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देश में कैसे महामारी बन रही नॉन-अल्कोहलिक फैटी लिवर बीमारी?

जानलेवा नॉन-अल्कोहलिक फैटी लिवर बीमारी देश में महामारी जैसी विकराल हुई, वयस्कों और बच्चों समेत हर दस में तीन इससे ग्रस्त, इससे बचाव और इलाज के लिए क्या कर सकते हैं

जानलेवा नॉन-अल्कोहलिक फैटी लिवर बीमारी देश में महामारी जैसी विकराल हुई
जानलेवा नॉन-अल्कोहलिक फैटी लिवर बीमारी देश में महामारी जैसी विकराल हुई
अपडेटेड 10 मार्च , 2025

गए तो थे गुरुग्राम में बैंक अधिकारी 39 वर्षीय अभिरूप भल्ला एक छोटी कार दुर्घटना के बाद पसलियों का स्कैन कराने. वे हैरान रह गए कि उनकी पसलियों में कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन उनका जिगर या लिवर बढ़ा हुआ है. इतना बढ़ा हुआ था कि उनके डॉक्टर ने फौरन आगे के परीक्षणों की सलाह दी और नतीजा निकाला कि भल्ला को स्टेज 1 फैटी लिवर रोग है. इससे भल्ला के तोते उड़ गए. अरावली जैव विविधता पार्क में नियमित जॉगिंग की वजह से उनका वजन ज्यादा नहीं था.

वे कहते हैं, "मैं न शराब पीता हूं, न धूम्रपान करता हूं." भल्ला जैसे दुबले लोगों के लिए नॉन-अल्कोहलिक फैटी लिवर डिजीज (एनएएफएलडी) बड़े सदमे जैसी है. भल्ला चाहे शराब न पीते हों, लेकिन उनके खान-पान में ज्यादा चीनी और जंक फूड की भरमार रही है. इसलिए जॉगिंग से उनके शरीर का वजन तो काबू में रहा, लेकिन उनके भोजन की अतिरिक्त कैलोरी ने उनके गुर्दे या लिवर को तबाह कर दिया.

लिवर में 5 फीसद से अधिक फैट या वसा दिखाई देती है, तो अल्कोहलिक लिवर डिजीज की तरह ही आम तौर पर एनएएफएलडी की भी जांच की जाती है. 2021 में, जर्नल ऑफ क्लिनिकल ऐंड एक्सपेरिमेंटल हेपेटोलॉजी में प्रकाशित एनएएफएलडी पर 50 अध्ययनों के 62 डेटा सेटों के विश्लेषण से पता चला कि देश में 38 फीसद वयस्क एनएएफएलडी से ग्रस्त हैं. इसमें चंडीगढ़ में सबसे ज्यादा 53.5 फीसद लोग इस मर्ज के चपेट में हैं.

बच्चों में यह बीमारी 35 फीसद है. मुंबई सेंट्रल में वॉकहार्ट हॉस्पिटल्स में लिवर ट्रांसप्लांट सर्जन डॉ. टॉम चेरियन कहते हैं, ''देश में एनएएफएलडी के मरीज बढ़ रहे हैं. दरअसल, यह मर्ज वैश्विक महामारी का रूप ले चुका है. हालांकि पहले की महामारियों के मुकाबले इसका प्रकोप भारत में तेजी से बढ़ रहा है क्योंकि हम डायबटीज या मधुमेह और मोटापे, खासकर पेट की चर्बी के मामले में दुनिया में सबसे आगे हैं."

मगर एनएएफएलडी से ग्रस्त होने के लिए आपका मोटा होना जरूरी नहीं है. दरअसल, भल्ला इसीलिए हैरान थे कि वे मोटे नहीं हैं, तो उनका लिवर कैसे मोटा या बड़ा हो सकता है? जर्नल क्लिनिकल लिवर डिजीज में 2021 के एक अध्ययन में पाया गया कि देश में 10-15 फीसद दुबले-पतले लोग एनएएफएलडी से ग्रस्त हैं, जिनका बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) सामान्य है. दिल्ली में इंस्टीट्यूट ऑफ लिवर ऐंड बिलियरी साइंसेज के चेयरमैन तथा जाने-माने हेपेटोलॉजिस्ट डॉ. एस.के. सरीन कहते हैं, "यूं तो यह रोग मोटे लोगों में ज्यादा है, लेकिन आप मोटे न हों और ज्यादा वसा का सेवन न करते हों तब भी फैटी लिवर का शिकार हो सकते हैं."

