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सरकार की वो रणनीति क्या है जिससे सालभर में खत्म होगा माओवाद?

इंडिया टुडे की इस कवर स्टोरी में पढ़िए नक्सलियों के खतरे को जड़ से मिटा डालने के मोदी सरकार के ठोस अभियान की अंदरूनी कहानी. सरकार का दावा है कि मार्च 2026 तक भारत नक्सल खतरे से पूरी तरह मुक्त हो जाएगा

दंतेवाड़ा जिले में छत्तीसगढ़ पुलिस की कमांडो यूनिट की टुकड़ी, नवंबर 2024
दंतेवाड़ा जिले में छत्तीसगढ़ पुलिस की कमांडो यूनिट की टुकड़ी, नवंबर 2024
अपडेटेड 17 मार्च , 2025

मार्च बस शुरू ही हुआ है, हवा में वसंत की गंध है और महुआ के पेड़ खिल उठे हैं, उनकी लाल छटा मध्य भारत के राज्य छत्तीसगढ़ के बस्तर में साल वन की घनघोर हरियाली में अलग ही रंग घोल रही है. ऊपर उड़ते बीएसएफ (सीमा सुरक्षा बल) के हेलिकॉप्टर की खिड़की से इंद्रावती नदी प्रकृति की इस मनमोहक छटा को नीले फीते से लपेटती दिखती है.

वैसे, यह सुंदर सुरम्य छवि छलावा है. नीचे डरावने जंगलों में केंद्रीय और राज्य सशस्त्र पुलिस बल के जवान मरने-मारने पर उतारू हिंसक वामपंथी उग्रवादियों (एलडब्ल्यूई) या नक्सलियों के खिलाफ खूनी जंग में उलझे हुए हैं, जो पिछले छह दशकों से देश में आंतरिक सुरक्षा की सबसे बड़ी चुनौती बने हुए हैं.

यह ऐसी जंग है, जो बड़ी भारी कीमत ले चुकी है. पिछले 20 साल में 2,344 पुलिस जवानों ने नक्सलियों से लड़ते हुए जान गंवाई है, जो 1999 की करगिल जंग में मारे गए सेना के जवानों की संख्या से चार गुना ज्यादा है. दरअसल, जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों से लड़ने के मुकाबले नक्सलियों से लड़ाई में ज्यादा पुलिसवालों की जान गई है, जो हाल तक देश में आंतरिक सुरक्षा के लिए दूसरा बड़ा खतरा थे. हताहत आम लोगों की संख्या भी बहुत अधिक है. पिछले दो दशकों में ही नक्सली हमलों में 6,258 से ज्यादा लोग मारे गए हैं.

अपने चरम पर नक्सली खतरे ने 8 करोड़ लोगों की जिंदगियों को चपेट में लिया, जिनमें अधिकांश आदिवासी हैं. यह आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश तक एक पतले लाल गलियारे के साथ 10 राज्यों में फैला हुआ था. या बकौल केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, नेपाल के पशुपति से लेकर आंध्र के तिरुपति तक.

हालांकि, पिछले एक साल में इसका असर घट रहा है, क्योंकि मोदी सरकार राज-सत्ता के कट्टर दुश्मन के खिलाफ लड़ाई में हावी हो रही है, जिससे खतरा अब बेहद छोटे-से लाल धब्बे जैसा सिमट गया है. यह बड़े पैमाने पर बस्तर क्षेत्र तक सीमित है, जहां अब भी भीषण जंग जारी है.

मोदी सरकार 2014 में सत्ता में आई, तो दस राज्यों के 126 जिलों को सबसे अधिक प्रभावित दर्ज किया गया था. 2025 की शुरुआत में यह संख्या घटकर 12 हो गई है, जिनमें ज्यादातर बस्तर में हैं. बाकी ओडिशा, झारखंड, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के पड़ोसी जिले हैं. बेशक, यह उपलब्धि इतनी प्रभावशाली है कि केंद्रीय गृह मंत्री ने दिल्ली के अपने घर में इंडिया टुडे के साथ बातचीत में कहा, "पक्के तौर पर मेरा मानना है कि मार्च 2026 तक भारत नक्सल खतरे से पूरी तरह मुक्त हो जाएगा."

