जब वीकेंड पर उनके दोस्त चहल-पहल भरे मॉल का रुख करते हैं, तब 20 वर्षीया महक मेहता (बदला हुआ नाम) दिल्ली के पहाडग़ंज की उस गली की ओर अपने कदम बढ़ा लेती हैं, जिसे 'हैशर्स स्ट्रीट’ के नाम से जाना जाता है. उनके हमसफर हैं इतालवी नक्काशी वाली खूबसूरत चिलम और वीड क्रशर. तरह-तरह की हशीश या चरस बेचने वाली दुकान स्मोकर्स कॉर्नर पर पहुंचकर वे हैश ऑयल के नए जायकों का जायजा लेती हैं, फिर केरला गोल्ड (शुद्ध हशीश) में अपनी पसंद का फ्लेवर मिलाकर चिलम भरती हैं और पलभर में भीनी गंध वाले मादक गाढ़े धुएं में रम जाती हैं.
दिल्ली यूनिवर्सिटी में सेकंड ईयर की आर्ट स्टुडेंट महक कहती हैं, ''जब तक मैं हशीश के सुरूर में न आऊं, तब तक अगले हफ्ते के तनाव को झेलने के बारे में सोच भी नहीं सकती. कश लगाना आरामदायक और प्रेरणादायक दोनों ही है.” अकेले महक ही नहीं, देशभर में नई पीढ़ी का एक बड़ा वर्ग चरस और गांजे के कश में मदहोश झूम रहा है. कैंपस हो या नाइटक्लब या पार्टी, चरस और गांजा आज 'कूल’ होने का पर्याय है. चरस और गांजे की किस्मों एम्सटर्डम ड्रीम, मलाना क्रीम और बॉम्बे ब्लैक जैसे नाम युवा पीढ़ी की जुबान पर हैं और जेब में चिलम और रोलिंग पेपर. मुंबई के एल.एच. हीरानंदानी अस्पताल में सोशल साइकिएट्रिस्ट हरीश शेट्टी कहते हैं, ''चरस तो मिंट और चॉकलेट की तरह आम हो गई है; यहां तक कि 12 साल के बच्चे भी मनोरंजन के लिए इसके नशे में डूब रहे हैं. इस शौक का प्रकोप इस कदर फैल रहा है कि मुंबई के विले पार्ले, दादर और नवी मुंबई जैसे पुरातनपंथी इलाकों में भी इसने अपना शिकंजा जमा लिया है.”
हशीश या चरस एक किस्म का पौधा होता है. तकरीबन दो फीट ऊंचे इन पौधों की पत्तियों को सुखाकर उससे हशीश बनाई जाती है. और फिर इसे पाइप या फिर कागज में भरकर सिगरेट की तरह पिया जा सकता है. इससे नशा चढ़ता है, उनींदापन भी आता है, लेकिन कोकीन की तरह मतिभ्रम नहीं होता. इसलिए नौजवान पीढ़ी में यह काफी लोकप्रिय नशा है.
इसके समर्थन में एक दलील यह दी जाती है कि यह ''सिगरेट से ज्यादा सुरक्षित” होती है. इसकी लत नहीं लगती और यह ''भारत की आध्यात्मिक परंपरा” का हिस्सा है. लेकिन हशीश से अकसर व्यवहार संबंधी गड़बड़ियां पैदा हो जाती हैं और याददाश्त को नुकसान पहुंचने का खतरा रहता है. परीक्षा में खराब प्रदर्शन करने वाले और कमजोर याददाश्त वाले इसके शिकार कई बच्चों का इलाज कर चुके डॉ. शेट्टी कहते हैं कि इसके खतरनाक असर को नजरअंदाज किया जाता है लेकिन इसका खतरा सेवन करने वाले को ही होता है क्योंकि बाकी नुकसानदायक चीजों की तरह इसे छोडऩे के बाद इसके प्रत्यक्ष लक्षण महसूस नहीं होते.
दिल्ली की 'हैशर स्ट्रीट’ में करीब 10 दुकानों की कतार को देखकर इस नशे की मांग का अंदाजा लगाया जा सकता है, जो इटली की चिलम से लेकर दक्षिण अमेरिकी ऑर्किड की खुशबू वाले रोलिंग पेपर से पटी पड़ी हैं. यहां की दुकानों पर हशीश से जुड़ा हर तरह का सामान खुलेआम बिकता है—तरह-तरह की पाइप, मेकेनिकल जॉइंट रोलर्स, वीड क्रशर, रोलिंग पेपर, चिलम क्लीनर, वीड रखने के लिए डिब्बी, हशीश का तेल निकालने वाली मशीन, सुइयां, हुक्का और तंबाकू के मिश्रण. शौकीनों को अपने अड्डे पता हैं. इस जगह की भीड़ में इजाफा करने वाले गुपचुप हशीश का जुगाड़कर यहां धुएं के छल्ले उड़ाते रहते हैं.
