
मुंबई की पैकेजिंग कंपनी में टेक्नीशियन 54 वर्षीय प्रकाश भासी को समझ नहीं आ रहा कि करें तो क्या करें. दो-एक साल पहले तक भी उन्हें लगता था कि साल में 22 लाख रुपए की पारिवारिक आमदनी तीन सदस्यों के घर का खर्च चलाने के लिए काफी होगी. हां, छह साल पहले उन्होंने नवी मुंबई में एक बीएचके का अपार्टमेंट खरीदा था और उसकी 45,000 रुपए की ईएमआई उन्हें जरूर चुकानी पड़ती थी.
इसके अलावा कोयंबत्तूर में रह रहे बुजुर्ग माता-पिता को खर्च के लिए हर महीने 10,000 रुपए भी भेजने होते थे. लेकिन उन्होंने कभी सोचा नहीं था कि उन्हें अपनी बचत के पैसे निकालने पड़ जाएंगे. अचानक ही भासी को फांस चुभने लगी. हाल के महीनों में उनके खर्चे 30 फीसद बढ़ गए. वे गहरी सांस लेकर कहते हैं, ''मैं 500 रुपए लेकर बाजार जाता हूं और तकरीबन खाली हाथ लौटता हूं."
सब्जियों के दाम आसमान छूने लगे हैं. वे सस्ती से सस्ती चीजें खरीदते हैं, चाहे अनब्रांडेड चीजें ही क्यों न खरीदनी पड़ें. नई कार खरीदने का सपना तो खैर उन्होंने ताक पर ही रख दिया और उसके बजाय अब आधी कीमत पर पुरानी कार खरीदना चाहते हैं.
भासी उन 57 करोड़ लोगों में हैं, जिनसे मिलकर देश का मध्य वर्ग बना है. नई दिल्ली स्थित थिंक-टैंक पीपल रिसर्च ऑन इंडियाज कंज्यूमर इकोनॉमी (पीआरआइसीई या प्राइस) इसे उन लोगों की श्रेणी में रखती है जिनकी आमदनी 2020-2021 की कीमतों के हिसाब से 5 लाख रुपए और 30 लाख रुपए के बीच थी या मौजूदा कीमतों के हिसाब से 6 लाख रुपए और 36 लाख रुपए के बीच है. और वे अत्यधिक महंगाई, खासकर खाने-पीने की चीजों की भीषण महंगाई, बहुत ज्यादा करों की मार और ठहरी हुई आमदनी की तिहरी मार से कराह रहे हैं.

पटना के 50 वर्षीय बीमा पेशेवर और साल में 6.5 लाख रुपए कमाने वाले मनोज कुमार झा दुखी मन से कहते हैं, ''मामला अब बस गुजर-बसर का हो गया है. हमने यात्रा करना बंद कर दिया, न फिल्म देखने जाते हैं और न सामाजिक कार्यक्रमों में." जरूरी चीजों के दाम बढ़ने से न सिर्फ उनका अपना घरेलू बजट हाथों से बाहर चला गया, बल्कि इलाज के खर्च और इसलिए बीमा प्रीमियम बढ़ने से उनकी आजीविका पर भी असर पड़ा. ग्राहक अपनी पॉलिसी रिन्यू करवाने से कतराने लगे हैं.
अक्तूबर में देश में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) यानी खुदरा वस्तुओं की कीमतों का पैमाना 14 महीनों के सबसे उच्च स्तर 6.2 फीसद पर पहुंच गया और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की तरफ से तय 2-6 फीसद की ऊपरी सीमा तोड़कर आगे निकल गया. ज्यादा कसूरवार खाद्य महंगाई थी—अक्तूबर में खाद्य और पेय पदार्थों की महंगाई 9.7 फीसद थी, अकेले सब्जियों की महंगाई 57 महीनों के सबसे ऊंचे स्तर 42.2 फीसद पर पहुंच गई.
हालांकि दिसंबर तक सीपीआई कुछ शांत होकर नीचे 5.2 फीसद पर आ गया, लेकिन खाद्य महंगाई 8.4 फीसद के ऊंचे स्तर पर ही बनी रही. उधर, मकानों के किराए बढ़ रहे हैं, टेलीकॉम के बिलों में इजाफा हो रहा है और कर्ज ज्यादा महंगे हुए जा रहे हैं. दूसरी तरफ वेतन वृद्धि काफी धीमी पड़ गई है.
