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थिएटरः फ्रेम में कनपुरिया मिजाज

समारोह के लिए टेंट वगैरह का हिसाब करने के बाद फिर वे एक सवाल पर आ अटके हैं: ''कानपुर के लिए एक अदद अच्छा ऑडिटोरियम आखिर कब बनेगा?''

सतह पर-गगन दमामा बाज्यो का दृश्य
सतह पर-गगन दमामा बाज्यो का दृश्य

कानपुर कराहता हुआ शहर है. 30 लाख से ज्यादा की आबादी. चरमराता बुनियादी ढांचा. बजबजाता बेपरवाह ट्रैफिक. इस दबाव ने लेकिन क्रिएटिविटी को अलग ढंग से उकसाया है. शहर की शान रही लाल इमली मिल की उदास कत्थई इमारत पर धातु रोगों से छुटकारे के विज्ञापन छप रहे हैं और जेके टेंपल के वाटरपार्क में उथली काई पर प्रेमाग्रही कपल्स अपने नाम उकेर रहे हैं. यह भी कि इतने सबके बावजूद कनपुरिए किसी हैरत या हड़बड़ी में नहीं. बातों को सरगम के श्ग्य से और ऊपर तानकर ढील देते हुए बोलने का कनपुरिया अंदाज भी कमोबेश कायम है.

इसकी एक झलक शहर के ग्रीन पार्क स्टेडियम से लगे सिविल लाइंस के मर्चेंट चैंबर हॉल में देख सकते हैं. शहर के 30 साल पुराने अनुकृति रंगमंडल का पांच दिन का राष्ट्रीय नाट्य समारोह शुरू होने ही को है. 400 से ऊपर की क्षमता वाले सर पदमपत सिंहानिया ऑडिटोरियम में हालचाल सत्र चल रहा हैः 'आंटी नम्स्ते', 'सोनू कहां रह गए? ', 'का श्रीवास्तवजी! बहुत दिन बाद दिखाई दिए'. मेजबान टीम का एक युवा कतार में बैठे सभी 8-10 अधेड़ों के पैर छू रहा है. आधा घूंघट निकाले कोई सजी बहू दोनों हाथ जोड़ सीनियर स्त्रियों का अभिवादन कर रही है. ज्यादातर लोग अनौपचारिक साज में हैं, दाढ़ी-मूंछ समेत, कुछेक तो गमछों में भी. सब छोटे-छोटे समूहों में चर्चाओं में मसरूफ. इशारा यही कि नाटक देर से शुरू हो बतरस का सत्र थोड़ा बड़ा हो ले.

खैर, 300 से ज्यादा दर्शकों के बीच, भगत सिंह पर केंद्रित, अभिनेता-लेखक पीयूष मिश्र के लिखे नाटक गगन दमामा बाज्यो से समारोह शुरू होता है. अनुकृति रंगमंडल के कलाकारों की देह में अपेक्षित लोच नहीं (ऐसी ही खामी अभिनय के प्रतिष्ठित संस्थानों में यहां के कलाकारों के दाखिले में रोड़ा बन रही है), पर शहर के वरिष्ठ रंग निर्देशक कृष्णा सक्सेना ने उनसे इस विचार प्रधान नाटक के तनाव की रक्षा करवा ली है. दर्शकों में मौजूद, मशहूर हिंदी कथाकार और अब अशक्त हो चले गिरिराज किशोर इसके टेक्स्ट की ताकत को रेखांकित करते हैं. मुंबई से आए, चंद्रकांता के क्रूर सिंह, अभिनेता अखिलेंद्र मिश्र भी जैसे मर्म पकड़ लेते हैं और अगली दोपहर रंगकर्मियों के बीच मास्टर क्लास में बातचीत वर्जिश, आसन, ध्यान, प्राणायाम के रूप में शारीरिक तैयारी के आसपास ही रखते हैं. 8-12 मार्च तक ग्वालियर, भोपाल, जयपुर, उन्नाव वगैरह के समूहों के 9 नाटकों से रोज 250-300 रंगप्रेमियों को भरपूर खुराक देकर जलसा खत्म होता है.

अनुकृति रंगमंडल का 30 साल में यह कुल 11वां नाट्य समारोह था. 25वां-30वां क्यों नहीं? ''ये समझिए कि थोड़े-थोड़े पैसे जुटाते हैं तब 2-3 साल में एक बार कर पाते हैं. बाहर से आने वाली टीमों को हम आने-जाने का न्यूनतम किराया और रहने-खाने का इंतजाम कर पाते हैं. इस दफा भी हम उन्हें अलग से कुछ नहीं दे पाए. पिछली बार से इसे बुक माइ शो को भी दिया था. इससे कुछ नहीं तो 4-5 दिन का लाइट का खर्चा निकल आता है.'' शहर के इस अकेले रंगमंडल के सचिव डॉ. ओमेंद्र कुमार (56) आंगिक और वाचिक में किसी तरह की गंभीरता या रोमांच घोले बगैर कहते हैं.

वैचारिकता के अतिरिक्त आग्रह के मुद्दे पर ओमेंद्र ने इप्टा से अलग होकर 1989 में अपना अलग समूह बनाया था. आज दिल्ली, मुंबई और अन्य जगहों के कलाकारों के लिए तो वे कानपुर के पहले संदर्भ व्यक्ति हैं ही, आसपास के शहरों-कस्बों में भी उन्होंने पैठ बनाई है. डेढ़ साल पहले जुड़े युवा उद्यमी सुमित को बाहर पढऩे गई उनकी चचेरी बहन ने ओमेंद्र के बारे में बताया. उन्हीं की टीम के विजयभान सिंह ने हाल ही पूरी हुई आशीष आर्यन की कनपुरिए फिल्म की शूटिंग के लिए रेकी की. 1992 में फिरोज खान के निर्देशन में फारुख शेख और शबाना आजमी अभिनीत नाटक तुम्हारी अमृता करवाकर उन्होंने शहर में हलचल मचा दी थी. आठेक साल पहले पत्रकारिता छोड़कर वे पूरी तरह थिएटर में आ गए.

सुबह नहा-धोकर दुर्गा सप्तशती और शाम को प्रेमचंद, मंटो या शंकर शेष के टेक्स्ट के साथ रिहर्सल करने में उन्होंने कोई विरोधाभास नहीं देखा. वे कहते हैं, ''नाटक आखिर जीवन को देखने का, विवेक को चौकस रखने का नजरिया ही तो देता है हमें. उस नजरिए से भीतर सतर्कता रहनी चाहिए.'' उनकी सक्रियता को देखते हुए इप्टा ने पिछले साल फिर उन्हें शहर इकाई से जोड़ लिया.

समारोह के लिए टेंट वगैरह का हिसाब करने के बाद फिर वे एक सवाल पर आ अटके हैं: ''कानपुर के लिए एक अदद अच्छा ऑडिटोरियम आखिर कब बनेगा?''

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