इस दुनिया में मुझे अपने उसूलों के हिसाब से रिश्ते चुनने की जरूरत कभी नहीं पड़ी, बल्कि रिश्ते मेरे लिए सबसे बड़ा उसूल बन जाते हैं. जीवन और संबंधों में थोड़ी सहजता बना ली जाए तो हम सब के लिए इन्हें निभाना आसान हो जाता है.” समय बदला है. पहले से ज्यादा बोल्ड हुआ है. समय के साथ नया लेखन भी बदला है. लेकिन इस कठोर समय में दरकते इंसानी रिश्तों के बीच, मानवीय संबंधों पर एक नई लेखिका का यह बयान ध्यान खींचता है. आश्वस्त करता है कि नहीं! जीवन बचा है अभी, थोड़ा ही सही लेकिन जीने के लिए बची है दुनिया,कहीं किसी शांत टापू पर.
अंशु त्रिपाठी का हालिया उपन्यास मुझे स्वीकार है मानवीय-रिश्तों के मर्म से लबरेज है. यहां प्रेम-त्रिकोण है. साफ-सुथरा-समर्पित प्यार है. संबंधों की यात्रा है. कथा-विस्तार है. मन मुटाव हैं. लेकिन लेखिका ने किसी पात्र पर सही या गलत की मुहर नहीं लगाई है. एक घटनाक्रम प्रस्तुत किया है जो अपनी रौ में बहता है. हर पात्र अपनी कमजोरियों और खामियों से रू-ब-रू होता है. अपनी जगह बनाता और बताता है. अपनी भाषा और पहचान बनाता है. भाषा में सहजता और गूढ़ता का द्वंद्व है. और शैशवता से निकलने की छटपटाहट है. अंशु अच्छा लिखती हैं. लेकिन एक उपन्यासकार के नाते, उन्हें भाषा की सहजता को पकडऩे का जतन करना होगा. वह भी बहुत जल्द और तेजी के साथ.
अंशु त्रिपाठी का हालिया उपन्यास मुझे स्वीकार है मानवीय-रिश्तों के मर्म से लबरेज है. यहां प्रेम-त्रिकोण है. साफ-सुथरा-समर्पित प्यार है. संबंधों की यात्रा है. कथा-विस्तार है. मन मुटाव हैं. लेकिन लेखिका ने किसी पात्र पर सही या गलत की मुहर नहीं लगाई है. एक घटनाक्रम प्रस्तुत किया है जो अपनी रौ में बहता है. हर पात्र अपनी कमजोरियों और खामियों से रू-ब-रू होता है. अपनी जगह बनाता और बताता है. अपनी भाषा और पहचान बनाता है. भाषा में सहजता और गूढ़ता का द्वंद्व है. और शैशवता से निकलने की छटपटाहट है. अंशु अच्छा लिखती हैं. लेकिन एक उपन्यासकार के नाते, उन्हें भाषा की सहजता को पकडऩे का जतन करना होगा. वह भी बहुत जल्द और तेजी के साथ.