
जोया अख्तर को 2010 में नई दिल्ली में आयोजित ओसियन फिल्म फेस्टिवल के दौरान एक खास प्रशंसक से मिलने का मौका मिला. ये और कोई नहीं बल्कि शेख नासिर थे, जिन्हें मालेगांव के शोले, मालेगांव का जेम्स बॉन्ड, मालेगांव के शान और मालेगांव का सुपरमैन जैसी स्पूफ यानी मजाकिया अंदाज में नकल पर आधारित फिल्मों के निर्देशक के तौर पर जाना जाता है. उनकी इन फिल्मों को फैजा अहमद खान की बेहतरीन डॉक्यूमेंट्री सुपरमैन ऑफ मालेगांव ने एक खास पहचान दिलाई, जिसे जोया अख्तर और रीमा कागती दोनों ने देखा और पसंद किया.
कागती मुस्कराते हुए बताती हैं, "जब वे जोया से मिले तो उन्होंने कहा, 'मैं आपके वालिद (पटकथा लेखक जावेद अख्तर) का बहुत बड़ा फैन हूं और मैंने उनकी सभी फिल्मों की नकल की है.' आगे बातचीत में हमें उनके परिवार और दोस्तों के बारे में जानने का मौका मिला तो एहसास हुआ कि असली पिक्चर तो यहां पर है." और सुपरबॉयज ऑफ मालेगांव इसी की परिणति है, जिसमें आदर्श गौरव ने नासिर की भूमिका निभाई है. विनीत कुमार सिंह लेखक-मित्र फरोग जाफरी और शशांक अरोड़ा अभिनेता-मित्र शफीक की भूमिका में हैं.
कागती शुरू से ही इस फिल्म का निर्देशन करना चाहती थीं. क्योंकि उन्हें अपने और नासिर के बीच कई समानताएं नजर आई थीं. असम के एक छोटे से शहर डिगबोई में बिताए अपने शुरुआती सालों में कागती भी अक्सर छोटे सिनेमाघरों में जाती थीं, ताकि 'असल जिंदगी से बड़ा अनुभव' हासिल कर सकें. वे फिल्मों की जादुई दुनिया के बारे में जानने के लिए पायरेटेड वीएचएस और वीसीडी देखती थीं. नासिर की तरह वे भी ब्रूस ली, अमिताभ बच्चन, चार्ली चैपलिन आदि के अभिनय की कायल रही हैं.
कागती कहती हैं, "मैंने एक बात महसूस की है कि निर्देशक कोई भी हो और कहीं भी या कैसा भी काम कर रहा हो, भागदौड़ उसकी जिंदगी का एक अहम हिस्सा बन जाती है. जुगाड़ और लोगों से काम निकलवाने की उसकी क्षमता भी इसमें अहम भूमिका निभाती है. शेख की असल जिंदगी की कहानी ने कागती को इसलिए और ज्यादा प्रभावित किया क्योंकि वे न केवल एक विशुद्ध विचार के साथ फिल्म निर्माण में लगे रहे बल्कि मालेगांव में ही रहने का फैसला किया. यही वह बात है, जो समानांतर फिल्म निर्माण उद्योग पनपने की वजह रही है." जैसा कि शेख नासिर फिल्म में कहते हैं, "बंबई को इधर लाना पड़ेगा."
जोया-रीमा ने साथ मिलकर जिंदगी ना मिलेगी दोबारा, दिल धड़कने दो, और गली बॉयज के करीब मानी जा रही सुपरबॉयज ऑफ मालेगांव बनाई है. यह हाशिये पर पड़े अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों और तमाम चुनौतियों के बावजूद उन्हें एक साथ लाने के एक व्यक्ति के समर्पण पर केंद्रित है. इसमें लक बाय चांस की भी कुछ झलक मिलती है, क्योंकि यह ऐसे लोगों पर केंद्रित है जो प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच भी अपना रास्ता तलाश लेते हैं और इस तरह सिनेमा को भी उसका उचित सम्मान दिया गया है.