आप जरूरत से ज्यादा यानी डब्ल्यूएचओ की सलाह के मुताबिक मर्द के लिए 2,500 और औरत के लिए 2,000 कैलोरी से ज्यादा का भोजन लेते हैं, तो इससे ब्लड ग्लूकोज बढ़ता है, जो वसा में बदलकर शरीर में जमा हो जाता है. लिवर भी ग्लूकोज जमा करता है. इसलिए ज्यादा कैलोरी वाले भोजन से गुर्दे में वसा जमा होने लगती है. इसके अलावा सैचुरेटेड या ट्रांस फैट, अल्कोहल या शराब का ज्यादा सेवन और पेट पर अतिरिक्त चर्बी (जिसकी हद मर्द के लिए 90 सेंटीमीटर और औरत के लिए 80 सेमी है) से लिवर में वसा की जमावट और बढ़ जाती है.

लोगों को अमूमन अचानक पता चलता है कि वे एनएएफएलडी से ग्रस्त हैं. यह शुरुआती चरणों में रक्त रीक्षणों में दिखाई नहीं देता. असल में, डॉ. चेरियन बताते हैं कि लिवर फंक्शन टेस्ट से हमेशा लिवर की सेहत का ठीकठाक पता नहीं चल पाता. वे कहते हैं, ''दस फीसद लिवर ट्रांसप्लांट ऐसे व्यक्तियों के किए जाते हैं जिनका 70 फीसद से अधिक लिवर नष्ट हो चुका होता है, फिर भी उनके लिवर फंक्शन टेस्ट सामान्य आते हैं."

इस प्रकार, कई लोगों को इसके बारे में पता ही नहीं होता है कि वे फैटी लिवर से ग्रस्त हैं. 5 फीसद से अधिक वसा की बढ़ोतरी, थोड़े समय के लिए भी, आपकी सेहत के लिए हानिकारक हो सकती है. डॉ. सरीन कहते हैं, "फैटी लिवर की वजह से उच्च रक्तचाप, मधुमेह, थायरॉयड समस्याओं, कैंसर का खतरा होता है; यह दिल के दौरे का कारण भी बन सकते हैं. लिवर को स्वस्थ रखना बहुत जरूरी है."

भारत 2021 में एनएएफएलडी को गैर-संचारी रोग घोषित करने वाला पहला देश था. तीन साल बाद, अक्तूबर 2024 में केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने इस बीमारी की रोकथाम और इलाज के लिए नए दिशा-निर्देश जारी किए. पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव अपूर्व चंद्रा कहते हैं, "एनएएफएलडी बड़ी स्वास्थ्य चिंता बन रहा है, जो मोटापे, मधुमेह और हृदय रोग से जुड़ा हुआ है. 10 में से तीन लोग एनएएफएलडी से ग्रस्त हो सकते हैं, जो बीमारी के असर को उजागर करती है."

स्वस्थ लिवर क्यों जरूरी

लिवर रक्त से अशुद्धियां साफ करता है, लेकिन असल में इस अंग से 500 से ज्यादा महत्वपूर्ण कार्य जुड़े हुए हैं. पाचन तंत्र से निकलने वाला सारा रक्त लिवर से होकर गुजरता है, जो शरीर के लिए पोषक तत्वों को तोड़ता है, संतुलित करता है. विषाक्त पदार्थों को बाहर निकालता है या उन्हें ऐसे रूप में मेटाबोलाइज करता है जिसे शरीर इस्तेमाल कर सके. हर वक्त लीवर में कम से कम 13 फीसद रक्त रहता है.