एक दुकान के मालिक बताते हैं, ''पिछले पांच साल में मेरा बिजनेस काफी बढ़ा है.” अब तो कोका-कोला और चिप्स की तरह चरस और गांजा पार्टियों की जरूरत बन गए हैं. हमारे अधिकतर ग्राहक स्कूल या कॉलेज के बच्चे होते हैं. वे अपनी जेब ढीली करने के लिए तैयार रहते हैं. वह चाहे 200 रु. वाली टेराकोटा चिलम हो या फिर 3,000 रु. की एम्सटर्डम वीड जैसी खास हशीश.
अध्ययनों से पता चलता है कि भांग की मांग भी तेजी से बढ़ी है. नशीले पदार्थों और अपराध पर संयुक्त राष्ट्र कार्यालय की, 2012 वर्ल्ड ड्रग रिपोर्ट कहती है कि 2002 से 2010 के बीच भारत भांग का प्रमुख सप्लायर रहा है. हैश आसानी से मिल जाती है, सस्ती होती है, शहरों में खूब होती है, इसलिए आज इसका सेवन करने वालों की उम्र पहले के 17-18 से घटकर 12 वर्ष तक आ गई है. अब वे दिन लद गए जब ऐसी चीजों के लिए अंधेरी गलियों के कोटरों में नजरें बचाकर जाना होता था. आज तो पड़ोस की पान की दुकान से लेकर महंगे नाइटक्लब के बैरों और कॉलेज कैंपस के बाहर खड़े दलालों तक सिर्फ एक झटके में हर कोई पहुंच सकता है.
दिल्ली के साकेत और वसंत कुंज जैसे महंगे इलाके हों या मुंबई का कोलाबा या फिर पुणे के नाइटक्लब और लाउंज, नशा और मदहोशी के आलम में पहुंचने के लिए सिर्फ हजार रु. का पत्ता ढीला करने की देर होती है. बंगलुरू में जानने वाले दलाल 10 ग्राम हैश सिर्फ 1,200 रु. से 2,000 रु. के बीच थमा सकते हैं. माल की कीमत क्वालिटी पर निर्भर करती है.
आम तौर पर माता-पिता और शिक्षकों को तो अंदाजा भी नहीं होता कि हशीश दिखती कैसी है. उससे पैदा होने वाली व्यवहारगत विकृतियों का इलाज कर चुके शेट्टी बताते हैं कि बच्चे नशा करने के बाद घर लौटने से पहले उसके असर को साफ करने के लिए आंखों में दवा डाल लेते हैं. दिल्ली के एक बड़े प्राइवेट स्कूल की 15 वर्षीया छात्रा रिया कपूर (नाम बदला हुआ) कहती है, ''मैं तो अपनी टीचर की नाक के नीचे जॉइंट के कश लगाती थी और वे सोचती थीं कि मैं सिगरेट पी रही हूं. मेरे स्कूल की किसी भी टीचर को अंदाजा नहीं है कि हशीश कैसी होती है.”
अकादमिक जानकार मानते हैं कि बच्चों को नशे से दूर रखने के लिए उनको बच्चों का मनोविज्ञान समझने की जरूरत है. दिल्ली के श्रीराम स्कूल के पूर्व डायरेक्टर और गुडग़ांव के कुंसकाप्सकोलन स्कूल के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर मार्क पार्किंसन कहते हैं, ''स्कूली बच्चों में स्मोकिंग की लत तेजी से बढ़ती जा रही है और इस विषय में शिक्षकों को और ज्यादा जागरूक होने की जरूरत है. ऐसा करने वाले बच्चों को लगता है कि यह मजे के लिए है और इसकी लत नहीं पड़ेगी. वे जब चाहें इसे छोड़ सकते हैं. उनका दिमाग बदलने के लिए उनकी जरूरतें और प्राथमिकताएं समझनी होंगी. मैं खुद बचपन में स्मोकिंग करता था, इसलिए इतना जानता हूं कि डांट-मार या धमकी से इससे नहीं निबटा जा सकता.”