सीआरपीएफ, छत्तीसगढ़ के IG राकेश अग्रवाल सुकमा जिले के पुवर्ती गांव में लोगों को साइकिल बांटते हुए

हालांकि, आसमान से देखने पर सरकार की यह सबसे बड़ी बदलावकारी मुहिम बस्तर के घने जंगल में महज दो एकड़ के खेत से ज्यादा बड़ी नहीं दिखती. वहां एस्बेस्टस की छत वाले कुछ छप्पर और कुछ मुर्गियां ही दिखती हैं. जैसे ही हेलिकॉप्टर केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के कैंप पुवर्ती में बने अस्थायी हेलीपैड के करीब पहुंचता है, तो उठ रहे धूल के बवंडर में छुपने के लिए ग्राउंड स्टाफ इधर-उधर भागने लगता है. धूल बैठती है, तब आपको कैंप के चारों ओर बंदूकधारी शूटरों से लैस खौफनाक निगरानी टावर दिखाई देने लगते हैं.

पुवर्ती नक्सल ग्रस्त सुकमा जिले के एक छोर पर सीआरपीएफ की 150वीं बटालियन के पहरे में है, जिसका आकर्षक नारा 'वन-फाइव जीरो, जंगल हीरो' है, जो वह वाकई है. पुवर्ती कभी खूंखार माओवादी कमांडर मादवी हिडमा का गढ़ था, जो सुरक्षा बलों पर दो दर्जन से अधिक हमलों का मास्टरमाइंड बताया जाता है. उनमें 2010 में पास के ताड़मेटला गांव में हुआ हमला भी है जिसमें 76 सीआरपीएफ जवान मारे गए थे. साल भर पहले तक कोई सरकारी आदमी, चाहे वर्दी में हो या सादे कपड़े में, पुवर्ती में पीपल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) की बटालियन नं. 1 की इजाजत के बिना दाखिल नहीं हो सकता था.

साल भर पहले जब यहां कैंप बनाया गया, तो पीएलजीए के चार बड़े हमलों को नाकाम करके 150वीं बटालियन ने नक्सल उग्रवादियों को दूर घने जंगलों में खदेड़ दिया और इस तरह इलाके में सीआरपीएफ का दबदबा कायम कर लिया. बेखौफ कैंप कमांडेंट राकेश शुक्ला अब मुस्कराते हुए बस यही चेताते हैं, ''हमारे चारों ओर अब भी बिच्छू और सांप की भरमार है, खासकर करैत, जो हमारे बिस्तर को अपना समझ लेते हैं—इसलिए सोने से पहले अपना कंबल जरूर झाड़ लें."

बाद में उस रात एक गश्ती दल संदिग्ध गतिविधि के लिए आसपास के जंगलों की तलाशी लेता है, और आगे-आगे बारूदी सुरंग की टोह लेने वाला रास्ता साफ करता जाता है. नक्सलियों का सबसे बड़ा हथियार 'इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस' (आईईडी) या सड़कों पर लगाई गई बारूदी सुरंगें हैं, जो किसी को भी अपंग कर सकती हैं या जान भी ले सकती हैं. चारों तरफ घुप्प अंधेरा है और गश्ती दल एक-दूसरे के कंधे पर हाथ रखकर कतार में आगे बढ़ रहा है, जबकि उनका अगुआ रात में दिखने वाले बाइनाकूलर से जंगल की टोह लेता चलता है. दूसरा गश्ती दल सवेरे निकलता है, एक के पीछे एक, लेकिन अब वे मोटरसाइकिलों पर हैं, जो बारूदी सुरंगों से बचने के लिए पसंदीदा वाहन है.