इस फिल्म की सबसे खास बात यह है कि इसमें गांव को विषय के तौर पर चुना गया है और नासिर के मामले में उनके साथ काम करने वाले ज्यादातर लोग अलग-अलग व्यवसायों से जुड़े उनके दोस्त ही हैं जैसे एक करघा मजदूर है, एक ड्राइ फ्रूट बेचने वाला, एक चाय की दुकान का मालिक और एक फोटो-स्टूडियो का मालिक. सुपरबॉयज के केंद्र में हैं...उनके दिवंगत मित्र, फारुख और शफीक हैं, जो उनके सबसे बड़े 'चीयरलीडर' भी हैं.

सुपरबॉयज के साथ रीमा-जोया के प्रोडक्शन हाउस टाइगर बेबी ने नए पटकथा लेखकों को शामिल कर अपने दृष्टिकोण को और व्यापक बनाने की कोशिशों को आगे बढ़ाया. इसी क्रम में दोनों के बीच हास्य कलाकार-लेखक-गीतकार-पटकथा लेखक वरुण ग्रोवर के नाम पर सहमति बनी.
कागती बताती हैं, "हम भाग्यशाली रहे कि उनके पास इसके लिए समय था." ग्रोवर फिल्म पर शोध के इरादे से मालेगांव पहुंचे और फिल्म उद्योग से जुड़े लोगों से बातचीत की. कागती के मुताबिक, उन्हें नासिर की वजह से इस बारे में काफी गहन जानकारी मिल पाई क्योंकि उन्होंने अपने जीवन से जुड़े हर घटनाक्रम को बहुत करीने से सहेज रखा है. कागती के मुताबिक, "उन्होंने अखबारों की कतरनों के दो-तीन सेट बनाए हैं. अगर शूटिंग के बाद पिकनिक होती है, तो उसे भी बाकायदा दर्ज कर लेते हैं."
नासिर ने कागती को अपने क्रू मेंबर से भी मिलवाया, जिनमें कई को सुपरबॉयज में छोटे-छोटे किरदारों की भूमिका दी गई. कागती कहती हैं, "मालेगांव के लोग अलग हैं." उन्होंने कहा, "फिल्मों के शौकीन होने से एक अलग तरह का आकर्षण उपजता है."
मालेगांव के अलावा, फिल्म की शूटिंग नासिक, देवलाली और मुंबई में भी की गई है. कागती को प्रोडक्शन डिजाइनर सैली व्हाइट के रूप में एक अहम सहयोगी मिला, जिन्होंने वीडियो पार्लर और स्क्रीनिंग हॉल को फिर से तैयार किया. कागती ने बताया, "मुझे लाइव लोकेशन पर सेट बनाना पसंद है क्योंकि इससे वास्तविकता का एहसास होता है." नासिर की तरह, कागती ने भी धारावी में सड़क के बीच में एक कैमरा लगाकर अचानक फिल्मांकन में हाथ आजमाया है.
कागती और ग्रोवर ने सिनेमाई स्वतंत्रता का भरपूर इस्तेमाल किया, जैसे फिल्म के भीतर फिल्म बनाने की कला दर्शाने के साथ पटकथा लेखक के गर्वीले भाव और निर्देशक के अहंकार से उपजे संघर्ष को भी दिखाया गया है. पटकथा को इस ताने-बाने के इर्द-गिर्द बुना गया है कि रचनाकार के लिए सम्मान और सफलता कितने मायने रखती है.
यह फिल्म बताती है कि मालेगांव के असली सुपरहीरो अपने काम यानी फिल्में बनाकर ही सही मायने में खुश होते हैं. कागती को उम्मीद है कि उनकी फिल्म दर्शकों पर अपना असर छोड़ने में सफल रहेगी. उन्होंने कहा, "मुझे वाकई उम्मीद है कि यह फिल्म उन लोगों को प्रेरित करेगी जो ऐसा कुछ पाने की इच्छा रखते हैं जो उनके लिए आसान नहीं है."