इसके कुछ कम जानकारी वाले कामों में एक है रक्त के थक्के को नियंत्रित करना, हमारे खून में अतिरिक्त ग्लूकोज को भंडारण के लिए ग्लाइकोजन में बदलना और शरीर से कोलेस्ट्रॉल को बाहर निकालना. डॉ. सरीन कहते हैं, "लिवर असल में हमारे शरीर की सबसे बड़ी प्रतिरक्षा ग्रंथि है." विभिन्न अध्ययनों के अनुसार, यह अंग लसिका तंत्र से गुजरने वाले लसिका (लिम्फ) का लगभग 25-50 फीसद हिस्सा होता है.

सो, यह प्रतिरक्षा प्रणाली का हिस्सा है, जो शरीर में द्रव के स्तर को नियंत्रण में रखता है और संक्रमण से बचाव करता है. लिवर सीधे तौर पर प्रतिरक्षा कोशिकाओं को भी पैदा करता है. विजयवाड़ा के मणिपाल अस्पताल में गैस्ट्रोएंटरोलॉजी कंसल्टेंट डॉ. राजेश चंद्रा बताते हैं, "लिवर प्रतिरक्षा विज्ञान की दृष्टि से जटिल अंग है, जो एक्यूट फेज प्रोटीन, पूरक घटकों, साइटोकाइन्स और कीमोकाइन पैदा करने के लिए जिम्मेदार है." मतलब यह अंग बहुकार्य संपन्न करता है.

लिवर अपने आप को दुरुस्त करने और नए सिरे से स्वस्थ करने की क्षमता के कारण भी अनूठा अंग है. 90 फीसद तक हटाए जाने या क्षतिग्रस्त होने के बाद भी यह अपने सामान्य आकार में वापस आ सकता है. यही कारण है कि इस अंग को नुक्सान पहुंचाने वाली वजहों जैसे शराब, बीमारी, कुछ जहरीली दवाएं और अधिक या असंतुलित आहार का असर देर से होता है क्योंकि लिवर खुद को दुरुस्त करता रहता है.

डॉ. चंद्रा कहते हैं, "स्वस्थ व्यक्तियों में सूजन पैदा करने की क्षमता वाले आहार और सहजीवी जीवाणु लिवर पर हमला करते रहते हैं. सूजन की प्रक्रियाएं बहुत नियंत्रित तरीके से काम करती हैं. ऐसी खतरनाक उत्तेजनाओं को दूर करने और सूजन को ठीक करने में नाकामी से क्रोनिक पैथोलॉजिकल सूजन और ऊतक होमियोस्टेसिस होता है जो फाइब्रोसिस, सिरोसिस और लिवर फेलियर में बदल सकता है."

फैटी लिवर अमूमन एक सरल, अहानिकर कई चरणों वाले स्टेटोसिस के रूप में शुरू होता है. यह पेट के स्कैन जैसे अन्य इमेजिंग परीक्षणों में पता चलता है. दूसरा चरण नॉन-अल्कोहलिक स्टीटोहेपेटाइटिस (नैश) है, जब लिवर में सूजन होने लगती है, जो उसके अंदर या उसके आसपास वसा कोशिकाओं के अत्यधिक जमाव के कारण होता है.

डॉ. चेरियन बताते हैं, ''एनएएफएलडी में वसा हेपेटोसाइट्स या लिवर कोशिकाओं के अंदर जमा हो जाती है. यह वसा शारीरिक रूप से सेलुलर घटकों की जगह ले लेती है, जिससे उसके काम में रुकावट आती है. इसके अतिरिक्त, यह उत्तेजक के रूप में कार्य करता है, जो शरीर की प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को ट्रिगर करता है, जो धीरे-धीरे कोशिकाओं को नुक्सान पहुंचाता है, जिससे अंतत: कोशिका मर जाती है."

लिवर कोशिकाओं के नष्ट होने की इस क्रमिक प्रक्रिया को फाइब्रोसिस कहा जाता है. दागी ऊतकों की पतली पट्टियां बनने लगती हैं, जिससे लिवर के जरिए रक्त का प्रवाह कम हो जाता है और इस प्रकार उसके लिए जरूरी ऑक्सीजन और पोषक तत्वों तक पहुंच कम हो जाती है.

