रोज वाली स्त्री (डायरी)
लेखिकाः सपना चमडिय़ा
प्रकाशकः संभव
कीमतः 80 रु.
अमूमन स्त्री की पहचान को चंद दायरों में समेट दिया जाता है. शादी के पहले पिता, शादी के बाद पति और मां बनने के बाद बेटे का हुक्म बजाना ही उसकी नियति मान ली जाती है. सपना चमडिय़ा की यह डायरी इसी तरह की रवायतों की न सिर्फ पहचान करती है बल्कि तर्क के साथ पुरुषप्रधान तंत्र का भेद खोलती है, चाहे वह प्रेम में लिपटा हो या सुरक्षा या जिम्मेदारियों के नाम पर. इसके लिए लेखिका ने नारी जीवन के हर पहलू पर रोशनी डाली है. मसलन, पति की पसंद-नापसंद का क्चयाल रखने से लेकर ठीक शाम छह से साढ़े छह बजे के बीच उसका इंतजार करने, अन्य सार्वजनिक जगहों पर एक्स-रे मशीन की तरह भेदती पुरुष नजरों का सामना करने तक, लेखिका ने मानो हर स्त्री के जज्बात को उड़ेल कर रख दिया है. उनकी कुछ स्मृतियां तो बेहद मार्मिक हैं, खासकर “एक नौ साल की बच्ची का बयान” और “डायन में तब्दील होती मेरी नानी” शीर्षक से लिखी गई स्मृतियां. जब वे नौ साल की थीं तो अपने घर के बैठकखाने में एक नाचने वाली को शादी-बारात के पुरुषों द्वारा नोचता-खसोटता देख सकते में रह गई थीं. इसी घटना ने उनमें विद्रोह की बुनियाद रखी. गौना होने से पहले विधवा हो गई उनकी नानी अपने देवर के सामने प्रेम-प्रस्ताव रखती हैं और बदले में अलग-थलग करके डायन तक करार दी जाती हैं. कुल मिलाकर डायरी के इन पन्नों में गांव-कस्बों की स्त्री के किस्से दर्ज हैं तो शहर की कामकाजी स्त्री भी. और इन मुश्किलों के बावजूद अपने लिए उनकी कोशिश ही उम्मीद बनकर उभरती है. किताब में कहीं-कहीं दोहराव लगता है और इससे बोझिलता आ गई है पर आम स्त्री के अनुभवों से गुजरना आंखें खोल देता है.
रोज वाली स्त्री: एक आम स्त्री का रोजानामचा
सपना चमड़िया ने इस किताब के जरिए अपने अनुभवों को सामने रखा है और आम स्त्री की जिंदगी पर बहसतलब टिप्पणियां की हैं.

अपडेटेड 7 मार्च , 2016
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