शहरी इलाकों में प्राइवेट कंपनियों में वास्तविक वेतन वृद्धि, जो वित्त वर्ष 2022-23 की तीसरी तिमाही तक 10 फीसद से ऊपर थी, अब 3-4 फीसद पर आ गई है. नुवाना इंस्टीट्यूशनल इक्विटीज के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर अबनीश रॉय के मुताबिक, उत्पादकता बढ़ाने के इरादे से और काम में दक्षता लाने की गरज से कंपनियां एआई और टेक्नोलॉजी का फायदा उठा रही है, जिससे झटका और तीव्र हो गया है.
सिकुड़ती आय
हतोत्साह का एक और कारण ऊंचे कर हैं. लोगों को आमदनी के साथ-साथ अपने उपभोग वाली वस्तुओं और सेवाओं पर कर देना पड़ता है. वित्तीय सलाहकार फेलिक्स एडवाइजरी का आकलन है कि मध्य वर्ग पर कर का कुल बोझ 26 से लेकर 38 फीसद के बीच होता है. इसमें आयकर, रोजमर्रा के घरेलू सामान पर जीएसटी, संपत्ति कर, विलासिता और मनोरंजन कर शामिल हैं. नेस्ले इंडिया के सीएमडी सुरेश नारायणन ने अक्तूबर 2024 में मीडिया से कहा था, ''देश का मध्य वर्ग, जो मध्य सेग्मेंट में उचित मूल्य की पेशकश करता है, की जेब सिकुड़ रही है."
तय है कि देश में कोविड के बाद अर्थव्यवस्था में अंग्रेजी के अक्षर के-आकार की बहाली हो रही है, जिसमें अमीर और अमीर हो रहे हैं और गरीब और गरीब. कॉर्पोरेट को कर में भारी रियायत इस आशा के साथ दी गई कि कारोबार में विस्तार होगा और रोजगार सृजन होगा. दूसरी ओर, मोटे तौर पर चुनावी जरूरतों को ध्यान में रखकर आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों और ग्रामीण इलाकों में कुछेक कल्याणकारी योजनाओं और नकद लाभ दिया गया. लेकिन मध्य वर्ग को अपने हाल पर छोड़ दिया गया, उसके हाथ में पैसा घटता जा रहा है और राहत के कोई उपाय नहीं हैं.
यह देश की आबादी का करीब 38 फीसद है और यह देश की कुल घरेलू आय का आधे से अधिक हिस्सा है और कुल उपभोग में 50 फीसद से अधिक का योगदान करता है. प्राइस के प्रबंध निदेशक और सीईओ राजेश शुक्ल के अनुसार, यह देश में सबसे तेजी से बढ़ता क्षेत्र भी है, तादाद के साथ फीसद के रूप में भी और हर साल 6.3 फीसद की दर से बढ़ रहा है. 1991 में उदारीकरण के बाद से उपभोक्ता उछाल की अगुआई करने वाला मध्य वर्ग भारतीय आर्थिक वृद्धि की रीढ़ रहा है.
लेकिन अब वह पीड़ित है. और उसी के साथ देश की वृद्धि भी. वित्त वर्ष 25 के लिए देश के वृद्धि अनुमान घटाकर 6.4 फीसद कर दिए गए हैं जिनके रिजर्व बैंक ने इस साल के शुरू में 7 फीसद रहने का अनुमान जताया था. और ये पिछले वित्त वर्ष में हासिल 8 फीसद से अधिक की वृद्धि से काफी कम हैं.
चौतरफा दबाव के कारण मध्य वर्ग वही कर रहा है जो उसे सबसे आसान लग रहा है—खपत में कटौती. यह रुझान सेक्टर दर सेक्टर, ऑटोमोबाइल से लेकर आवास और उपभोक्ता सामान से लेकर एफएमसीजी उत्पादों तक में साफ झलकता है. उत्तर प्रदेश के अयोध्या में सरकारी भू राजस्व अधिकारी 31 वर्षीय सचिन मिश्र को उम्मीद थी कि पिछले साल शादी से पहले वे नई कार खरीद लेंगे. लेकिन निजी ऋण को चुकाने, अपने बुजुर्ग मां-बाप को सहारा देने, किराया और घर के सामान में ही उनके परिवार की 10 लाख की वार्षिक आय का बड़ा हिस्सा खप जाता है. वे सेकंड हैंड कार खरीदने की उम्मीद कर रहे हैं लेकिन ऋण की ऊंची लागत हतोत्साहित कर रही है.