इस चरण तक, क्षति दुरुस्त की जा सकती है. हालांकि, उसके बाद यह सिरोसिस में बदल सकता है, जो लिवर में स्थायी होता है. यह तब होता है जब लिवर में काम करने के लिए पर्याप्त स्वस्थ कोशिकाएं नहीं बचती हैं. अंतत: यह लिवर की नाकामी का कारण बन सकता है जब अंग आपके शरीर की जरूरतों को पूरा करने में असमर्थ हो जाता है. इस अवस्था में बचने का एकमात्र उपाय लिवर ट्रांसप्लांट है.

दुर्भाग्य से, स्टेज 1 या 2 एनएएफएलडी से ग्रस्त अधिकांश लोग उसे हल्के में लेते हैं क्योंकि नुक्सान ज्यादा दिखता नहीं है. लेकिन, जैसा कि डॉ. सरीन कहते हैं, ''आपके लिवर में बहुत अधिक वसा, चाहे प्रारंभिक या बाद के चरण में हो, आपके स्वास्थ्य के लिए कई तरह से खतरनाक है." पहला असर सीधे आपके शरीर की इंसुलिन संवेदनशीलता पर पड़ता है.

जर्नल करंट ओपिनियन इन लिपिडोलॉजी में 2020 के एक अध्ययन के मुताबिक, एनएएफएलडी टाइप 2 मधुमेह और हृदय रोग होने के जोखिम को कम से कम दोगुना बढ़ा देता है. असल में, फैटी लिवर और मेटाबोलिक रोगों के बीच संबंध इतना अधिक है कि 2020 में इसके लिए एक शब्द गढ़ा गया—एमएएफएलडी, या मेटाबोलिक डिसफंक्शन— एसोसिएटेड फैटी लिवर डिजीज. यह न सिर्फ लिवर में वसा की जमावट को दर्शाता है बल्कि लिवर के स्वास्थ्य के बिगड़ने में मोटापा, इंसुलिन प्रतिरोध या मधुमेह जैसी दूसरी बीमारियों का कारण बन सकता है.

सिर्फ मेटाबोलिक सिस्टम ही लिवर की बीमारी की वजह से प्रभावित नहीं होता. डॉ. सरीन कहते हैं, "लिवर आपके रक्त को शुद्ध करता है. अगर यह ठीक से काम नहीं कर रहा है, तो यह आपके दिल से लेकर दिमाग और आंत तक कई अंगों को प्रभावित कर सकता है."

फ्रंटियर्स इन एंडोक्राइनोलॉजी जर्नल में 2023 के एक अध्ययन में पाया गया कि जब लिवर रक्त के विषाक्त पदार्थों को निकालने में असमर्थ होता है, तो मस्तिष्क की कार्यक्षमता कम हो जाती है. यूरोपियन जर्नल ऑफ क्लिनिकल इन्वेस्टिगेशन में 2019 में एक अन्य अध्ययन में फैटी लिवर और गैस्ट्रोएसोफेगल रिफ्लक्स रोग के बीच संबंध पाया गया, जो नाराजगी, एसिड रिम्लक्स और रेगर्जिटेशन का कारण बनता है. फैटी लिवर आंत के माइक्रोबायोम के खराब स्वास्थ्य की ओर भी ले जाता है.

फैटी लिवर की रोकथाम और इलाज प्रचलित धारणा के विपरीत एनएएफएलडी की रोकथाम के लिए कम वसायुक्त आहार काफी नहीं. शरीर में वसा या चर्बी के लिए वसा या चिकनाई से भरपूर खाना खाने की जरूरत नहीं है; भरपूर कैलोरी ही काफी है. अत्यधिक संतृप्त वसा और ट्रांसफैट लिवर के लिए नुक्सानदेह हैं. हाल के अध्ययन बताते हैं कि गाय के दूध में पाया जाने वाला जरूरी फैटी एसिड सी15:0 लाभदायक है और उसकी कमी से एनएएफएलडी हो सकता है. विशेषज्ञ इंटरनेट प्रेरित अत्यधिक वसायुक्त कीटोजेनिक खानपान को लेकर चिंतित हैं, जिससे पेशेवर देखरेख के बिना वसा में भारी बढ़ोतरी हो सकती है, जब तक शरीर में उसे गलाने की तासीर न हो.