बहुआयामी रणनीति

पुवर्ती जैसे कैंप को फॉरवर्ड ऑपरेटिंग बेस या एफओबी नाम दिया गया है और ये मोदी सरकार की बहुआयामी रणनीति का मुख्य आधार हैं, जिसके तहत देश को अगले वसंत तक नक्सली खतरे से मुक्त किया जाना है. छत्तीसगढ़ सेक्टर के सीआरपीएफ के मिलनसार आईजी राकेश अग्रवाल बताते हैं कि एफओबी कैसे गेम-चेंजर बन गए हैं.

इलाके में सीआरपीएफ कमांडो ड्यूटी पर, 2 मार्च

छह साल पहले उनकी शुरुआत से पहले सुरक्षा शिविर मुख्य रूप से नक्सल ग्रस्त क्षेत्रों के पास राजमार्गों पर बनाए जाते थे और एक वक्त पर एक ऑपरेशन चलाते थे. नक्सलियों के खिलाफ अभियान के लिए उन्हें अपने शिविरों से 30 किलोमीटर तक पैदल चलना पड़ता था, जिससे वे थक जाते थे और घात लगाकर हुए हमलों के आसान शिकार हो जाते थे. अब एफओबी माओवादी ठिकानों के करीब घने जंगलों में हैं और एक-दूसरे से 5 किलोमीटर की दूरी पर सख्त सुरक्षा ग्रिड बनाते हैं. किसी एक शिविर पर हमला होने पर कुछ दूरी पर ही और जवान होते हैं और जरूरत पड़ने पर बुलाए जा सकते हैं.

कभी अविभाजित बस्तर (जो केरल के आकार के बराबर था) का मुख्यालय रहे जगदलपुर में स्थित कमांडो बटालियन फॉर रेजोल्यूट ऐक्शन (कोबरा) के विशाल केंद्र में अधिकांश लड़ाकू टुकड़ियां गुरिल्ला युद्ध में प्रशिक्षित हैं. अब बस्तर छत्तीसगढ़ के घने जंगलों वाले सात जिलों में बंटा है. 201वीं कोबरा यूनिट के चुस्त-दुरुस्त कमांडेंट अमित चौधरी कहते हैं, "हमारा सामना युद्ध के लिए प्रशिक्षण पाए विरोधी से है, जो इसी इलाके के हैं और यहां से अच्छी तरह वाकिफ है, जंगलों में बहुत सक्रिय हैं और धोखे से हम पर आईईडी या घात लगाकर हमला कर सकते हैं. उनके जोश-जज्बे के लिए सिर्फ एक बार कामयाब होने की दरकार है जबकि हमें हर दिन स्कोर करना होगा."

कोबरा टुकड़ी तीन बड़े मामलों में केंद्रीय और राज्य पुलिस दोनों को प्रशिक्षण देती है: बारूदी सुरंगों और घात लगाकर किए गए हमलों से अपना बचाव करना, अपने हथियारों से सटीक निशाना लगाना और दुर्गम जंगली इलाके और चालाक विरोधियों से मिलने वाले शारीरिक और मानसिक तनाव को झेलना.

ड्रोन तकनीक का प्रदर्शन करते सीआरपीएफ के जवान

फिलहाल बस्तर इलाके में 182 सुरक्षा एफओबी हैं, और उन्हें स्थापित करने की रफ्तार भी बढ़ रही है. पहले सालाना औसतन 15 शिविर स्थापित किए जाते थे, लेकिन 2024 में ही 30 नए एफओबी बनाए गए हैं. शाह की 'हथियरबंद नक्सलियों से बेरहमी से निपटो' की नीति के मद्देनजर, इन एफओबी को अत्याधुनिक उपकरणों से लैस किया गया है, जिससे सुरक्षा बलों को नक्सलियों के हथियारों से निपटने में मदद मिली है. सुरक्षा बलों के पास बुल्गारिया निर्मित एके सीरीज असॉल्ट राइफलों में से कुछ में अंडर बैरल ग्रेनेड लॉन्चर लगे हैं, उसके अलावा टैवर्स और जेवीपीसी कार्बाइन, कार्ल गुस्ताव 84 मिमी रॉकेट लॉन्चर, 51 और 81 मिमी मोर्टार, थर्मल इमेजिंग स्कोप के साथ-साथ नाइट विजन उपकरण जैसे हथियार हैं.