यह एक बड़ी पहेली है कि नशे का साजो-सामान आता कहां से है. यह पूछना ही गलत होगा, क्योंकि अगर आपको सही आदमी का पता है तो मिनट भर में वह तोलाभर (10 ग्राम) हैश आपके हाथ में धर देगा. मसलन, मुंबई में अपनी खुराक पाना उतना ही आसान है जितना कोलाबा कॉजवे से गेटवे ऑफ इंडिया की तरफ टहलते हुए निकल जाना. जो नशे के आदी हैं, वे दलालों को पहचान लेते हैं. दलाल या तो घर पर माल पहुंचा जाता है या फिर सप्लायर के पास ले जाता है. सस्ता माल चाहिए तो डॉक के आस-पास मिल जाता है. नियमित हैश का सेवन करने वाली मुंबई की 22 वर्षीया आर्किटेक्ट नेहा माथुर बताती हैं, ''इसके सेवन के लिए कुछ सस्ते बार बिलकुल सही ठिकाने हैं. बार में गांजे का सेवन होता है.”
पानवाला अकसर हैश मुहैया कराने वाला ऐसा शख्स निकलता है जिस पर किसी को कोई शक नहीं होता. दुकान के एक कोने में हैश रखी रहती है और नियमित ग्राहक यहां आकर बेधड़क इसे खरीद लेते हैं.
दिल्ली में सॉफ्टवेयर प्रोफेशनल 27 वर्षीया गीतू नायर कहती हैं, ''दिल्ली में आज 10 साल पहले के मुकाबले गांजा हासिल करना ज्यादा आसान हो गया है. पहले तो पालिका बाजार की कुछ अंधेरी दुकानों में ही यह मिलता था, लेकिन आज जंगपुरा, आइएनए, वसंत कुंज और साकेत जैसे महंगे इलाकों में भी मिल जाता है. बस, वहां जाकर सहज तरीके से पूछना होता है और वह ऐसे आपको डिब्बा थमा देगा जैसे जैम या मिंट दे रहा हो.” कुछ नाइटक्लब में नियमित जाने वालों के लिए हैश रखी जाती है. मुंबई में इन्वेस्टमेंट बैंकर 28 वर्षीय अभिषेक कामरा कहते हैं, ''मैं तो बस मैनेजर को एसएमएस कर देता हूं कि दोस्तों के साथ आ रहा हूं और वह तैयार रखता है.”
एक ओर जहां स्थानीय दुकानदार मांग के मुताबिक कई 'पैकेट’ मुहैया करा सकते हैं तो दूसरी ओर छात्र अकसर कैंपस के बगीचे में ही इसकी खेती शुरू कर देते हैं. बॉम्बे हाइकोर्ट में सीनियर क्रिमिनल लॉयर नितिन प्रधान कहते हैं, ''बिना लाइसेंस के भांग उगाना अपराध है, लेकिन जागरूकता की कमी, पुलिस की लापरवाही और भ्रष्टाचार की वजह से यह धड़ल्ले से हो रहा है.” कुछ नौजवान दोस्तों के दबाव के हवाले से नशा करने का बहाना खोज लेते हैं तो कुछ इसे तनाव दूर करने का रामबाण बताते हैं.
हशीश का नशा करने वाले इसके 'कूल’ होने के अलावा यह भी दलील देते हैं कि यह सुरक्षित है क्योंकि इससे किसी बड़ी शारीरिक हानि का अब तक कोई मामला सामने नहीं आया है. लेकिन चिकित्सक इस तरह के झूठे प्रचार को सिरे से खारिज कर देते हैं.
गुडग़ांव के एफएमआरआइ में मेंटल और बिहेवियरल साइंस के डायरेक्टर डॉ. समीर पारिख पिछले दो साल में हैश का नशा करने वालों की संख्या में दोगुनी बढ़ोतरी के गवाह रहे हैं. वे कहते हैं, ''किसी मल्टीप्लेक्स में पॉपकॉर्न खाने और फिल्म देखने से ज्यादा सस्ता एक जॉइंट है जो 150 रु. में आता है. बच्चों को लगता है कि सिगरेट के मुकाबले हैश सुरह्नित है.
किशोरावस्था में जोखिम उठाने की प्रवृत्ति की वजह से बच्चे बड़े पैमाने पर नशे के आदी बन जाते हैं.” वे चेतावनी देते हैं कि इसे लगातार लेने से दिमाग ठस हो जाता है और इस तरह सामाजिक तथा प्रोफेशनल क्षमताएं भी प्रभावित होती हैं.