आपस में जुड़ी मेटाबोलिक स्थितियों के कारण भी किसी व्यक्ति को एनएएफएलडी होने की संभावना रहती है. मसलन, डायबिटीज से फैटी लिवर और बिगड़ जाता है और इसी तरह उच्च कोलेस्टरॉल से भी. इसका उल्टा भी सच है. पटपड़गंज दिल्ली के मैक्स सुपर स्पेशिएलिटी हॉस्पिटल में गैस्ट्रोएंटरोलॉजी, हिपेटोलॉजी और एंडोस्कोपी के सीनियर डायरेक्टर डॉ. दीपक लाहोटी कहते हैं, "टाइप 2 डायबिटीज अक्सर इंसुलिन के प्रतिरोध से जुड़ी होती है, जिससे लिवर में वसा का जमा होना तेज हो सकता है."

इसी तरह मोटापे से जुड़ी सूजन के कारण शरीर में बहुत ज्यादा चर्बी और खासकर आंतों की चर्बी से लिवर को नुक्सान हो सकता है. पीसीओएस (पोलीसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम) और स्लीप एप्निया (नींद में सांस रुकना) एनएएफएलडी के जोखिम कारक हैं.

डॉ. लाहोटी कहते हैं, "पीसीओएस से ग्रस्त महिलाएं अक्सर इंसुलिन का प्रतिरोध अनुभव करती हैं, जिससे इंसुलिन का स्तर बढ़ जाता है, जो फैटी लिवर का जोखिम कारक है. जहां तक स्लीप एप्निया की बात है, कुछ वक्त के अंतराल से हाइपोक्सिया होने (शरीर के ऊतकों में ऑक्सीजन का स्तर कम होने) से ऑक्सीडेटिव तनाव और सूजन बढ़ सकती है, जिससे लिवर को और तेजी से नुक्सान होता है."

रोकथाम बेशक इलाज से बेहतर है. डॉ. लाहोटी कहते हैं, ''नियमित चेकअप करवाने और लिवर की सेहत को लेकर सक्रिय रहने से अच्छा-खासा फर्क पड़ सकता है." मगर एनएएफएलडी के लक्षण दिखाई देने में लंबा वक्त लगता है—कुछ लोगों को अंतत: थकान, भरेपन का एहसास, मतली, पीलिया, गाढ़े मूत्र, या लिवर के हल्का-सा बढ़ जाने का अनुभव हो सकता है, तब तक वे इतने लंबे समय तक लिवर में फैट के साथ जी चुके होते हैं कि इसका मेटाबोलिक और दूसरे अंगों के कामों और खासकर डायबिटीज पर असर पड़ता है—इसलिए सलाह यह दी जाती है कि जोखिम कारकों से ग्रस्त लोग लिवर की रोकथाम की जांच करवाएं.

डॉ. सरीन कहते हैं, "अगर आपको मोटापा, डायबिटीज, कोई अन्य मेटाबोलिक परेशानी है, शराब पीते हैं या लिवर की बीमारी का पारिवारिक इतिहास है, तो लिवर की नियमित जांच करवाना जरूरी है."

दो तरह की जांच से पता लग सकता है कि एनएएफएलडी है या नहीं. पहला है पेट का अल्ट्रासाउंड. इससे यह देखने में मदद मिलती है कि लिवर कैसा दिख रहा है. आगे की जांच के लिए ट्रांजिएंट इलास्टोग्राफी सरीखे ज्यादा नए टेस्ट बताए जाते हैं, जिनमें वसा की मात्रा और इस अंग में कड़ेपन को मापना शामिल है. लिवर की ज्यादा बढ़ी हुई बीमारी के लिए किन्हीं अन्य कारणों का संदेह हुआ, तो लिवर की बायोप्सी करवाने की सलाह दी जा सकती है. बीमारी का पता चलने के बाद इलाज के लिए कोई खास दवाई नहीं है.

