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इंडिया टुडे कॉन्क्लेव 2025 : जियोपॉलिटिक्स से तकनीक तक, कितनी तेजी से बदल रही दुनिया?

इसी मार्च के दूसरे हफ्ते में 22वां इंडिया टुडे कॉन्क्लेव संपन्न हुआ. मौजूदा समय में एआई और नए अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप दुनिया में भारी उथल-पुथल मचा रहे हैं. ऐसे में कुछ जानी-मानी शख्सियतों ने जाहिर किया कि नई विश्व व्यवस्था में क्या कदम उठाए जाएं

स्वागत भाषण के दौरान अरुण पुरी, चेयरमैन तथा प्रधान संपादक, इंडिया टुडे ग्रुप
स्वागत भाषण के दौरान अरुण पुरी, चेयरमैन तथा प्रधान संपादक, इंडिया टुडे ग्रुप
अपडेटेड 27 मार्च , 2025

हम इतिहास के चौराहे पर खड़े हैं. हॉलीवुड की काउबॉय फिल्मों की शब्दावली में कहें, तो शहर में नया शेरिफ आया है. वह है डोनाल्ड जे. ट्रंप. और यह कोई अदना-सा शहर नहीं है. यह अमेरिका है. दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और इकलौती महाशक्ति. और उसने बेहतर सौदे हासिल करने के लिए क्या दोस्त क्या दुश्मन, सबकी कनपटी पर बंदूक तान दी है.

वह उस विश्व व्यवस्था को नेस्तनाबूद करने पर आमादा है जिसे अमेरिका ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद 1945 में बनाया था. वह व्यापार को धारदार औजार बना रहा है. वह दावा कर रहा है कि सहयोगी देशों ने भी अमेरिका का खूब फायदा उठाया है. अपने चरित्र के अनुरूप वह दो एक-दूसरे से उलट भूमिकाओं में खड़ा है.

उसने अमेरिका को डब्ल्यूएचओ और पेरिस जलवायु समझौते सरीखे अंतरराष्ट्रीय सांस्थानिक ढांचे से बाहर निकाल लिया है, और मुझे यकीन है कि और भी संस्थाओं से बाहर निकालेगा. उसे अमेरिका के लिए कोई वित्तीय फायदा नजर नहीं आता, तो वह बाहर निकलना चाहता है. दूसरी तरफ, वह किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के सीईओ की तरह बर्ताव कर रहा है, जो कुछेक अधिग्रहण करना चाहता है. वह कनाडा को अमेरिका का 51वां राज्य बनाना और पनामा नहर, ग्रीनलैंड और गाज़ा का अधिग्रहण करना चाहता है.

वह यूक्रेन को छोड़ रूस के साथ बातचीत करके यूक्रेन युद्ध को भी खत्म करना चाहता है. यूक्रेन से वह बस इतना चाहता है कि वह अमेरिका को अपने दुर्लभ खनिजों के उत्खनन का अधिकार सौंप दे, और ऐसा वह उस सारी सहायता की एवज में करे जो उसे पहले दी जा चुकी है. चौंकाने वाली बात यह कि सहायता को कर्ज में बदला जा रहा है, वह भी किन्हीं सुरक्षा गारंटियों के बिना, जिनकी यूक्रेन को बेतहाशा जरूरत है.

उसके मन में संयुक्त राष्ट्र के उस घोषणापत्र के प्रति जरा सम्मान नहीं है जो देशों से एक दूसरे के भूभाग का सम्मान करने की मांग करता है, या न ही उन वैश्विक संस्थाओं के प्रति कोई सम्मान है जहां मुक्त व्यापार के नियमों पर रजामंदी बनी थी.

राष्ट्रों के बीच सभ्य आदान-प्रदान और कूटनीति की भाषा और प्रोटोकॉल, सबमें उथल-पुथल मची है. पुराना सांचा टूट रहा है और उसकी जगह अराजकता का एहसास तारी है. उसे पद पर आए महज 47 दिन ही हुए हैं. लगता है, भूराजनीति रियलिटी टीवी शो में तब्दील हो गई है. तो आगे दिलचस्प वक्त आने वाला है. एक अमेरिकी पत्रकार ने कहा, "यह मेरा देश नहीं होता, तो मैं पॉपकॉर्न खाता और मजे से तमाशा देखता." मजाक बरतरफ, अमेरिका जो भी करता है, उसके सभी पर गंभीर असर पड़ते हैं.

