
लीजिए, 2025 आ गया! इस संख्या पर गौर करने पर हममें से ऐसे कइयों को झटका-सा लग सकता है, जिनके लिए सहस्राब्दी की सुबह कल की ही बात लगती है. वाई2के याद है? हालांकि उस बात को 25 साल बीत चुके हैं, और यहां तक कि सहस्राब्दी के युवा भी बड़े हो चुके हैं, लेकिन अभी तक कोई उन्हें कमान नहीं सौंप रहा: दुनिया को अभी भी 20वीं सदी के लोग चला रहे हैं, और इसके सामने आने वाली कई चुनौतियों की जड़ें अतीत में ही समाई लगती हैं.
यह अंक अपने आप में एक सुकून देने वाली परंपरा का नवीनतम संस्करण है, जिसमें हम भारत और दुनिया के लिए आने वाले वर्ष पर नजर डालने की खातिर विशेषज्ञों के प्रतिष्ठित पैनल को आमंत्रित करते हैं. वे पीछे घटती अराजकता पर आमतौर पर आधी नजर रखते हुए आने वाले वर्ष के लिए आशावादी दृष्टिकोण रखते हैं.
शायद यह सिर्फ ट्रंप प्रभाव है, लेकिन इस साल के लेख, खासकर भू-राजनैतिक क्षेत्र में, आगे और अधिक अराजकता के लिए तैयार दिखते हैं. लेकिन जैसा कि हमारे एक प्रतिष्ठित भविष्यवक्ता ने सुझाव दिया है, 'विश्व व्यवस्था' का अभाव ऐतिहासिक रूप से नियम रहा है, अपवाद नहीं—इसलिए शायद अव्यवस्था में ही व्यवस्था है.
हम इससे सुकून पा सकते हैं. मुमकिन है कि भारत और भारतीय इस अराजक दुनिया में अन्य लोगों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करेंगे—हमारी प्रतिष्ठा प्रतिकूल परिस्थितियों में भी शांत प्रगति के लिए है.
यहां लिखे गए कई निबंध हमारे देश की कठिन चुनौतियों के समाधान के रूप में टेक्नोलॉजी और गवर्नेंस के मेल में एक शांत विश्वास व्यक्त करते हैं. आइए, एक संजीदा उल्लास के साथ मंगलमय नए साल की शुरुआत के बारे में सोचें.
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व्यवस्थाओं के बीच उलझी दुनिया
—शिवशंकर मेनन
हर पीढ़ी का यही मानना है कि वह पहले की तुलना में कहीं ज्यादा अनिश्चित और खतरनाक दुनिया में रह रही है, संकट अभूतपूर्व हैं और यहां तक कि इंसानों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ता जा रहा है. मीडिया की टिप्पणियों के आधार पर आकलन करें तो हम कोई अपवाद नहीं हैं. फिर भी, मानव जाति ने न सिर्फ खुद को बचा रखा है बल्कि लगातार अपने हालात में सुधार कर रही है. इतिहास पर नजर डालें तो अब और ज्यादा लोग अधिक लंबा, स्वस्थ और समृद्ध जीवन जी रहे हैं.
हमारी वस्तुपरक स्थिति और जिस तरह हम उसे समझते हैं, के बीच इस मिथ्याभास या विरोधाभास के बारे में यही कहा जा सकता है कि यह वैश्विक व्यवस्था का एक विचार बन चुका है. द्विध्रुवीय शीत युद्ध और फिर एकध्रुवीय स्थिति ने हमें यह मानने का आदी बना दिया कि कोई न कोई वैश्विक क्रम होना सामान्य और लाभदायक है क्योंकि पहली व्यवस्था में दो और उसके बाद एक महाशक्ति ने दुनिया पर प्रभुत्व स्थापित किया. कोई आधिपत्यवादी क्यों चाहेगा कि हम इससे इतर सोचें.
मगर इतिहास और अनुभव हमें क्या बताते हैं? दरअसल, विश्व व्यवस्था इतिहास में अपवाद रही है. इतिहास के अधिकांश वक्त में कोई विश्व व्यवस्था नहीं रही. विश्व व्यवस्था तभी अस्तित्व में आती है जब शक्तियों में भारी असंतुलन हो, जैसे 13वीं शताब्दी में मंगोलों के ताकतवर होने पर, 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के प्रारंभ में यूरोप का प्रभुत्व स्थापित होने तथा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिका और कुछ समय के लिए तत्कालीन सोवियत संघ के पास ज्यादा ताकत आने के साथ हुआ था.