इसमें ताज्जुब की बात नहीं कि देश में उपभोग रुझानों का संकेतक, यात्री वाहनों की बिक्री, नवंबर में सालाना आधार पर 14 फीसद घटी है जो बाजार के अनुमान से कहीं ज्यादा है. हैचबैक श्रेणी में बिक्री 4 फीसद गिरकर वित्त वर्ष '25 की दूसरी तिमाही में 2,40,000 रह गई है जो इससे पिछली तिमाही में 2,58,000 थी. इस सेग्मेंट ने बाजार हिस्सा भी गंवाया है और अपनी जगह एसयूवी और एमपीवी जैसी महंगी गाड़ियों को दे दी है जिनकी बिक्री क्रमश: 7.5 फीसद और 9.7 फीसद बढ़ी है.
इससे अर्थव्यवस्था में के-आकार की वृद्धि जाहिर होती है. मारुति सुजूकी के चेयरमैन आर.सी. भार्गव ठीक ही कहते हैं, "वित्त वर्ष 19 में बिकने वाली 82 फीसद कारें 10 लाख रुपए से कम की थीं." वे कहते हैं, "यह सेग्मेंट अब ज्यादा नहीं बढ़ रहा है. असल में, यह गिर रहा है. अब आप खुद फैसला करिए कि इतना बड़ा सेग्मेंट नहीं बढ़ता, बल्कि गिरता है तो दूसरे सेग्मेंट कितना बढ़ सकते हैं और इस 80 फीसद सेग्मेंट की भरपाई कर सकेंगे?"
मध्य वर्ग की मोबिलिटी की पहचान, दोपहिया की बिक्री, में भी ऐसे ही गिरावट के रुझान हैं. वित्त वर्ष 19 में कोविड से पहले की अवधि में यह बिक्री 2.8 करोड़ थी जो वित्त वर्ष 24 में घटकर 1.78 करोड़ पर आ गई है जो 10 साल में सबसे कम है.
एक और क्षेत्र रियल एस्टेट है, जो दमित मध्यवर्गीय मनोबल से प्रभावित हो रहा है. नोएडा की एक आईटी कंपनी में एचआर प्रोफेशनल 31 वर्षीया ऐश्वर्या कुमारी तब से इस उपनगर में अपना घर खरीदने का सपना देख रही हैं जब उनकी छह साल की बेटी ने स्कूल जाना शुरू किया. लेकिन ऊंची महंगाई, ठिठकी हुई आय, घरों की बढ़ती कीमतें और आईटी सेक्टर में अनिश्चितता का मतलब है कि उनको अपना फैसला रोकना पड़ा. भले ही इस कारण उन्हें बढ़ते किराये या जब-तब मकान बदलने की समस्या से दो-चार होना पड़ता है.
किफायती घरों की बिक्री या 50 लाख रुपए से कम कीमत वाले मकानों की बिक्री अच्छी खासी घट गई है. एक करोड़ रुपए से कम कीमत के घरों को भी इसमें जोड़ दें तो यह सबसे अधिक संख्या वाला क्षेत्र हो जाता है—आवासीय बाजार का लगभग आधा. बढ़ती ब्याज दरें-जो कोविड के दौरान 6.5 फीसद से बढ़कर 9.5 फीसद या यहां तक कि दोहरे अंक में पहुंच गई हैं - भी इसमें एक बड़ी बाधा है. बिक्री इसलिए भी प्रभावित हुई क्योंकि प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत प्रोत्साहन कुछ समय के लिए उपलब्ध नहीं थे. सरकार इस योजना का नया संस्करण ला रही थी. इस बीच शहरों में खाली पड़े मकान बढ़ रहे हैं.
प्रॉपर्टी सलाहकार नाइट फ्रैंक इंडिया में वरिष्ठ कार्यकारी निदेशक गुलाम जिया कहते हैं, "बिना बिके मकानों की संख्या 2020 के बाद से लगातार बढ़ती गई है क्योंकि बिक्री से ज्यादा आपूर्ति में इजाफा हो गया है." वे कहते हैं, "करीब 39 फीसद मकान 50 लाख रुपए से कम कीमत वाली श्रेणी में हैं." रियल एस्टेट कंपनियां मध्य और उच्च श्रेणी की तरफ रुख कर रही हैं. नतीजे में सात बड़े शहरों में अप्रैल-जून 2024 में अपेक्षाकृत सस्ते अपार्टमेंटों की नई आपूर्ति 21 फीसद घट गई है.