ट्रंप ने बेहतर सौदे के लिए क्या दोस्त और क्या दुश्मन सबकी कनपटी पर बंदूक तान दी है

इस कॉन्क्लेव की थीम है तेजी का युग. इसका अर्थ है कि बदलाव न सिर्फ आ रहा है, बल्कि तेज से तेजतर होता जा रहा है. हम कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि डोनाल्ड जे. ट्रंप हमारी थीम को वैधता देने के लिए इतनी जल्द रफ्तार तेज कर देंगे. धन्यवाद, राष्ट्रपति महोदय. आज माइकल आर. पोम्पियो हमारे बीच होंगे, जो ट्रंप के पहले कार्यकाल में तकरीबन तीन साल उनके विदेश मंत्री थे.

मुझे यकीन है कि उनसे हमें डोनाल्ड ट्रंप के दिमाग और कार्यशैली के बारे में कुछ गहरी बातें जानने को मिलेंगी. अमेरिकी वाणिज्य मंत्री हॉवर्ड लुटनिक भी सैटेलाइट के जरिए लाइव हमारे साथ होंगे और सबसे सरगर्म विषय—टैरिफ—पर चर्चा करेंगे. अमेरिका के बदलावों के अलावा दूसरी ताकतवर शक्तियां भी हैं जिनका हमारी जिंदगियों पर असर पड़ेगा. वह है टेक्नोलॉजी.

खासकर कंप्यूटिंग की ताकत में हैरतअंगेज इजाफे ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को जन्म दिया. यह कार्यस्थल से लेकर राजनीति और यहां तक कि नीतिशास्त्र तक हमारी जिंदगियों के हर पहलू का कायापलट कर रही है. हम अभी भी इसी जद्दोजहद में लगे हैं कि यह वरदान है या अभिशाप. तिस पर भी टेक्नोलॉजी की कूच को रोकना नामुमकिन है. जब ईलॉन मस्क ट्रंप प्रशासन के ऐन बीचोबीच हों, तो चर्चा 'टेक्नो-फासिज्म' की भी चल रही है.

यह टेक्नोलॉजी की भाषा में बोलती परम सत्ता है. सरकार और समाज के सारे पहलुओं का टेक्नोलॉजीकरण हो रहा है. कोई बस इतना ही कर सकता है कि फायदे गंवाए बिना इसे नियम-कायदों के दायरे में लाए. भविष्यवाणी की गई है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस भविष्य में ह्यूमन इंटेलिजेंस या मानव बुद्धि को पीछे छोड़ देगी. वे इसे सिंग्यूलैरिटी या निरालापन कह रहे हैं. आप इस पर उत्तेजना या कंपकंपी का एहसास कर सकते हैं. मेरे मन में अलबत्ता कुछ सवाल हैं:

अगर मशीनें ही सब करेंगी, तो इंसान क्या करेंगे? नौकरियां कहां से आएंगी? लोगों की आमदनी का स्रोत क्या होगा? अर्थव्यवस्था उपभोक्ता के बिना नहीं चल सकती. अपनी नौकरियों से हाथ धो बैठने वालों में नाई शायद सबसे आखिरी होंगे! कम से कम मैं तो अपने बाल एआइ की शक्ति से संचालित रोबॉट से कभी न कटवाऊं.

अपने टेक मानव संसाधनों की बदौलत भारत के पास एआई का अहम खिलाड़ी बनने की क्षमता है. यह बात प्रधानमंत्री की जानकारी में है और उन्होंने 10,300 करोड़ रुपए का भारत एआइ मिशन बनाया है. एआइ के नवोन्मेषियों में से एक सैम ऑल्टमैन ने हाल की भारत यात्रा में कहा कि भारत को एआइ क्रांति के अगुआओं में से एक होना चाहिए.

टेक्नोलॉजी हमें देशों से परे सोचने के लिए भी उकसाती है. डोनाल्ड ट्रंप पसंद करें या न करें, लेकिन वैश्वीकरण बदलाव की चालक शक्ति बना रहेगा. हम आपूर्ति शृंखलाओं, दूरसंचार और लोगों के विवादास्पद प्रवासन के जरिए भी एक दूसरे से जुड़े हैं. वैश्वीकरण भलाई की ताकत रहा है और आगे भी रहेगा. 1960 से 1 अरब से ज्यादा लोगों को गरीबी से ऊपर उठाने का अनुमान लगाया जाता है. अमेरिका के मौजूदा रवैए की वजह से इसकी रफ्तार को झटका लग सकता है, लेकिन इसका आगे बढ़ना अपरिहार्य है. अंतरराष्ट्रीय व्यापार का बस पुनर्गठन भर होगा.

