जनरल बिपिन रावत 63 साल के थे जिनका 8 दिसंबर को हेलिकॉप्टर हादसे में निधन हो गया, वे भारत के पहले चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) और सबसे लंबे समय तक सेवारत रहे जनरल थे. इस साल 31 दिसंबर को वे जनरल के रूप में सेवा के अभूतपूर्व पांच साल पूरे कर लेते—तीन साल तक भारत के 26वें सेनाध्यक्ष के रूप में और दो साल देश के पहले सीडीएस के रूप. पिछले दिसंबर में उन्होंने उन्होंने जनरल के.एस. थिमैया का चार साल जनरल के रूप में कार्यरत रहने का रिकॉर्ड तोड़ा तो उन्हें इस बात का एहसास भी नहीं था.
सेनाध्यक्षों की समिति के स्थायी अध्यक्ष; सैन्य मामलों के विभाग के सचिव और तीनों सेनाओं की ऑपरेशन कमानों जैसे अंडमान व निकोबार कमान और स्ट्रैटेजिक फोर्सेज कमान के प्रमुख होने की अपेक्षाओं के बोझ का मतलब था कि इस तरह की व्यक्तिगत उपलब्धियां उनके लिए किसी हद तक तुच्छ थीं. जनरल रावत के लक्ष्य बड़े थे. रहते तो वे अगले साल तक तीनों सेनाओं की मौजूदा 17 एकल-सेवा कमानों को मिलाकर गठित की जाने वाली भारत की पहली फोर-थिएटर कमान के गठन की निगरानी करते. उन्हें तीनों सेवाओं के लिए साजो-सामान खरीद प्रक्रिया को व्यवस्थित कर प्राथमिकताओं को नए सिरे से तय करने के लिए एकीकृत क्षमता विकास योजना भी शुरू करनी थी.
लोग रावत से प्यार करें या नफरत पर उन्हें नजरअंदाज करना नामुमकिन था. विभाजन रेखा के अलग-अलग पक्षों से देखे जाने के आधार पर उन्हें या तो दूरदर्शी सुधारक देखा जाता था या परंपरा तोड़ने वाले के रूप में. कारण यह था कि रावत चरम उत्साह के साथ सैन्य सुधारों के प्रयास करते थे और इस क्रम में अक्सर अन्य दो सेवाओं के बारे में उग्र टिप्पणियां करते थे जिससे सैन्य अधिकारियों को परेशानी होती थी. वे सुनार की कोमल चोटों की आदी व्यवस्था में हथौड़ा चलाने वाले लुहार थे. 1962 के भारत-चीन युद्ध की आपदा के बाद से, भारत के राजनैतिक वर्ग ने सशस्त्र बलों को उनके हाल पर छोड़ दिया. पर जनरल रावत का कार्यकाल ऐसी सरकार के दौरान रहा जो रक्षा सुधार की आवश्यकताओं के बारे में पूरी तरह से जागरूक थी. दिसंबर 2019 में भारत के पहले सीडीएस के रूप में उनकी नियुक्ति यूं ही नहीं हुई—नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में सशस्त्र बलों के लंबे समय से लंबित सुधारों की शुरुआत की. उन्हें जनरल रावत में वांछित बदलाव करने वाला व्यक्ति मिल भी गया था.
उनकी आकस्मिक मृत्यु से अधूरे कार्यों की एक लंबी सूची बन गई है. ऐसी आकस्मिक स्थिति 1994 में जनरल बिपिन जोशी की अचानक मृत्यु के बाद पहली बार सामने आई है. यह अभी भी स्पष्ट नहीं है कि उनकी जगह कौन लेगा, लेकिन अगर सरकार वरिष्ठतम सेवा प्रमुख की नियुक्ति की परंपरा का पालन करती है, तो वह वर्तमान सेना प्रमुख जनरल मनोज नरवणे की ओर रुख कर सकती है. सीडीएस के रूप में नियुक्त होने वाले नए व्यक्ति के लिए सुधार प्रक्रिया को आगे बढ़ाना असंभव तो नहीं लेकिन कठिन कार्य होगा, क्योंकि बहुत से सुधारों को पहले सीडीएस के साथ ही जोड़ कर देखा जा रहा था. पूर्व सेना प्रमुख जनरल वी.पी. मलिक जनरल रावत को एक ''दृढ़, स्पष्टवादी और सीधे'' व्यक्ति के रूप में याद करते हैं. वे कहते हैं, ''बिपिन के पास असंदिग्ध सैनिक गुण, सैन्य ज्ञान और सीडीएस पद के लिए आवश्यक अनुभव था.''