आम तौर पर जीवनशैली में स्थायी बदलावों—शारीरिक गतिविधि बढ़ाने, खानपान में सुधार, और कुछ मामलों में वजन घटाने की सर्जरी—की सलाह दी जाती है. खासकर वजन घटाने का लिवर फैट को कम करने पर जबरदस्त असर पड़ता देखा गया है. आम तौर पर आपके शारीरिक वजन का 10 फीसद या ज्यादा घटाने की सिफारिश की जाती है. जर्नल ऑफ क्लिनिकल ऐंड एक्सपेरिमेंटल हिपेटोलॉजी में प्रकाशित 2015 के एक अध्ययन से पता चला कि एनएएफएलडी से ग्रस्त 84 फीसद भारतीय मरीजों में सबसे आम जोखिम पेट का मोटापा था.

आप जो खाते हैं, वह भी इलाज में बड़ी भूमिका अदा करता है. कोरामंगला बेंगलूरू के अपोलो स्पेक्ट्रा में क्लिनिकल डायटिशियन ट्विंसी एन. सुनील का कहना है कि लिवर की अच्छी सेहत के लिए आहार में ओमेगा-3 फैटी एसिड, ऐंटीऑक्सीडेंट, विटामिन-ई और पर्याप्त फाइबर शामिल करना जरूरी है. ओमेगा-3 फैटी एसिड के लिए अखरोट, अलसी के बीज, सैल्मन या सामन और मैकेरल मछलियां; विटामिन-ई के लिए बादाम तथा अखरोट सरीखे सूखे मेवे; और फाइबर के लिए बहुत सारे फल तथा सब्जियां अच्छे स्रोत हैं.

वे कहती हैं, "खाना पकाने के लिए कोल्ड-प्रेस्ड आयल (शीत प्रक्रिया से निकाला गया तेल) इस्तेमाल करें, क्योंकि कुछ रिफाइंड तेलों में इस्तेमाल की गई प्रोसेसिंग के तरीके की वजह से ट्रांसफैट की ज्यादा मात्रा हो सकती है. चिप्स और बेकरी की चीजों का नाश्ता करने के बजाए फलों और सब्जियों के सलाद या दही के साथ बने तुलसी प्रजाति के बीजों के हलवे और उसके ऊपर रखे फलों ओर नमकीन सूखे मेवों का नाश्ता करें."

चंडीगढ़ स्थित पोस्ट-ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन ऐंड रिसर्च में हेपेटोलॉजी विभाग के पूर्व डायरेक्टर और प्रमुख डॉ. योगेश चावला फैटी लिवर के कारणों के बारे में जागरूकता के लिए हर 15 दिन में मीडिया कैंपेन चलाने का सुझाव देते हैं. वे कहते हैं कि इस कैंपेन का जोर खानपान की आदतों पर होना चाहिए: ''जब भूख लगे बस तभी खाएं; नाश्ता अकेलेपन या असुरक्षा का समाधान नहीं है; प्रोसेस्ड फूड के बजाए संपूर्ण (प्राकृतिक और जैविक) खाद्य पदार्थ चुनें; योग और ध्यान-मनन से हासिल अक्लमंदी के मुताबिक खाएं—80 फीसद पेट भरते ही रुक जाएं; एक गिलास पानी के साथ भोजन शुरू करें और उसके बाद एक कटोरी कच्चा सलाद लें; जब भी भूख महसूस हो तो पहले पानी पिएं. झूठी भूख गायब हो जाएगी. असली भूख बनी रहेगी."

मगर जब फैटी लिवर बढ़कर गंभीर अवस्था में पहुंच जाता है, तो दवाइयों और प्रक्रियाओं की सिफारिश की जा सकती है. मुंबई के कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी अस्पताल में सलाहकार और हेपेटो-पैंक्रिएटो-बिलियरी सर्जरी और लिवर ट्रांसप्लांट विभाग के प्रमुख डॉ. सोमनाथ चट्टोपाध्याय कहते हैं, "डायबिटीज या कोलेस्टरॉल को संभालने के लिए दवाइयां, मूत्रवर्धक दवाएं, पोर्टल शिरा (जो जिगर तक जाती हैं) में उच्च रक्तचाप कम करने के लिए बीटा ब्लॉकर और लिवर की बीमारी होने पर ऐंटीबॉयोटिक्स दिए जाते हैं."