उपभोक्ता सामग्री में अब तेजी नहीं
दूसरे क्षेत्रों पर भी चोट पहुंच रही है. अहमदाबाद की 32 वर्षीया वंदिता नैनानी के लिए इंटीरियर डिजाइनर के रूप में अपने पेशे में रंग-रूप ज्यादा मायने रखती है. लेकिन सामग्री की लागत 30-40 फीसद बढ़ जाने के कारण उनके ग्राहक इंटीरियर के अपने खर्च में कटौती कर रहे हैं. लिहाजा नैनानी को भी अपनी खरीद पर दोबारा विचार करना पड़ रहा है जिनमें हेयर ऑयल और हाईलाइट्स शामिल हैं. पहली पीढ़ी की उद्यमी कहती हैं, "मैं शैंपू पर डील का इंतजार करती हूं और फिर उत्पाद की गुणवत्ता और अपने बालों पर उसके असर को लेकर चिंता करती हूं."
रेटिंग एजेंसी क्रिसिल में वरिष्ठ निदेशक अनुज सेठी कहते हैं, नैनानी का व्यवहार तेज खपत वाले सामान (एफएमसीजी) के खरीदारों के जैसा ही है जो अपना बजट तंग हो जाने पर करते हैं: गैर-जरूरी चीजों की खरीद में कटौती या उनको टाल देना. कई एफएमसीजी कंपनियों ने अपनी दूसरी तिमाही की अर्निग कॉल में कमजोर शहरी मांग को लेकर चिंताएं जताई थीं.
हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड में प्रबंध निदेशक और सीईओ रोहित जावा कहते हैं, ''बड़े शहरों में बढ़ोतरी का नीचे की ओर रुझान है. हालांकि छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में वृद्धि मजबूत बनी हुई है." नतीजतन, इसका इन कंपनियों की कमाई और लाभ पर असर हो रहा है. एफएमसीजी की बिक्री का मूल्य अच्छा-खासा धीमा हो गया है और यह सितंबर 2023 की 10 फीसद बढ़ोतरी से गिरकर सितंबर 2024 में 5.6 फीसद रह गया है. नीलसनआईक्यू में टेक और ड्यूरेबल के वाणिज्य प्रमुख सारंगपाणि पंत का कहना है कि अगर आप इसमें एफएमसीजी कीमतों में 0.6 फीसद की कुल बढ़ोतरी भी शामिल कर लें तो वृद्धि और भी ज्यादा सुस्त थी.
एफएमसीजी बिक्री में यह गिरावट शहरी क्षेत्रों से आ रही है. डाबर इंडिया के सीईओ मोहित मल्होत्रा कहते हैं, "बढ़ती खाद्य महंगाई शहरों में मांग को प्रभावित कर रही है, खासकर विवेकाधीन उत्पादों के मामले में." एक परिवार के खर्च में अब खाद्य खर्च का हिस्सा 40-50 फीसद होता है जिससे गैर-जरूरी खर्च के लिए थोड़ा ही पैसा बचता है. परिवार उपभोग खर्च सर्वेक्षण से खुलासा होता है कि 2023-24 में खाद्य पर खर्च में 2011-12 की तुलना में कमी आई है.
शहरी परिवारों के लिए यह कमी 3 फीसद है तो ग्रामीण क्षेत्रों में 6 फीसद. मध्यवर्गीय उपभोक्ता वस्तु की मात्रा से समझौता भले ही नहीं करें लेकिन किफायती सौदा चाहेगा—सस्ता या बिना ब्रांड वाले विकल्प के रूप में. नीलसनआईक्यू के आंकड़ों के अनुसार, ब्रांडेड खाद्य तेल का बाजार मूल्य सितंबर 2024 में 11 फीसद तक गिर गया, जिसमें सितंबर 2023 में 2.3 फीसद की गिरावट आई थी.
महत्वपूर्ण कच्चे माल जैसे पाम ऑयल, कॉफी, कोको और गेहूं की कीमतें बढ़ रही हैं. जैसे, पर्सनल केयर और स्नैक ब्रांडों में पाम ऑयल प्रमुख कच्चा माल है लेकिन पाम ऑयल के शुल्क में 20 फीसद की बढ़ोतरी हुई है, चाय की कीमतें 30 फीसद बढ़ी हैं. इस कारण एचयूएल, मेरिको, डाबर और टाटा कंज्यूमर प्रोडक्ट्स जैसी कंपनियों को अपने कुछ उत्पादों की कीमतें 3-5 फीसद तक बढ़ाने या प्रति पैकेज उनका वजन घटाने के लिए मजबूर होना पड़ा है. जावा कहते हैं, जिंसों की कीमतों में उछाल से 3 रोजेज, ताजा और रेड लेबल जैसे मध्य-बाजार के चाय ब्रांडों की बिक्री प्रभावित हुई है जो मध्यवर्ग की जरूरत हैं. हालांकि लिप्टन और ताज जैसे प्रीमियम ब्रांड बढ़ रहे हैं.
