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स्मृति: एक युगपुरुष का महाप्रयाण

इब्राहिम अल्काजी ही थे जिन्होंने रंगमंच में कई पीढिय़ों को नाटक देखने की समझ और तमीज और समीक्षकों को उसे परखने की कला दी

बंदीप सिंह
बंदीप सिंह
अपडेटेड 11 अगस्त , 2020

आधुनिक भारतीय रंगमंच और कला जगत को अपना बहुआयामी अपूर्व योगदान देने और विरल उपलब्धियों से संपन्न 95 वर्षों का भरा-पूरा रचनात्मक, सार्थक जीवन जीने के बाद किंवदंती-पुरुष इब्राहिम अल्काजी का देहावसान न तो असामयिक है और न ही आकस्मिक. फिर भी उनके प्रस्थान की खबर आने के तुरंत बाद सोशल मीडिया पर रंगकर्मियों और समाज के दूसरे क्षेत्र के लोगों की श्रद्धांजलियों का जैसा तांता लगा, वह सचमुच भावविभोर कर देने वाला था.

उन्हें थिएटर छोड़े कई दशक गुजर चुके थे फिर अल्काजी के नाम का वह क्या जादू है जो उनके शिष्यों के शिष्यों के भी शिष्यों को उनके नाम के साथ जोडऩे में गर्व का अनुभव करवा रहा था? मेरे जैसे एकलव्य भी न जाने कहां-कहां और कितने होंगे जिन्हें यह कहते हुए फख्र होता है कि हमने अल्काजी साहब और उनके उत्कृष्ट रंगकर्म को लंबे समय तक निकट से देखा है. इतना ही नहीं, नाटक और नाट्य प्रदर्शन को देखने की तमीज, समझ और उसे परखने की कला उन्हीं से पाई है.

यह संयोगमात्र नहीं है कि शीर्षस्थ फिल्मकार श्याम बेनेगल और कथाकार उदय प्रकाश जैसे जाने कितने प्रबुद्ध रचनाकार होंगे जिन्हें लग रहा होगा, ''अब कभी कोई दूसरा अल्काजी नहीं होगा.'' अल्काजी अपनी रंगदृष्टि, मौलिक कल्पनाशीलता, अनुशासनप्रियता, उत्कृष्टता से कम पर कभी संतुष्ट न होने की प्रवृत्ति, सिद्धांतों पर डटे रहने की संकल्प-शक्ति जैसे गुणों के बीज तो वे अपने शिष्यों में शुरू से बोते आए थे. जिन्होंने उन गुणों को खाद-पानी देकर पोसा वे आज अपने कला-माध्यम के शिखर पर हैं. उन सबमें किसी न किसी रूप में अल्काजी जीवित हैं और उन्हीं के माध्यम से संस्कार आने वाली पीढिय़ों में परंपरा बनकर हमेशा जीवित रहेंगे.

अपने मन में अल्काजी से संबद्ध बेशुमार दिलचस्प और खट्टे-मीठे यादगार संस्मरणों का भंडार रखने वाले सुविख्यात रंगकर्मी रंजीत कपूर इस मौके पर फिराक गोरखपुरी के एक शेर के बहाने उनके तमाम शिष्यों को गर्व के साथ उनकी समृद्ध विरासत का हिस्सा बनाते हुए कहते हैं कि

सुनते हैं इश्क नाम के गुजरे हैं इक बुजुर्ग

हम सबके सब फकीर उसी सिलसिले के हैं

यह भी महज संयोग नहीं कि ब.व. कारंत, बी.एम. शाह, ओम शिवपुरी, सुधा शर्मा/शिवपुरी, मोहन महर्षि, कमलाकर सोनटक्के इत्यादि के सहयात्री रहे वरिष्ठ रंगकर्मी रामगोपाल बजाज तमाम अहसमतियों और विरोध के बावजूद अपने गुरु को याद करते हुए भावुक हो जाते हैं. उनका गला रुंध जाता है और आंखें डबडबा आती हैं. उद्धव के सामने कृष्ण को भेजे गोपियों के संदेश की तरह वे बिना कुछ बोले भी सब कुछ कह जाते हैं.

बाद की पीढिय़ों के पंकज कपूर, उत्तरा बावकर, रोहिणी हट्टंगड़ी, एम.के. रैना, नीलम मानसिंह चौधरी, अनुपम खेर, रघुवीर यादव, नादिरा बब्बर, राज बब्बर, अशोक सागर भगत, देवेंद्र राज अंकुर, सुशील कुमार सिंह, सबीना मेहता जेटली, डॉली अहलूवालिया, कमल तिवारी इत्यादि में से शायद ही कोई होगा जो हिंदी रंगमंच और स्कूल के उस स्वर्णकाल में अल्काजी के सक्चत अनुशासन और आतंक से आहत, दुखी और परेशान न हुआ हो. और अंतत: अपने प्रिय 'चचा' के उस 'दुर्व्यवहार' के असली मकसद और परोक्ष सहायता से उपकृत होकर उनका मुरीद न हो गया हो.

आज जिससे भी बात कीजिए, वह अल्काजी जैसे गुरु का शिष्य होने को अपना सौभाग्य मानता है और गर्व से स्वीकार करता है कि ''मैं आज जो कुछ भी हूं, जहां भी हूं, उन्हीं की वजह से हूं.'' अपनी तमाम आलोचनाओं और सीमाओं के बावजूद इस नाम के जादू का रहस्य क्या है? नाट्य निर्देशक के रूप में दिल्ली में कैलाश कॉलोनी के पीछे आषाढ़ का एक दिन जैसे संस्कृतनिष्ठ काव्यात्मक भाषा वाले मौलिक हिंदी नाटक की मुक्ताकाशी अभूतपूर्व प्रस्तुति, फिरोजशाह कोटला और पुराना किला के खंडहरों की विराट पृष्ठभूमि में अंधायुग, तुगलक और सुल्तान रजिया जैसे पौराणिक-ऐतिहासिक परिवेश, पात्रों, घटनाओं वाले बहुत बड़े फलक के नाटकों के भव्य और अत्यंत प्रभावशाली सफल प्रदर्शनों को व्यापक स्तर पर पहचान और प्रतिष्ठा का आधार माना जा सकता है.

डॉ. जयदेव तनेजा सुपरिचित रंग समीक्षक हैं

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