सुरक्षा बलों के शस्त्रागार में सबसे नया डब्ल्यूएचएपी या व्हील्ड आर्मर्ड प्लेटफॉर्म है, जिसे टाटा एडवांस्ड सिस्टम्स और रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) ने संयुक्त रूप से डिजाइन किया है. यह बख्तरबंद सैन्य वाहन है, जिसमें अंदर से हथियारों को नियंत्रित करने और बारूदी सुरंग विरोधी क्षमताएं हैं. इस प्लेटफॉर्म ने बलों को हमले के दौरान माओवादियों से लड़ाई में मदद की है. पिछले साल, जब माओवादियों ने तेलंगाना में तेकुलगुडेम में सीआरपीएफ शिविर पर हमला किया था तो सेकंड-इन-कमान एस.एस. हओकिप ने डब्ल्यूएचएपी की कमान संभाली थी, और गोलीबारी के लिए उसके एमएमजी का इस्तेमाल किया था. माओवादियों ने पहली बार डब्ल्यूएचएपी को कार्रवाई करते देखा, और उन्हें फटाफट पीछे हटने पर मजबूर होना पड़ा.

इसी तरह मोदी सरकार की खुफिया जानकारी जुटाने और विश्लेषण के खातिर अत्याधुनिक निगरानी तकनीक का इस्तेमाल भी गेमचेंजर साबित हुआ है. हर एफओबी नेत्र 3 और भारत ड्रोन से लैस है, जिनकी रेंज 5  किलोमीटर है और कई बैटरी के साथ 60 मिनट तक उड़ सकते हैं. ड्रोन को 10 मीटर & 10 मीटर की जगह से उड़ाया जा सकता है और बेस पर एक स्क्रीन पर मौके से बेहद साफ तस्वीरें हासिल की जा सकती हैं.

ऑपरेशन शुरू करने से पहले जवान ड्रोन को उड़ाते हैं, ताकि इलाके और माओवादियों की उपस्थिति का पता लगाया जा सके. रात के ऑपरेशन के लिए इन्फ्रारेड क्षमताएं मनुष्यों और जानवरों की हरकतों में अंतर कर सकती हैं. चौधरी कहते हैं, "हमारे विरोधियों के लिए अब छिपने की कोई जगह नहीं है और कई साल के बाद पहली बार नक्सली वाकई भाग रहे हैं."

बीजपुर जिले में हवाई निगरानी

आसमान से नजर रखने का सबसे अहम काम हेरॉन यूएवी (मानव रहित हवाई वाहन) कर रहे हैं, जिनकी उड़ान सीमा 35,000 फुट है और 10 घंटे तक उड़ने की क्षमता है. नजदीकी हवाई पट्टियों से उड़ान भरकर  हेरॉन प्रभावित क्षेत्र की तस्वीरें जुटाते हैं और वायरलेस तथा सेलफोन पर बातचीत रिकॉर्ड करते हैं. यह डेटा सुरक्षाकर्मियों के पास पहुंचता है जो इसे जमीनी स्तर की खुफिया जानकारी से पुष्ट करते हैं.

किसी निर्जन स्थान से की गई बातचीत, फोन कॉल या गोलीबारी विद्रोहियों की मौजूदगी का संकेत देती है. केंद्रीय पुलिस बल के मध्य भारत के अतिरिक्त महानिदेशक अमित कुमार कहते हैं कि हाल के ऑपरेशन केंद्र और राज्य सरकार की एजेंसियों के बीच तकनीकी खुफिया जानकारी या टेकइंट के आदान-प्रदान के कारण सटीक और बेहद सफल रहे हैं.