टिकाऊ उपभोक्ता सामान यानी कंज्यूमर ड्यूरेबल पर भी असर हुआ है. भोपाल में एक निजी स्कूल में फ्लीट मैनेजर 47 वर्षीय अब्दुल रकीब कुछ समय से फ्रंट लोडिंग 12 किलोग्राम की वॉशिंग मशीन खरीदने का इंतजार कर रहे थे. वे कहते हैं, "मैंने पिछली मशीन 10,000 रुपए से कम में खरीदी थी." लेकिन नई अब उन्हें 45 से 60 हजार रुपए के बीच मिलेगी. इससे हतोत्साहित होकर उन्होंने खरीद टाल दी है और इसके बजाय अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च को प्राथमिकता दे रहे हैं.
एफएमसीजी उत्पादों के विपरीत, जहां उपभोक्ता महंगाई की अवधि के दौरान कम खरीदारी करते हैं, टिकाऊ सामान के मामले में खरीद में देर करते हैं या उन्हें बदलने का समय आगे खिसका देते हैं. ऐसा इसलिए कि एफएमसीजी खर्च के विपरीत ड्यूरेबल सामान की खरीद को समय के अनुसार बढ़ाया जा सकता है क्योंकि ईएमआई जैसे विकल्प होते हैं. इसमें ताज्जुब की बात नहीं जो मार्केट इंटेलिजेंस फर्म नीलसनआईक्यू की रिपोर्ट कहती है कि टीवी, रेफ्रिजरेटर और सेलफोन सहित 60 श्रेणियों में वॉल्यूम ग्रोथ (बिक्री वृद्धि) सपाट रही है, इन श्रेणियों में मूल्य वृद्धि पिछले साल की तुलना में महज 9 फीसद रही है. पहली बार फोन और सेलफोन का हिस्सा भी पिछले दो साल के दौरान अच्छा-खासा गिरा है.
महंगे की तरफ जाने का भी रुझान बढ़ रहा है: किफायती और फीचर सुविधाओं वाले प्रीमियम क्षेत्र में वृद्धि हो रही है जिसकी तरफ थोड़ा संपन्न लोग जा रहे हैं. गोदरेज एंटरप्राइजेज ग्रुप (जीईजी) में बिजनेस हेड कमल नंदी कहते हैं, बढ़ती स्थानीय मैन्युफैक्चरिंग से महंगे इलेक्ट्रॉनिक सामान की लागत घटाने में मदद मिली है. यह रुझान बिक्री के आंकड़ों में दिखता है. जीईजी के उत्पादों का व्यापक हिस्सा 2020 और 2024 के दौरान करीब 17-18 फीसद बढ़ा है जबकि प्रीमियम सेग्मेंट में 45 फीसद की वृद्धि हुई है. नंदी बताते हैं कि सेमी-ऑटोमेटिक वॉशिंग मशीन की श्रेणी, जो पहले शहरी मध्यवर्गीय परिवार की जरूरत होती थी, स्थिर हो गई है.
उद्योग ऐसे मुश्किल समय से निबट रहा है. देश में सबसे बड़ी मिक्सर ग्राइंडर कंपनियों में से एक क्रॉम्पटन ने वृद्धि के लिए ''क्रॉम्पटन 2.0’’ रणनीति का इस्तेमाल किया. दो साल पहले अपनाई गई इस रणनीति में विभिन्न बाजार चक्रों और ग्रामीण बाजार में पहुंच के लिए उत्पादों के अधिक वैरिएंट शुरू करने पर जोर दिया गया. क्रॉम्पटन ग्रीव्स कंज्यूमर इलेक्ट्रिकल्स में ग्रुप सीएफओ और रणनीति प्रमुख कालीश्वरन अरुणाचलम कहते हैं, ''मौजूदा आर्थिक माहौल में इस रणनीति से हमें अच्छी मदद मिली.’’
लिहाजा, दो साल पहले किफायती श्रेणी में उतारी गई 500 वॉट या लोअर मिक्सर ग्राइंडर की बिक्री 30 फीसद से अधिक की दर से बढ़ रही है और आज इसका कारोबार 300 करोड़ रुपए का हो गया है. इसके साथ ही, प्रीमियम हाइ वोल्टेज चार-जार मिक्सर, न्यूट्री ब्लेंडर, जूसर और अन्य महंगे सामान कंपनी की बढ़ोतरी में लगातार योगदान कर रहे हैं.