जनरल रावत का जन्म एक सैन्य परिवार में हुआ था. उनके पिता, लेफ्टिनेंट जनरल लक्ष्मण सिंह रावत, 1988 में डिप्टी चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ के रूप में सेवानिवृत्त हुए थे. रावत को 1978 में उनके पिता की रेजिमेंट, 11 गोरखा राइफल्स की 5वीं रेजिमेंट में ही कमिशन मिला था. सेवा में रहते हुए, वे दो बार बाल-बाल बचे थे. 1993 में एक युवा मेजर के रूप में वे जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर सीमा पार से गोलीबारी में घायल हुए थे. वर्षों बाद 2015 में जब वे नगालैंड स्थित 3 कोर के जनरल ऑफिसर कमांडिंग थे तब एक हेलिकॉप्टर दुर्घटना में उन्हें मामूली चोटें आई थीं. फील्ड कमांडर के रूप में उनकी आक्रामकता ने उन्हें सेवाकाल में जल्दी ही अलग पहचान दिला दी थी.
2008 में कांगो में संयुक्त राष्ट्र शांति सेना दल का नेतृत्व करने वाले ब्रिगेडियर के रूप में उन्होंने विद्रोहियों के खिलाफ बल प्रयोग का आदेश दिया था. नगालैंड में जब वे कोर कमांडर थे, तो उनके ही अधीन एक कमांडो यूनिट ने म्यांमार में घुस कर एनएससीएन (के) शिविरों पर छापेमारी की थी. यह छापामारी नगा विद्रोहियों की ओर से भारतीय सेना के 18 सैनिकों की हत्या के प्रतिशोध में की गई थी. शायद इसी आक्रामकता ने उन्हें तब मदद की जब 2016 में सरकार ने उन्हें भारत के 26वें सेना प्रमुख के रूप में तीन अन्य वरिष्ठ अधिकारियों पर वरीयता देते हुए चुना था. सेना प्रमुख के रूप में रावत ने ज्यादा सैनिकों वाली भारतीय सेना में सैनिकों की संख्या घटाने और अर्थहीन संगठनों को समाप्त कर संसाधन बचाने जैसे सुधारों के बारे में बोलना शुरू किया. उनकी योजनाएं इस तथ्य पर आधारित थीं कि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी सेना अपने बजट का 80 प्रतिशत से अधिक वेतन, ईंधन, गोला-बारूद और आपूर्तियां खरीदने पर खर्च कर रही थी और नए उपकरण खरीदने के लिए उसके पास बहुत कम पैसा बचता है. उन्होंने 'एकीकृत युद्धक समूह' नामक नई युद्धक संरचनाओं की तैनाती की प्रक्रिया भी शुरू की.
रावत अपने फील्ड कमांडरों पर अल्प सूचना पर युद्ध लड़ने की तैयारियों का दबाव रखते थे. 2001 में पाकिस्तान के साथ 10 महीने के ऑपरेशन पराक्रम गतिरोध के बाद सेना की 'कोल्ड स्टार्ट' युद्ध रणनीति विकसित हुई थी जिसमें वांछित है कि सेना कुछ घंटों के नोटिस पर युद्ध करने की स्थिति में रहे. संभवत: ये ही कुछ ऐसे गुण हैं जो उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल का प्रिय बनाते थे. डोभाल भी पौड़ी गढ़वाल जिले के सैन्य परिवार से हैं. जनरल रावत के सेना प्रमुख तथा सीडीएस रहते दक्षिण-पश्चिमी, पूर्वी और मध्य कमानों के जीओसी-इन-सी के रूप में तैनात रहे लेफ्टिनेंट जनरल अभय कृष्ण (सेवानिवृत्त) उन्हें दूरदर्शी मानते हैं.
सीडीएस के रूप में जनरल रावत ने वायु सेना के महंगे लड़ाकू विमानों के आयात पर सवाल उठाए और विचार किया कि क्या विशाल विमानवाहक खरीदने की तुलना में नौसेना के बजट को बेहतर तरीके से खर्च किया जा सकता है. जनरल के तौर पर बिताए पांच वर्षों ने उन्होंने कई दुश्मन बना लिए थे. सैन्य दिग्गजों की बिरादरी के कुछ वर्ग उन्हें नापसंद करते थे और सैन्य पेंशन बिल में कटौती पर उनके बयानों के प्रति शत्रु भाव रखते थे. जनरल रावत इससे बेफिक्र रहते थे. एक बार मजाक में उन्होंने कहा था कि ''दोस्त आसानी से बन जाते हैं, लेकिन दुश्मन हमें सतर्क रखते हैं.'' उनका मानना था कि उनके प्रति घृणा का अधिकांश भाग ऐसी व्यवस्था की ओर से आता है जो जड़ता से प्यार करती है. उनका असामयिक निधन यथास्थितिवादियों की जीत का संकेत हो सकता है.