ''1956 से पहले तक पहाड़ी पर स्थित रायसेन के किले से बड़ी तोप चलाई जाती थी. किले को इससे नुकसान न पहुंचे इसलिये छोटी तोप का इस्तेमाल शुरू कर दिया. अब यह तोप पहाड़ी के एक टीले से चलाई जाती है.'' तोप चलाने का काम शहर के बाशिंदे किश्वर खान और उनका परिवार बरसों से करता आ रहा है.
हर साल रमजान के महीने में जिला प्रशासन तोप और बारूद के लिए मुस्लिम त्योहार कमेटी के अध्यक्ष के नाम पर एक माह का लाइसेंस जारी करता है. रमजान खत्म होते ही तोप को मालखाने में जमा कर दिया जाता है. कमेटी के अध्यक्ष जमील खान बताते हैं, ''तोप चलाने के लिए पूरे रमजान के दौरान 25 किलो से ज्यादा बारूद की जरूरत पड़ती है.''
खान के शब्दों में, ''यह हमारे शहर की शान है. इस परंपरा को यहां के लोगों ने ही जिंदा रखा है और आगे भी जारी रखेंगे.''