बदलाव का वक्त
नई मांग में उभार के लिए वास्तविक पारिश्रमिक या वेतन या आमदनी में बढ़ोतरी बेहद महत्वपूर्ण है. इंडिया रेटिंग्स ऐंड रिसर्च में मुख्य अर्थशास्त्री देवेंद्र कुमार पंत कहते हैं, "आमदनी में बढ़ोतरी का जवाब खपत में वृद्धि होती है. कुल स्तर पर, वास्तविक वेतन वृद्धि में 1 फीसद बदलाव, जो महंगाई के लिहाज से समायोजित नॉमिनल वेतन है, से वास्तविक निजी वित्तीय उपभोग खर्च में 110 आधार अंक का परिवर्तन आता है."
शायद यही कारण है कि क्यों विशेषज्ञ और उद्योग संगठन सरकार से खपत बढ़ाने में मदद का अनुरोध कर रहे हैं. केयरएज रेटिंग्स में मुख्य अर्थशास्त्री रजनी सिन्हा का कहना है, "केंद्र ने पिछले कुछ साल में पूंजीगत खर्च वृद्धि पर जोर दिया है, जिससे ऊंची वृद्धि हासिल हुई है. अब उसे खपत बढ़ाने पर जोर देने की जरूरत है." वे कहती हैं कि इसे करने का एक तरीका शायद निजी आयकर दरों में कटौती हो सकता है.
वास्तव में उपभोक्ताओं और कंपनियों ने मध्यवर्गीय उपभोक्ता का मनोबल बढ़ाने के लिए अपनी उम्मीदें इस साल के बजट पर लगा रखी हैं. कॉन्फेडरेशन आफ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) चाहता है कि सरकार "खर्च योग्य आय बढ़ाने पर जोर दे और टिकाऊ आर्थिक रफ्तार के लिए खर्च को प्रोत्साहित करे." उसकी सिफारिशों में से एक है ईंधन पर उत्पाद शुल्क में कमी करना. केंद्रीय उत्पाद शुल्क पेट्रोल के खुदरा मूल्य पर लगभग 21 फीसद और डीजल पर 18 फीसद होता है. मई 2022 के बाद से इन शुल्कों में कोई समायोजन नहीं किया गया है जबकि कच्चे तेल की वैश्विक कीमतों में करीब 40 फीसद की कमी आई है.
ईंधन पर उत्पाद शुल्क घटाने से महंगाई कम करने और खर्च योग्य आय बढ़ाने में मदद मिलेगी. उद्योग संगठन ने यह भी सिफारिश की है कि निजी आयकर की सीमांत कर दर घटाकर 20 लाख रुपए प्रति वर्ष तक की जाए. बैंक ऑफ बड़ौदा में मुख्य अर्थशास्त्री मदन सबनवीस भी करों में कटौती की पैरवी करते हैं.
वे कहते हैं, "उन्हें निम्न मध्य वर्ग के बजाय समूचे मध्य वर्ग को लक्ष्य करना होगा." सरकार मनरेगा के तहत दैनिक न्यूनतम मजदूरी 267 रुपए से बढ़ाकर 375 रुपए करने पर विचार कर सकती है. फिक्सिंग नेशनल मिनिमम वेजेज पर बनी विशेषज्ञ समिति ने 2017 में इसकी सिफारिश की थी. सरकार निम्न आय समूह को खपत वाउचर भी जारी कर सकती है.
यह देखते हुए कि घरेलू वित्तीय परिसंपत्तियों के अनुपात के रूप में बैंक जमा घट गई है और ये वित्त वर्ष 20 के 56.4 फीसद से कम होकर वित्त वर्ष 24 में 45.02 फीसद रह गई हैं. इसके लिए सीआईआई का सुझाव है कि जमा की ब्याज दर आय पर कम दर से कर लगाया जाए और सावधि जमा खातों की लॉक-इन अवधि भी घटाई जाए और उन्हें प्राथमिक कर व्यवहार के साथ मौजूदा पांच साल से घटाकर तीन साल किया जाए. जीएसटी दरों को तर्कसंगत बनाना एक और चिंता का क्षेत्र है. जैसा कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने 9 जनवरी को कहा, "नौ तरह की जीएसटी दरें इसे जटिल और बेतुका बनाती हैं, न कि 'अच्छा और सहज कर."
मध्य वर्ग को मुक्त करिए और आप खपत में तेजी, ऊंची आर्थिक वृद्धि और अधिक कर राजस्व का बढ़िया चक्र शुरू कर सकते हैं. मोदी सरकार को समाधानों पर तेजी से कदम बढ़ाने की जरूरत है क्योंकि देश के मध्य वर्ग की चमक के बिना विकसित भारत का सपना महज मरीचिका बना रहेगा.