सटीक मौखिक खुफिया जानकारी या ह्यूमिंट स्थानीय लोगों से मिलने लगी है, जो इलाके से बखूबी वाकिफ हैं. उन्हें जिला रिजर्व गार्ड (डीआरजी) और नवगठित बस्तरिया बटालियन में भर्ती किया जा रहा है. इसके अलावा, आत्मसमर्पण कर चुके कई नक्सली (2014 से करीब 7,500) इन बलों में शामिल हो गए हैं, जो नक्सलियों के तौर-तरीकों और उनके ठिकानों के बारे में जानकारी दे रहे हैं.

इन उपायों से ऑपरेशन में तेजी आई है और पिछले 15 महीनों में छत्तीसगढ़ में 305 माओवादियों को मार गिराया गया है, और 2024 में ही बस्तर संभाग में 217 माओवादी मारे गए. यह आंकड़ा राज्य में उग्रवाद के इतिहास के बाद से किसी भी वर्ष के मामले में सबसे अधिक है. इस बीच, नक्सलियों से मुक्त क्षेत्रों में, दबदबा बनाए रखने के लिए छत्तीसगढ़ पुलिस के फोर्टिफाइड पुलिस स्टेशन या बख्तरबंद थाने स्थापित किए गए हैं. पिछले पांच साल में 612 ऐसे थाने बन गए हैं, यही सबूत है कि कितने इलाके मुक्त करा लिए गए हैं.

दूसरे अहम उपाय के तहत केंद्र और नक्सल ग्रस्त क्षेत्रों में संबंधित राज्य सरकारों ने नक्सलियों को पैसे के प्रवाह पर अंकुश लगा दिया है. उनके आय का मुख्य स्रोत गर्मियों के महीनों में तेंदूपत्ता ठेकेदारों से लेवी और वन तथा सड़क ठेकेदारों से जबरन वसूली थी. नक्सली इस तरह अनुमानित 150 करोड़ रुपए जुटा लिया करते थे. निर्माण कार्यों को केंद्र सरकार की इकाई सीमा सड़क संगठन को सौंपने से पैसे का वह स्रोत बंद हो गया है. साथ ही खुफिया एजेंसियां तेंदूपत्ता ठेकेदारों पर कड़ी निगरानी रख रही हैं. अच्छी इंटरनेट कनेक्टिविटी वाले कई नक्सल ग्रस्त जिलों में तेंदूपत्ता की नीलामी ऑनलाइन की गई है, ताकि नकदी पर अंकुश लगे.

खात्मे की रूपरेखा

छत्तीसगढ़ में माओवादी आंदोलन के खात्मे के औपचारिक ऐलान के लिए सरकार को क्या करना होगा? छत्तीसगढ़ पुलिस के आईजी और बस्तर इलाके में राज्य पुलिस बलों के प्रभारी सुंदरराज पट्टिलिंगम कहते हैं, "सुरक्षा के नजरिए से हमारा मकसद नेतृत्व को ध्वस्त करना और यह पक्का करना है कि कोई नया माओवादी मामला सामने न आए. दूसरे शब्दों में, हम लगातार हिंसा करते रहने की माओवादी क्षमता को नष्ट कर देना चाहते हैं."

बीजापुर में एक मुठभेड़ के बाद नक्सलियों के बरामद शव, अप्रैल 2024

नक्सलियों का लंबा-चौड़ा संगठन है. इसके शीर्ष पर पोलितब्यूरो, सेंट्रल कमेटी और सेंट्रल मिलिट्री कमिशन हैं. फिलहाल 70 वर्षीय महासचिव नंबाला केशव राव पोलितब्यूरो का प्रमुख है, जो बासवराज और गगन्ना उपनामों से भी जाना जाता है. सैन्य शाखा की क्षेत्रीय, प्रांतीय और जोनल कमान हैं, और हथियारबंद मिलिशिया इस पिरामिड के आधार का निर्माण करता है. मोदी सरकार ने पिछले पांच साल में 'पता लगाओ, निशाना साधो और खत्म कर दो' तरीका अपनाया, जिसकी बदौलत 15 शीर्ष नक्सल नेता मारे गए. इनमें पोलितब्यूरो के तीन और सेंट्रल कमेटी के 12 सदस्य हैं. पुलिस सूत्रों का कहना है कि बीते साल कार्रवाइयों में मिली कामयाबी की बदौलत बस्तर में नक्सलियों के कट्टर लड़ाकों की संख्या तीन साल पहले के 1,400 से घटकर 600 रह गई है.

