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रघु की पाठशाला में गुलफाम

खुद को शागिर्द मानने वाले उस्ताद अभिनेता रघुबीर यादव मुंबई से सैकड़ों किलोमीटर दूर नए नाटक का जादू बिखेरने की तैयारी में मिले. जादू के घटने से पहले हुए जादू का बयान

रंग उत्सव ग्रुप के चित्रांगन थिएटर फेस्टिवल में अपने नाटक मारे गए गुलफाम के एक दृश्य में रघुबीर यादव और साथी कलाकार
रंग उत्सव ग्रुप के चित्रांगन थिएटर फेस्टिवल में अपने नाटक मारे गए गुलफाम के एक दृश्य में रघुबीर यादव और साथी कलाकार
अपडेटेड 11 मार्च , 2025

बाएं हाथ में पेचकस. मुंह में कील. ठक ठक ठक. निकलेगा तो नहीं? 'अब ठीक है'. अपना नया नाटक मारे गए गुलफाम करने रीवा (मध्य प्रदेश) आए अभिनेता रघुबीर यादव धूल से सनी फर्श पर एकंगे से झुके हुए बैलगाड़ी के साथ का फ्रेम बना रहे हैं.

जींस नीचे और कमीज ऊपर खिंचने से पुट्ठे खुल गए हैं पर उन्हें सुध नहीं. एक हजार दर्शकों की क्षमता वाले, शहर के कृष्णा राज कपूर सभागार में रंग उत्सव थिएटर ग्रुप के चित्रांगन फेस्टिवल में अगले दिन उनका शो है.

बगल के ही एक बड़े हॉल में पचीसेक आर्टिस्ट्स के साथ अब लंच के बाद वे रिहर्सल में मसरूफ हैं: डोंट टच माइ हार्ट मोहनिया...अजी हां मारे गए गुलफाम...ढोलक, तबले, सारंगी के साथ घंटों से चल रहा यह रियाज वहां आ पहुंचे कइयों के लिए किसी नाटक से बेहतर है.

खांटी दोस्त और सारंगी बजाने दिल्ली से बुलाए गए अनिल मिश्र पीछे से कहते हैं, ''रघु भाई से अब बैंड बनवा के रहूंगा. सबकी छुट्टी कर देंगे." पत्नी रोशनी गिलास में नमक और हल्दी का गुनगुना पानी लाकर देती हैं.

मैसी साहब और कुमार शहानी जैसे प्रयोगधर्मी निर्देशक की कस्बा से लेकर आमिर खान की लगान, मुल्ला नसरुद्दीन, चाचा चौधरी, मुंगेरी लाल और अब पंचायत के प्रधान जी तक. 1967 में जबलपुर से भागकर पारसी थिएटर के जरिए अभिनय, दिल्ली में एनएसडी और फिर मुंबई तक और उतरती फरवरी में ट्रेन और बस में 1,200 से ज्यादा किलोमीटर चलकर मुंबई से रीवा तक.

75 की पूरी होने को आती उम्र में इतना चलना! इस सवाल पर ही जैसे वे पानी छिड़क देते हैं: "इस तरह का सफर ही तो हमारी पाठशाला है. ये थिएटर, म्यूजिक... इसमें इतना मजा आता है कि उम्र का पता ही नहीं चलता. हमें तो (एनएसडी में इब्राहिम) अल्काजी साहब ने सिखाया था कि मरिए तो हमारे सामने आकर मरिए. मैं तो अपने को सात आठ साल का ही मानता हूं." (इस बीच टीम के कुछ कलाकार रीवा का गुलकंद वाला पान खाते हुए शिकवे के लहजे में कहते हैं कि 'सर हमें भी सात आठ साल से ज्यादा का नहीं होने देते.')

अरे, सर रास्ते में जो बंदिश गा रहे थे वो चारुकेशी में है कि अहीर भैरव में? अनिल दो कलाकारों का सवाल सुनकर बात राग परमेश्वरी पर ले आते हैं. फिर अगला गाना: राग दीपचंदी. 'साडा चिड़िया दा चंबा बेबा बुलावे.' मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय की छात्रा रहीं और पिछली बार एक लोक नर्तकी चंदा बेड़नी पर अलखनंदन के लिखे नाटक में नायिका बनीं ज्योति अतरोलिया भी रियाज में आ जुटती हैं.

हारमोनियम संभाले और स्वर के आरोह-अवरोह के साथ गले-सिर को लय में मोड़ते रघुबीर को ख्याल नहीं कि कई गृहणियां, नौजवान और प्रशासनिक अफसर भी आकर उन्हें सुन-देख रहे हैं. शहर के चौराहों पर उनके बीसियों पोस्टर बैनर लगाए गए हैं. सिनेमाई चर्चाओं को थोड़े में समेटकर वे तुरंत नाटक-संगीत पर लौट-लौट आते हैं.

''अब मारे गए गुलफाम को ही ले लीजिए. रेणु की कहानी है. एक चाहत थी कि वह पुराने दिनों का म्यूजिक थिएटर, वह माहौल फिर से जिया जाए. इसी तरह से पारसी थिएटर के अंदाज में लैला मजनूं की भी तैयारी शुरू की है. वह जबान, वह म्यूजिक. सब कुछ इतना जादूई है कि बस."

पंचायत सीरीज और ऐसी ही सीधी-सादी रियलिस्टिक कहानियों की कामयाबी को वे अपने लिए भी एक अहम संकेत मानते हैं. "अब मुझे लगता है कि लोग नकलीपन से ऊब चुके हैं, और अच्छे किस्से देखना चाहते हैं. अब काफिला, सुंदरकांड और दूसरी कुछ अपनी स्क्रिप्ट्स को जमीन पर उतारा जाए."

अगली शाम पौने दो घंटे का म्यूजिकल रीवा के 500 से ज्यादा दर्शकों के लिए यादगार बन गया. स्टेज की बाईं विंग में बैठकर मारे गए गुलफाम गाते हुए इस 75 वर्षीय दिग्गज परफॉर्मर की निगाहें उसी विंग में शीशे के पीछे लगी तीसरी कसम के हीरामन राजकपूर की ब्लैक ऐंड व्हाइट तस्वीर पर पड़ीं तभी मंच पर उनकी मेलोडियस आवाज खिंचती चली गई, गुलफाम के म को पकड़े हलंत की तरह.

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