—साथ में, अमिताभ श्रीवास्तव और जुमाना शाह
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केस स्टडी
दीपन्विता गुप्ता, 43 वर्ष, मालिक, डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी, कोलकाता
मुश्किल दौर
मध्य वर्ग के अन्य लोगों की तरह दीपन्विता गुप्ता भी उच्च कर दरों से परेशान हैं. हाल में उन्हें अपने दोस्तों के साथ सप्ताहांत पर बाहर जाने की योजना रद्द करनी पड़ी, क्योंकि वे इसके ठीक पहले अपने बेटे के साथ एक ट्रिप पर होकर आई थीं. यहां तक, 6,000 रुपए की मामूली-सी रकम भी उनकी जेब पर बहुत भारी पड़ रही थी, जो दीपन्विता को अपनी चचेरी बहन के लिए वैवाहिक विज्ञापन देने पर खर्च करनी थी.
इसी तरह, हर साल की तरह अप्रैल में परिवार के साथ छुट्टियां मनाने की बात आई तो दीपन्विता ने उस पर कोई खर्च न करना ही बेहतर समझा. खासकर यह सोचकर कि यह राशि उनकी 35 वर्षीया भाभी के लिए मददगार हो सकती है, जो कैंसर और लिवर सिरोसिस से जूझ रही हैं. मरीज का परिवार संपन्न नहीं है, इसलिए दीपन्विता और उनके पति ने आर्थिक मदद का फैसला किया.

दीपन्विता बताती हैं कि वे अपने पेशेवर जीवन में भी बचत को लेकर इसी तरह का सतर्क रवैया अपनाती हैं. डिजिटल मार्केटिंग से जुड़ी करीब 50 लाख रुपए वार्षिक राजस्व वाली एमएसएमई की मालिक दीपन्विता पर अक्सर शानदार नेटवर्किंग इवेंट, बिजनेस ग्रुप पार्टियों और कॉर्पोरेट उपहारों पर खर्च करने का दबाव रहता है. वे इसके बजाए इस पैसे को सॉफ्टवेयर टूल खरीदने में निवेश करने, अतिरिक्त लोगों को काम पर रखने या कर्मचारियों को छोटी-मोटी ही सही सालाना वेतन वृद्धि देने में इस्तेमाल करना ज्यादा जरूरी मानती हैं.
दीपन्विता कहती हैं, "मध्य वर्ग को सिर्फ भौतिक चीजों की अपनी इच्छा को ही नहीं मारना पड़ता, बल्कि उन्हें निजी और पेशेवर जीवन दोनों में ही अपनी तात्कालिक जरूरतों के बीच संतुलन बनाना पड़ता है. फिर भी, अगर कर का बोझ कम हो तो हम जैसे लोग काफी कुछ अच्छा कर सकते हैं."
—अर्कमय दत्ता मजूमदार
केस स्टडी
अब्दुल रकीब, 47 वर्ष, फ्लीट मैनेजर, निजी स्कूल, भोपाल (मध्य प्रदेश)
जरूरतें बेमानी हो गईं
कितनी बार पैसों की कमी के कारण जरूरत की चीजें खरीदना भी नामुमकिन हो जाता है? रकीब ने 2014 में 7 किलो की टॉप- लोडिंग वॉशिंग मशीन खरीदी थी, जो घर के लिए बेहद उपयोगी भी रही. पिछले दो वर्ष से उनकी गृहिणी पत्नी 12 किलो की फ्रंट-लोडिंग मशीन खरीदने को कह रही हैं, जिसकी कीमत 45,000 रुपए से 60,000 रुपए के बीच होगी. और, रकीब के लिए इतने पैसे जुटाना संभव नहीं हो पा रहा.
रकीब कहते हैं, "मैंने उस समय 10,000 रुपए से कम में वॉशिंग मशीन खरीदी थी लेकिन अब इसकी कीमतें काफी बढ़ गई हैं. वैसे तो यही बताया जाता है कि घरेलू उपकरण समय के साथ सस्ते हो जाते हैं, लेकिन कंपनियां नई तकनीक लाती रहती हैं और इसके लिए अच्छी-खासी कीमत भी वसूलती है." रकीब अपनी सालाना आमदनी का खुलासा नहीं करते.