फिलहाल बस्तर में तीन इलाके ऐसे हैं जहां सुरक्षा का अभाव है. यहां राज्य-सत्ता उतनी असरदार नहीं जितनी दूसरी जगहों पर है. माओवादी इन्हें 'लिबरेटेड या मुक्त क्षेत्र’ कहते हैं. सबसे अहम है अबूझमाड़, जो सचमुच अबूझ जंगल है. यह 4,000 वर्ग किमी में फैला है, जिसका 60 फीसद नारायणपुर, 15 फीसद बीजापुर, 10 फीसद कांकेर जिलों में आता है, जबकि और 5 फीसद महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले में है.

सुंदरराज कहते हैं, "अबूझमाड़ अभेद्य था और पहले वहां सुरक्षा भी मौजूद नहीं थी, लेकिन अब इसके भीतर हमारे नौ कैंप हैं. इससे अबूझमाड़ में सुरक्षा का अभाव काफी घट गया है." दूसरा इलाका बीजापुर जिले में इंद्रावती टाइगर रिजर्व के भीतर नेशनल पार्क या वन क्षेत्र है. हाल के दिनों में इस इलाके में सघन कार्रवाइयां की गईं. इनमें 9 फरवरी की वह हालिया कार्रवाई भी है जिसमें नेशनल पार्क एरिया कमेटी के 31 माओवादी गोलीबारी में मारे गए.

इस बीच केंद्र ने नक्सल प्रभावित जिलों में विकास की रफ्तार तेज कर दी है, जिसे 'गोली और गुलाब' नीति कहा जा सकता है ताकि इलाके के लोगों का दिल जीता जा सके और उनकी समस्याओं का निपटारा किया जा सके. उन इलाकों में नक्सलवादी आंदोलन के फैलने की जड़ में विकास का अभाव और ठेकेदारों तथा सरकारी अधिकारियों द्वारा किसानों का शोषण माना जाता है. इसलिए चतुर पहल के तहत एफओबी सिर्फ सुरक्षा नहीं, बल्कि दिलों को जीतने की रणनीति का भी अहम हिस्सा हैं.

सुकमा में अपने हथियारों के साथ समर्पण करने वाले माओवादियों का समूह, 2 मार्च

2 मार्च को पुवर्ती कैंप में सिविक ऐक्शन प्रोग्राम (सीएपी) का आयोजन किया गया, जिसमें आईजीपी अग्रवाल ने साइकिलें, साड़ी, पानी की टंकी, कंबल और दवाइयां बांटी. दूसरे एफओबी की तरह पुवर्ती में भी दस बिस्तरों का फील्ड अस्पताल है, जिसमें स्थानीय लोगों की जरूरतों को ध्यान में रखकर छोटे-मोटे ऑपरेशन के लिए ऑपरेशन थिएटर भी है और उस क्षेत्र छह फील्ड अस्पताल में एक है. जाहिर है, ऐसी पहल से लोगों में बगावत की भावना को कम करने में मदद मिलेगी.

विकास की दवा, उम्मीद की हवा

यह एहसास भी शिद्दत से है कि सुरक्षा दुरुस्त करना समस्या से निपटने का एक पहलू है, साथ ही वे विकास की बाधाएं दूर करने पर भी जोर दे रहे हैं. बीजापुर जिले में पामेड़ के पास चिंतावागु नदी पर बना नया शानदार पुल कई ऐसी ही बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में से एक है, जो कई गांवों के लिए जरूरी संपर्क मुहैया करा रहा है. यह अलग बात है कि नक्सलियों ने इस पुल को विस्फोटकों से उड़ाने और पास के धर्मावरम एफओबी पर हमला करने की कई कोशिशें की हैं.