और जरूरी नहीं कि व्यवस्था के अधीन विश्व सबसे शांतिपूर्ण हो. शीत युद्ध के दौरान दुनिया की 80 फीसद से ज्यादा सैन्य और आर्थिक शक्ति को दो महाशक्तियां अपने गठबंधन के जरिए नियंत्रित करती थीं. मौजूदा वक्त में दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और सैन्य शक्ति का 50 फीसद से थोड़ा कम हिस्सा दो सबसे बड़ी शक्तियों अमेरिका और चीन के नियंत्रण में है. इसलिए विश्व व्यवस्था की तुलना में इसके अनुपस्थित होने पर दुनिया में शक्ति संतुलन अधिक समान होता है.
इतिहास गवाह है, जब विश्व व्यवस्था विवादित रही तब सर्वाधिक नवोन्मेषी समय रहा और सबसे अधिक आर्थिक प्रगति हुई. छठी शताब्दी ईसा पूर्व एक्सियल एज और 18वीं और 19वीं शताब्दी की औद्योगिक क्रांति उस समय हुई जब युद्ध आम बात थे औरन व्यवस्था विवादित थी. वैश्विक स्तर पर अहम अर्थव्यवस्थाओं के तौर पर चीन और भारत का दोबारा उभरना भी महाशक्तियों की जंग के बिना ही संभव हुआ. इससे साफ है कि वैश्विक व्यवस्था के लाभ को संभवत: बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया और इसके महत्व का आकलन वास्तविकता से परे जाकर किया गया.
और आज हम कहां हैं? द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी नेतृत्व में पश्चिम का बनाया गया वैश्विक क्रम सियासी तौर पर विवादित है. यह स्थिति तब है जब सभी देश उस वैश्विक पूंजीवादी बाजार प्रणाली का हिस्सा हैं, जिसे इस व्यवस्था ने बनाया है. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की व्यवस्था को आधार देने वाले वैश्विक शासन के संस्थानों और बहुपक्षीय संगठनों की निष्प्रभाविता कोविड महामारी के प्रति निराशाजनक अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया, विश्व व्यापार संगठन के पतन की ओर बढ़ने और यूक्रेन, सूडान, फलस्तीन, यमन, कांगो से लेकर हिमालय, दक्षिण चीन सागर, ताइवान, पूर्वी चीन सागर और कई अन्य क्षेत्रों में मौजूद संघर्षों से स्पष्ट है.

महाशक्तियों में प्रतिद्वंद्विता है और चीन-अमेरिका के बीच सैद्धांतिक असहमति है. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अब तक के संघर्षों में मौत और देश के भीतर या बाहर शरण लेने वालों की संख्या रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच चुकी है.
व्यवस्थाओं के बीच दुनिया का यही हाल है. ऐसे में यही कह सकते हैं कि दुनिया को अपनी सामान्य स्थिति में लौटना होगा जहां अलग-अलग क्षमताओं के आधार पर प्रतिस्पर्धा हो, श्रेष्ठता साबित करने के लिए सब आगे बढ़ें और अपने भविष्य को खुद तय करें. आज, कम से कम तीन ध्रुवों वाली एक वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था है—उत्तरी अमेरिका, यूरोपीय संघ, और एशिया, जो क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) के जरिए चीन पर केंद्रित है.
वहीं राजनीति तेजी से स्थानीय होती जा रही और सिर्फ अमेरिका ऐसी सैन्य महाशक्ति है जो दुनिया में जहां चाहे, जब चाहे, सैन्य शक्ति दिखा सकता है. इस तरह दुनिया आर्थिक मोर्चे पर बहुध्रुवीय, सैन्य लिहाज से एकध्रुवीय और सियासी तौर पर विखंडित स्थिति में है.
व्यवस्था का अभाव उन दोनों पहलुओं में स्पष्ट नजर आता है, जिसका एक व्यवस्था में वादा किया जाता है—शांति और सुरक्षा की बहाली और मानदंडों और नियमों का निर्माण और उन्हें लागू करने की व्यवस्था.
अक्तूबर 2023 में इज्राएल पर हमास के हमले के बाद पश्चिम एशिया में जो कुछ हुआ और इज्राएल ने जितना कड़ा जवाब दिया और 2024 में जो स्थिति रही, उसने स्पष्ट कर दिया कि अमेरिका के अलावा अन्य शक्तियों की सीमाएं उनकी आसपास की परिधि तक सीमित हैं. यह कोई बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था नहीं है जैसा कई सरकारें कहना पसंद करती हैं क्योंकि ऐसा करके वह खुद को वर्तमान या भविष्य का एक ध्रुव बताकर आत्ममुग्ध होती हैं.
फलस्तीन में जिस स्तर पर मानवीय आपदा की स्थिति उपजी, उसने भी अंतरराष्ट्रीय राज्य-प्रणाली और बहुपक्षीय संगठनों की सीमित क्षमता को रेखांकित किया. सदस्य देशों की ओर से स्थापित और संचालित संगठनों से यह अपेक्षा बेमानी है कि वे तब प्रभावी होंगे जब उसके सदस्य देश आपस में झगड़ रहे हों.