जरूरत पड़ने पर इस अवस्था में की जाने वाली प्रक्रियाओं में पेट से अतिरिक्त तरल पदार्थ निकालना और ग्रासनली की बढ़ी हुई रक्त वाहिनियों से रक्तस्राव रोकना शामिल हो सकता है.

लिवर के नुक्सान की अंतिम अवस्था लिवर सिरोसिस को तो उलटा नहीं जा सकता, लेकिन उससे पहले की अवस्था लिवर फाइब्रोसिस को इलाज के नए विकल्पों से उलटा जा सकता है. डॉ. चट्टोपाध्याय कहते हैं, ''ऐंटी-फाइब्रोटिक दवाइयां स्कारिंग की प्रक्रिया में लगे खास अणुओं पर निशाना साधती हैं. ऐसी सारोग्लिटाजार सरीखी कुछ दवाइयां भारत में उपलब्ध हैं."

लिवर के क्षतिग्रस्त ऊतकों को पुनर्जीवित करने के लिए सेल थेरैपी या कोशिका उपचार, लिवर की आनुवंशिक गड़बड़ियों को दुरुस्त करने के लिए जीन थेरैपी भी आम होते जा रहे हैं. डॉ. चट्टोपाध्याय कहते हैं, "फोकस्ड अल्ट्रासाउंड या रेडियोफ्रीक्वेंसी एब्लेशन सरीखी तकनीकें गैर-चीरफाड़ वाली हैं और लिवर फाइब्रोसिस कम करने के लिए इस्तेमाल की जा सकती हैं."

अलबत्ता एक बार लिवर खराब होने के बाद मरीज के पास ट्रांसप्लांट या प्रत्यारोपण करवाने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. कई अस्पतालों में लिवर प्रत्यारोपण के एक साल टिकने की दर करीब 90 फीसद है, जबकि 1980 के दशक में यह 50 फीसद हुआ करती थी. इसमें टेक्नोलॉजी और सर्जरी की उन्नत तकनीकों ने अहम भूमिका अदा की है.

डॉ. चट्टोपाध्याय कहते हैं, "सर्जरी की तकनीकों में सुधार है, जिससे जटिलताएं और मृत्यु दर कम होती हैं. इसके अलावा ज्यादा असरदार और कम विषैली इम्यूनोसप्रेसिव दवाइयों के विकास ने ऑर्गन रिजेक्शन (प्रत्यारोपित अंगों को शरीर की तरफ से नामंजूर कर दिया जाना) को रोकने में मदद की है. अंगों को सुरक्षित रखने में हुई प्रगति की बदौलत उच्च गुणवत्ता वाले दाता अंगों का इस्तेमाल हो रहा है."

विभिन्न अनुमानों के मुताबिक, भारत में लिवर प्रत्यारोपण की सालाना मांग 25,000 से 30,000 के बीच है. भारत में 2022 में 2,900 जीवित दाता लिवर प्रत्यारोपण और 769 मृत दाता लिवर प्रत्यारोपण किए गए. भारत उसी साल अमेरिका और चीन के बाद दुनिया का तीसरा सबसे अधिक लिवर प्रत्यारोपण करने वाला देश बन गया.

लिवर के लिए अंगदान और प्रत्यारोपण सर्जरी में सुधार भले अच्छी खबर हो, लेकिन डॉक्टरों का कहना है कि उनकी जरूरत में हो रही बढ़ोतरी अच्छा संकेत नहीं है. भारत में करीब 66 फीसद मौतें गैर-संक्रामक रोगों से होती हैं, और फैटी लिवर अत्यधिक जोखिम का कारक है.

असली अच्छी खबर तो इस बीमारी के आंकड़ों में कमी ही होगी, खासकर छोटे बच्चों में, जिनके लिए यह खराब सेहत की ताउम्र सजा हो सकती है. लिवर की बीमारी के बारे में जनजागरूकता से समय रहते स्थिति का पता लगाने में मदद मिल सकती है, लेकिन अहम बदलाव तो तभी आ सकता है जब हम जीवनशैली का इस तरह पूरा कायापलट करें जिसमें कसरत, स्वस्थ और संतुलित आहार और रोकथाम की नियमित जांच के जरिए सेहत को प्राथमिकता दें और उसकी जिम्मेदारी लें.

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