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क्यों हर भारतवासियों को अपने नायक समझदारी से चुनने की जरूरत है?

हमें औरंगजेब का स्मारक बनाना चाहिए या दारा शिकोह का? उत्तर स्पष्ट है. एक क्रूरता और कट्टरता का प्रतीक है. दूसरा समावेश और बुद्धिमता का.

इंडिया गेट पर नेताजी की 28 फुट की प्रतिमा का अनावरण 2022 में हुआ
इंडिया गेट पर नेताजी की 28 फुट की प्रतिमा का अनावरण 2022 में हुआ
अपडेटेड 25 अप्रैल , 2025

छावा फिल्म रिलीज होने के बाद शांत लेकिन अहम बहस फिर शुरू हो गई कि क्या भारत को बादशाह औरंगजेब की कब्र को सहेजते रहना चाहिए जिसे इतिहास निस्संदेह क्रूर, दमनकारी और फिरकापरस्त शासक के तौर पर याद करता है?

उम्मीद के मुताबिक बहस सरगर्म और ध्रुवों में बंटी है. अपने पॉडकास्ट 'इमॉर्टल इंडिया’ के हालिया एपिसोड में मैंने इस मुद्दे पर शांत, सम्मानजनक और ईमानदार चर्चा करने की कोशिश की. यही कोशिश अब मैं लिखकर कर रहा हूं.

सबसे पहले दोटूक बात: आत्मसम्मान की जरा भी भावना या इच्छा से ओतप्रोत कोई भी संस्कृति अपने अतीत के आततातियों का महिमामंडन नहीं करती. फ्रांस में नाजी आक्रमणकारियों का कीर्तिगान करने वाले स्मारक नहीं हैं. इज्राएल हिटलर के नाम पर अपने उद्यानों के नाम नहीं रखता. ये इतिहास को मिटाने के कृत्य नहीं हैं. ऐसे आततातियों की स्मृतियां किताबों और संग्रहालय में रहती हैं, जहां उन्हें होना चाहिए न कि धूमधाम से भरी सार्वजनिक जगहों पर.

भारत ने खौफनाक आक्रमण और सदियों लंबी गुलामी देखी. दिल्ली के तुर्की सुल्तानों से लेकर तैमूर-मुगलों और ब्रिटिश तक हमने एक के बाद एक विदेशी आधिपत्य की लहरें देखीं. हां, उन्होंने अपनी छाप छोड़ी. यह कॉलम भी आखिरकार मैंने (मूलत:) अंग्रेजी में ही लिखा है.

हमारी वास्तुकला, पाक शैली, प्रशासनिक प्रणालियां सभी पर अतीत के इन हुक्मरानों की निशानियां हैं. मगर उनके प्रभाव को स्वीकार करना और उनका गुणगान करना दो अलग बातें हैं. पहला इतिहास है. दूसरा बकवास.

कल्पना कीजिए: बाहरी लोगों के हाथों बार-बार बर्बरता से सताया गया परिवार बाद में अपने अत्याचारियों की तस्वीरें प्यार से अपने घर में संजो ले. क्या यह बेहूदा नहीं है? या शायद आत्मसात कर ली गई हीनता की भावना?

हम वह परिवार नहीं हैं. हमें होना भी नहीं चाहिए. भारत को कई ताकतों ने गढ़ा है. महान और अप्रतिष्ठित दोनों ने. लेकिन हमें अपने देश में हुए बड़े ऐतिहासिक अपराधों के दोहरेपन को ईमानदारी से पहचानना चाहिए. पहला, विदेशी आक्रमणकारियों तुर्क (जो मुसलमान थे) और ब्रिटिश (जो ईसाई थे) के हाथों की गई बर्बर हिंसा. दूसरा, ऊंची जातियों के हाथों हमारे पिछड़े और दलित समुदायों पर हुआ आंतरिक अत्याचार. दोनों ने हमारी सभ्यता को गहरी चोट पहुंचाई. दोनों को ही याद रखना चाहिए, शोक मनाना चाहिए और उनसे उबर आना चाहिए.

मगर आधुनिक भारत में एक अजीब-सा नुक्सानदेह पाखंड उभरा है. वाम-उदारवादी (लेफ्ट लिबरल) विमर्श दूसरे अपराध जाति-आधारित अत्याचार से मुकाबला करने की उचित मांग करता है और आरक्षण तथा संवाद के जरिए सामाजिक न्याय पर जोर देता है. हमने प्रगति भी देखी भारत के पहले पूर्णकालिक ओबीसी प्रधानमंत्री और अनुसूचित जनजाति की पृष्ठभूमि से आईं राष्ट्रपति. ये सही दिशा में बढ़ने के संकेत हैं, भले ही अभी हमें और आगे जाना है.