रकीब के तीन बच्चे हैं, जो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए कोचिंग ले रहे हैं. उनकी तनख्वाह का ज्यादातर हिस्सा फीस भरने में ही चला जाता है. उनकी सालाना वेतन वृद्धि भी जरूरतों की तुलना में काफी कम है. वे कहते हैं, "कुछ भी हो अब कोई व्यक्ति हाथ से कपड़े धोने की आदत तो फिर नहीं अपना सकता." उन्हें अभी पुरानी वॉशिंग मशीन से ही काम चलाना पड़ेगा.
—राहुल नरोन्हा
केस स्टडी
सचिन मिश्रा, 31 वर्ष, सरकारी कर्मचारी, अयोध्या, उत्तर प्रदेश
सिकुड़े सपने
सचिन मिश्रा के लिए कार खरीदने का सपना पूरा करना अब भी दूर की कौड़ी है. सरकारी भू-राजस्व अधिकारी सचिन को अपने कामकाज के सिलसिले में काफी यात्रा करनी पड़ती हैं, और उन्हें अक्सर मजबूरी में अयोध्या के खस्ताहाल सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करना पड़ता है.
पिछले साल अपनी शादी से पहले उन्हें उम्मीद थी कि कार खरीद लेंगे. इससे उनका हर रोज का सफर आसान हो जाएगा और उनके परिवार को आराम मिलेगा. सर्दियों में रात में यात्रा करना कष्टदायी होता है, गर्मियों की तपिश और बारिश में तो मुश्किलें और भी बढ़ जाती हैं. लेकिन बढ़ते खर्चों और सीमित बचत के कारण उन्हें सपने को पीछे छोड़ना पड़ा.

मिश्रा के परिवार की सालाना आय करीब 10 लाख रुपए है. वे कहते हैं, "कार जरूरी लगती है लेकिन फिलहाल तो यह सपना पूरा होता नहीं दिखाई देता. शायद कुछ महीनों में मैं सेकंड हैंड कार खरीदने के बारे में सोच पाऊं."
हालांकि सरकारी नौकरी से बेहतर वित्तीय भविष्य की उम्मीदें जुड़ी थीं लेकिन मिश्रा की ज्यादातर बचत परिवार के कर्जों को चुकाने में चली गई. अभी उनके वेतन का एक-चौथाई हिस्सा 2023 में लिए गए निजी कर्ज को चुकाने में खर्च हो जाता है. बाकी 20-30 फीसद किराया और किराना खरीदने में खर्च होता है. मां-बाप के भरण-पोषण की भी जिम्मेदारी है. उनकी बचत और सीमित हो गई है.
ब्याज की ऊंची दरें भी आड़े आ रही हैं. मिश्रा कहते हैं, "मेरी अधिकांश कमाई जिम्मेदारियां निभाने में ही खर्च हो जाती है."
—अवनीश मिश्रा
केस स्टडी
ऐश्वर्या कुमारी, 34 वर्ष, एचआर प्रोफेशनल, ग्रेटर नोएडा
अपना कोई घर नहीं
अपना खुद का घर/फ्लैट खरीदना हर मध्यवर्गीय व्यक्ति की सबसे बड़ी इच्छा होती है. नोएडा में एक आईटी कंपनी में एचआर प्रोफेशनल ऐश्वर्या कुमारी कई वर्षों से अपने ऑफिस के आसपास ही घर खरीदने का सपना देख रही थीं. ऐश्वर्या के पति नई दिल्ली में काम करते हैं; उनकी छह साल की बेटी नोएडा के एक स्कूल में पढ़ती है.
हर साल घर का किराया बढ़ने और बार-बार घर बदलने में होने वाली परेशानी के बावजूद दंपती ने अपने सपने को अनिश्चितकाल के लिए टाल दिया. वजह है लगातार बढ़ती महंगाई. ऐश्वर्या कहती हैं, "हम तीन-चार साल पहले की तुलना में बुनियादी घरेलू चीजों पर अधिक खर्च करते हैं और इसमें कमी आती नहीं दिख रही."

बढ़ती महंगाई की तुलना में दंपती की आय नहीं बढ़ी है और उनके पास इतनी बचत का साधन नहीं है, जो घर खरीदने का सपना पूरा कर सकें. नोएडा में अपार्टमेंट की कीमतें भी कोविड-पूर्व की तुलना में दोगुनी हो चुकी हैं. यही नहीं, अमेरिका में राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप की वापसी के बीच आईटी सेक्टर भी अनिश्चितता के दौर से गुजर रहा है. कंपनियां सतर्क हैं और कर्मचारियों की संख्या न बढ़ाकर लागत कम करने की कोशिश में जुटी हैं. इन सबकी वजह से इस दंपती को फिलहाल इंतजार करने का विकल्प ही चुनना होगा.
—हिमांशु शेखर