गुडग़ांव में बैंक एग्जीक्यूटिव के तौर पर काम करने वाली 26 वर्षीया शिल्पा खन्ना (नाम बदला हुआ) ''खुद को शांत करने के लिए” जॉइंट के कश लगाती हैं क्योंकि ''इससे परेशानियां भूलने में मदद मिलती है.” नौजवानों के बीच हैश के चलन पर एम क्रीम नाम की फिल्म लेकर आ रहे लेखक-निर्देशक 27 वर्षीय आग्नेय सिंह कहते हैं, ''हैश नौजवानों के बीच और कैंपसों में खूब लोकप्रिय है. हैश नई तरह की संस्कृति विकसित कर रही है जहां युवा पीढ़ी समाज के दायरे को विस्तार देते हुए सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक अनिश्चितता को चुनौती दे रही है.”
कुछ शहरी माता-पिता अब बगावती बच्चों को डांटने-मारने की बजाए उन्हें कभी-कभार हशीश पीने देने का समर्थन करने लगे हैं. मसलन, चंडीगढ़ की 42 वर्षीया स्मिता कल्याणी का अपने 18 बरस के बेटे के साथ एक समझौता है कि वह घर पर नहीं, लेकिन पार्टियों में हशीश ले सकता है. वे कहती हैं, ''उसे तो वैसे भी हशीश पीनी ही है, तो बेहतर यही है कि बच्चों से दोस्ती कायम रखी जाए ताकि उसे कम-से-कम शराब-सिगरेट की लत तो न लगे.”
हशीश का सेवन नारकोटिक ड्रग्स ऐंड साइकोट्रोपिक सब्स्टांसेज (एनडीपीएस) ऐक्ट, 1985 के तहत दंडनीय अपराध है. इसके तहत जुर्माना से लेकर छह महीने से 10 साल तक की सजा का प्रावधान है. सजा नशीले पदार्थ की मात्रा पर निर्भर करती है. अपराध और दंड का विवरण एनडीपीएस कानून के चैप्टर 4 में दिया गया है. इसके बावजूद देशभर में अकसर पुलिस और अफसरों की नाक के ठीक नीचे यह धड़ल्ले से बिक रही है और जमकर इसका सेवन किया जा रहा है.
नितिन प्रधान कहते हैं, ''पुलिस को भले ही इस कारोबार के बारे में सब जानकारी हो, लेकिन वे राजनैतिक बाध्यताओं और भ्रष्टाचार के कारण अपनी आंखें मूंद लेते हैं. मुझे लगता है कि नशे के कारोबार से जो पैसा आ रहा है, वह आतंकी और नक्सली गतिविधियों में लगाया जा रहा है. शायद किसी को भी एनडीपीएस कानून के तहत अब तक मौत की सजा नहीं दी गई है, हालांकि दूसरी बार अपराध करने पर मौत की सजा का प्रावधान है.”
आग्नेय सिंह का मानना है कि हशीश के सेवन को अपराध की श्रेणी में नहीं होना चाहिए. वे कहते हैं, ''कई देशों में इसे अपराध से बाहर किया जा रहा है. नौजवानों को अपनी पसंद का नशीला पदार्थ चुनने की आजादी होनी चाहिए. इससे तस्करी रुकेगी और कीमतें घटेंगी.”
हशीश कल्चर चारों ओर फल-फूल रहा है. ऐसे में यह मायने नहीं रखता है कि यह अपराध की श्रेणी में आए या नहीं. बस यही फर्क आया है कि मिट्टी की चिलम और स्थानीय गांजे की जगह आज 3,000 रु. की इतालवी पाइप, जायकेदार कश, खाने के जायके वाला हशीश ऑयल, उच्च शुद्धता वाला जमैका का गांजा, रॉयल अफगानी हशीश और गणेशा ड्रीम वीड ली जा रही हैं. दिल्ली की 'हैशर स्ट्रीट’ में रितुल सिंह की हशीश की दुकान पर स्टील के स्टीवन टाइलर डिब्बे में रखा है विशुद्ध एम्सटर्डम प्राइड (5,000 रु. प्रतिग्राम का बेहतरीन मिश्रण) जिसके बाहर लिखा है, ''जिंदगी दो पल की है, इसे धुएं में उड़ा दो.” परमानंद की अवस्था में आने की जो बेचैनी आज हर ओर है, उसके लिए इससे बेहतर शब्द और क्या हो सकते हैं!
—साथ में आयशा अलीम और जे. बिंदुराज