कंचल गांव के निवासी मरकम बंडी कहते हैं, "पुल की वजह से हमें स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंचने में मदद मिली है और पामेड़ में मिर्ची तोड़ने का काम भी मिला है.’’ इसी तरह जिन इलाकों में सड़कों की जरूरत है, लेकिन मजदूर या ठेकेदार काम करने को तैयार नहीं हैं, वहां गृह मंत्रालय ने बीआरओ को सड़क बनाने में लगाया है. संचार बेहतर बनाने के लिए इन एफओबी के करीब 2,000 से ज्यादा मोबाइल टावर लगाए गए हैं. यह सुनिश्चित करने के लिए यह सब किया जा रहा है, जैसा कि शाह कहते हैं, ''लोगों के पास नक्सलवाद की ओर लौटने का कोई कारण न हो."

 सोढ़ी मुइया और पत्नी विनीता, जो आंदोलन से 2006 से 2021 तक जुड़े रहे थे

छत्तीसगढ़ सरकार भी माओवादी समस्या के खिलाफ अपने प्रशासन की सक्रियता बढ़ा रही है. प्रभावित क्षेत्र में तेंदू पत्तों की तुड़ाई प्रमुख आर्थिक गतिविधि है. इसलिए राज्य सरकार ने प्रति मानक बोरा मजदूरी को 4,000 रुपए से बढ़ाकर 5,500 रुपए कर दिया है. प्रभावित क्षेत्रों में नियद नेल्लानार या मेरा आदर्श गांव योजना शुरू की गई है, जिसके तहत लोगों को 52 योजनाओं और 31 नागरिक सेवाओं में नामांकित किया जा रहा है.

सुरक्षा शिविर राशन कार्ड, रसोई गैस और साइकिल जैसी योजनाओं को लागू करने में अहम भूमिका निभाते हैं. नक्सलियों से लड़ने वाली सभी प्रमुख सुरक्षा एजेंसियां जानती हैं कि मार्च, 2026 तक नक्सल समस्या का खात्मा करने की गृह मंत्री की समय सीमा को पूरा करना दुरूह कार्य है, लेकिन वे इस जंग को जीतने के लिए संकल्पित हैं.

पुवर्ती में सीआरपीएफ के कैंप को लाइट से सजाया जा रहा है, कुर्सियां और मेजें करीने से लगाई जा रही हैं और साउंड सिस्टम तैयार किया जा रहा है, जो किसी डिनर पार्टी की तैयारी जैसा लग रहा है. यह समय है बड़े खाने का—सशस्त्र बलों की एक परंपरा जहां अधिकारी और जवान विशेष अवसरों पर सामूहिक भाईचारा दर्शाने के लिए एक साथ खाना खाते हैं.

बीजपुर जिले में नक्सल प्रभावित गांव पामेड़ के पास चिंतावागु नदी पर नया बना पुल

समारोह की शुरुआत अधिकारियों और जवानों के एकल गीत पेश करने के साथ होती है. कैंप के चिकित्सा अधिकारी डॉ. विवेकानंद बसप्पा किशोर कुमार का मशहूर गाना-नीले नीले अंबर पर गाते हैं और जवान तालियों की लय के साथ उनका साथ देते हैं. उम्मीद है कि नक्सली हिंसा की स्याह रातें जल्द ही खत्म हो जाएंगी और वे भी देश के बाकी हिस्सों की तरह शांति के नीले आसमान को निहार सकेंगे.

तकनीकी बढ़त

● सुरक्षा एजेंसियां अब निगरानी और नक्सली गतिविधियों के विश्लेषण के लिए उन्नत तकनीकों का इस्तेमाल कर रही हैं.

● ड्रोन, उपग्रह तस्वीरों और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस-आधारित डेटा विश्लेषण का इस्तेमाल.

● लोकेशन ट्रैकिंग, सेल फोन ट्राइंगुलेशन, एडवांस कॉल लॉगिंग और सोशल मीडिया विश्लेषण के जरिए नक्सली काडरों की गतिविधियों पर कड़ी नजर रखी जा रही है.

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