दूसरी टेक्नोलॉजी जो दुनिया को बदल देंगी और बदल रही हैं, वे हैं सिंथेटिक बायोलॉजी, जिसमें जीन को बांटा जाता है, और ब्लॉकचेन पर आधारित क्रिप्टोकरेंसी. एक स्वास्थ्य सेवा को बदल देगी, तो दूसरी अर्थव्यवस्था की साज-संभाल के तरीकों को बदलकर रख देगी. दोनों ही टेक्नोलॉजी एआई के बढ़ते रथ की बदौलत हैं.

भू-राजनीति में तो हम कुछ अहम बदलावों की उम्मीद कर सकते हैं.

● अमेरिका के इकलौती महाशक्ति होने के बजाए चीन गंभीर चुनौती के रूप में उभर रहा है. इस वक्त एक डाइट डिक्टेटरशिप है और दूसरा शी के आजीवन राष्ट्रपति होने के साथ लगभग पूर्ण डिक्टेटरशिप. वे प्रतिद्वंद्वी हैं, लेकिन उन्हें एक दूसरे की जरूरत है. ट्रंप चीन के साथ चाहे जितना भी कठोर और निर्मम व्यवहार करना चाहें, उन्हें याद रखना होगा कि वे लंबे खेल में उलझे हैं. अगर वे यूक्रेन का कुछ हिस्सा रूस को सौंप देते हैं, तो चीन उन्हें आजमाकर ताइवान पर धावा बोल सकता है.

● ट्रंप ने ट्रांस-अटलांटिक गठबंधन को कमजोर कर दिया, लेकिन इस प्रक्रिया में यूरोप भी एकजुट हो गया. पुतिन के साथ उनके मधुर रिश्ते अलबत्ता उनके लिए चिंता का सबब होंगे

● भारत से अमेरिका और चीन दोनों अच्छे रिश्ते रखना चाहेंगे.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पल-में-रत्ती-पल-में-माशा ट्रंप को संभालकर इस उथल-पुथल भरे समुद्र के बीच बहुत हुनर से रास्ता निकाला. उन्होंने होमवर्क किया और ट्रंप के दिल के करीब रही हार्ले-डेविडसन मोटरसाइकिलों और बॉर्बन व्हिस्की सरीखी चीजों पर शुल्क अमेरिका यात्रा से पहले ही घटा दिए. वे अनुभवी नेता हैं, जो 24 साल उच्च सार्वजनिक पदों पर रहे हैं. भारत खुशकिस्मत है कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर वे अगुआई कर रहे हैं. ऐसे नेता जिन्हें दुनिया गंभीरता से लेती है. किसी पूर्व कॉमेडियन या रियलिटी टीवी के सितारे की तरह नहीं.

ट्रंप की नीतियों के गैर-इरादतन नतीजों में एक यह होगा कि भारत अर्थव्यवस्था को बेहद जरूरी आक्रामकता के साथ खोले और विदेशी निवेश को बढ़ाने के लिए नियम-कायदों में ढील दे. संकट से घिरे होने पर हम हमेशा बेहतर करते हैं. और संकटों की तो कोई कमी है नहीं.

हम जलवायु परिवर्तन से घिरे हैं, जो तमाम संकटों की जननी है. यह तेजी से बढ़ रहा है और सब कुछ पर असर डाल रहा है. और यहां उस देश के राष्ट्रपति हैं जो ऐतिहासिक रूप से बदतर प्रदूषक रहा है. और वह मानने को भी तैयार नहीं है. जब तक दुनिया एकजुट होकर काम नहीं करेगी, यह संकट भावी पीढ़ियों के लिए भीषण विरासत छोड़कर जाएगा.

महाकुंभ का जिक्र भी करना ही होगा, जिसके 45 दिनों में 66 करोड़ लोग प्रयागराज में इकट्ठा हुए. यह दुनिया का सबसे बड़ा जमावड़ा था. इसके वास्तुशिल्पी उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री योगी आदित्यनाथ हैं.

लोकतंत्र तभी जिंदा रहता है जब सत्ता में बैठे लोग लोकतांत्रिक मूल्यों में यकीन करते हैं. संस्थाओं के संतुलन तभी काम करते हैं जब सत्ता में बैठे लोग मूल्यों का सम्मान करते हैं. डोनाल्ड ट्रंप इतनी मजबूत संस्थाओं वाले देश में जांच एजेंसियों को हथियार बना रहे हैं और प्रतिद्वंद्वियों को प्रताड़ित कर रहे हैं. लोकतंत्र तभी जिंदा रहता है, जब सच्ची सूचनाओं का स्वतंत्र प्रवाह हो. यह लोकतंत्र की ऑक्सीजन है. यह शासकों और शासितों के बीच संवाद है.

— अरुण पुरी, प्रधान संपादक और चेयरमैन (इंडिया टुडे समूह).​​​​​​

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