लेकिन वही वाम-उदारवादी स्वर पहले अपराध पर अक्सर खामोश रहने की सलाह देते हैं. वे कहते हैं, ''मुस्लिम या ब्रिटिश आक्रमणकारियों के हाथों की गई हिंसा की बात न करें. इससे सामाजिक तानाबाना बिगड़ सकता है.’’ लेकिन क्यों? आखिर क्यों एक चोट और सदमे को याद रखना चाहिए, और दूसरे को दफ्न कर देना चाहिए?

इस चुनिंदा विस्मरण से आक्रोश उत्पन्न होता है. अगर सचाई और सुलह सराहनीय हद तक जाति के जख्मों को भर रहे हैं तो यही सिद्धांत विदेशी फतह के हाथों छोड़े गए ऐतिहासिक जख्मों पर लागू क्यों नहीं किया सकता?

एक बात साफ होनी चाहिए: इसका मतलब आज के मुसलमानों और ईसाइयों पर तोहमत मढ़ना नहीं है. ठीक उसी तरह जैसे आज कोई भी समझदार दलित बच्चा ऐतिहासिक नाइंसाफियों के लिए निजी तौर पर ऊंची जाति के बच्चे को दोषी नहीं ठहराता. हमें आज के समुदायों को अतीत के अत्याचारों से नहीं जोड़ना चाहिए. लेकिन हमें अतीत को ईमानदारी से याद रखना चाहिए क्योंकि स्मृति बुद्धिमानी की बुनियाद है.

और हमें याद ही रखना है, तो अपने नायकों को याद रखें. अपने आतताइयों को नहीं. दिल्ली में इंडिया गेट की छतरी में कभी औपनिवेशिक सम्राट किंग जॉर्ज पंचम की प्रतिमा लगी थी. आज इसमें नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा स्थापित है.

प्रतीकात्मकता स्पष्ट है: हमें उनका सम्मान करना चाहिए जो हमारे लिए लड़े, उनका नहीं जिन्होंने हम पर अत्याचार किए. इस तर्क का विस्तार हमें पूरे भारत में नहीं करना चाहिए?

हम उत्सव मनाएं छत्रपति शिवाजी महाराज का, उस शेर का जो तैमूरी-मुगल सल्तनतों की क्रूरता के खिलाफ तनकर खड़ा था. सम्मान करें वीर सिख गुरुओं का, जिन्होंने जबरन धर्मांतरण का विरोध किया. हम बच्चों को असम के अहोम सेनापतियों, जाट योद्धाओं, नागा बाबाओं और उनके बारे में पढ़ाएं जिन्होंने औरंगजेब के आक्रमणों से संस्कृति की रक्षा की.

तैमूर-मुगल वंश में भी बुद्धिमान और दयालु लोग थे. औरंगजेब के बड़े भाई दारा शिकोह ने हिंदू धर्म और इस्लाम को जोड़ने की कोशिश की. उसने फारसी में उपनिषदों के अनुवाद किए और मज्म-उल-बहरैन किताब लिखी जिसमें दोनों धर्मों के मेल की बात कही. उसने रूह से एकजुट और रूप में विविधतापूर्ण भारत की कल्पना की. उसका हश्र क्या हुआ? औरंगजेब के हाथों सताया, क्षतविक्षत किया, मार दिया गया, और फिर उसका सिर एक ताबूत में रखकर उनके वालिद बादशाह शाहजहां को भेज दिया गया.

हमें औरंगजेब का स्मारक बनाना चाहिए या दारा शिकोह का? उत्तर स्पष्ट है. एक क्रूरता और कट्टरता का प्रतीक है. दूसरा समावेश और बुद्धिमता का. औरंगजेब की विचारधारा का जश्न पाकिस्तान में मनाया जाता है. उसकी हड्डियों को शायद हमें सम्मानपूर्वक उन्हें भेज देना चाहिए.

उसकी जगह गंगा-जमुनी तहजीब के सच्चे प्रतीक के तौर पर दारा शिकोह का स्मारक बनाएं, जिससे आपसी सम्मान झलके, मिटाना नहीं. भारत महज राष्ट्र-राज्य नहीं, सभ्यतागत राज्य है. सभ्यताएं भूलती नहीं. न ही वे अपने आततातियों को मूर्खतापूर्वक सम्मानित करती हैं. समय आ गया है हम अपने सभ्यतागत नायकों को समझदारी से चुनें.

इंडिया टुडे की ये स्टोरी बेस्टसेलिंग लेखक और ब्रॉडकास्टर अमीश से हुई बातचीत पर आधारित है. 

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