बीते दशक ने हमें दिखाया कि अभी कोई भी विश्व व्यवस्था जलवायु परिवर्तन, वैश्विक आतंकवाद और विकासशील देशों के ऋण संकट जैसे अंतरराष्ट्रीय खतरों से निबटने में सक्षम नहीं. पिछले एक दशक से ज्यादा समय से किसी अहम मुद्दे पर कोई बाध्यकारी अंतरराष्ट्रीय समझौता नहीं हुआ. किसी स्थापित या सहमति वाली व्यवस्था के अभाव में हम साइबर जगत जैसे नए क्षेत्रों या आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) जैसी टेक्नोलॉजी को विनियमित करने में भी सक्षम नहीं हैं जो जितना अवसर प्रदान करते हैं उसी अनुपात में जोखिम भी पैदा कर सकते हैं.
व्यवस्था न होने का नतीजा बड़ी शक्तियों के बीच प्रतिद्वंद्विता के तौर पर सामने है, जो खुद को और अपने हितों को स्थापित करने के लिए संघर्ष में उलझी हैं. महाशक्तियों के बीच प्रतिद्वंद्विता का अनपेक्षित नतीजा यह होता है कि मध्यम और अन्य शक्तियों के लिए महाशक्तियों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने तथा अपने-अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के अवसर खुल जाते हैं, चाहे वह यूक्रेन में रूस हो, फलस्तीन और सीरिया और ईरान के खिलाफ इज्राएल हो, सीरिया में तुर्की हो, अथवा दक्षिण चीन सागर और हिमालय में चीन हो, आर्मेनिया-अजरबैजान का संघर्ष हो, या फिर भारत-मालदीव का मामला ही क्यों न हो. अवसरवादिता के उदाहरण बहुत सारे हैं और लगातार बढ़ रहे हैं.
दुनिया के लिए 2025 कैसा रहेगा? ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति बनने से अंतरराष्ट्रीय संबंधों और भू-राजनीति की गतिशीलता में कोई बदलाव आएगा? ट्रंप जैसे नेता कुछ रुझानों को भड़का सकते हैं या नरम कर सकते हैं. मसलन, अगर ट्रंप आयात कर की चेतावनी से कोई करार कराने में सफल नहीं होते और एकला चलो की अपनी प्रवृत्ति पर काबू नहीं कर पाते, तो चीन-अमेरिका प्रतिद्वंद्विता और अधिक तीव्र हो सकती है; अमेरिका-रूस संबंध कुछ हद तक बेहतर हो सकते हैं; और जापान और दक्षिण कोरिया जैसे एशिया में अमेरिकी सहयोगी अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए स्वयं कदम उठाने के लिए मजबूर हो सकते हैं. मगर ये बदलाव मूल रुझान बदलने के बजाए आंशिक असर वाले साबित हो सकते हैं क्योंकि ऊपर बताए गए अधिकांश कारक संरचनात्मक हैं और मौजूदा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की प्रकृति से मेल खाते हैं.
किसी को भी जलवायु परिवर्तन या कर्ज या आतंकवाद जैसी अंतरराष्ट्रीय चुनौतियों के लिए सुसंगत और समन्वित अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाओं की अपेक्षा तो नहीं करनी चाहिए. जाहिर तौर पर व्यवस्था के अभाव से विश्व अर्थव्यवस्था की निरंतर स्थिर वृद्धि भी सवालों के घेरे में है.
भारत के लिहाज से यही कहा जा सकता है कि हम बहुत अधिक कठिन अंतरराष्ट्रीय माहौल में काम करने वाले हैं. यह समय घरेलू स्तर पर अपनी क्षमताओं के निर्माण और आसपास के क्षेत्रों में शांति स्थापित करने पर ध्यान केंद्रित करने का है. उपमहाद्वीप के कई देश संकट से गुजर रहे हैं और आपदा में अवसर छिपे हैं. यह सही समय है कि हम उपमहाद्वीप के भीतर आर्थिक रिश्ते प्रगाढ़ करें.
दुनिया में अनिश्चितता के बीच भारत उन्हें राजनैतिक और आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने वाला देश बन सकता है और उनके घरेलू सियासी उथल-पुथल में किसी तरह के दखल के बिना सुरक्षा मुहैया करा सकता है. भारत के आकार और विकास के स्तर को देखते हुए यह आर्थिक अवसर भी है बशर्ते हम पूर्वी एशिया में दुनिया की सबसे गतिशील अर्थव्यवस्थाओं के साथ आर्थिक तौर पर जुड़ें.
वैसे चीन के साथ रिश्तों में तालमेल कायम करना तब तक थोड़ा मुश्किल होगा जब तक हम सीमा पर खुद को मजबूत स्थिति में स्थापित नहीं कर लेते. अमेरिका और चीन दोनों घरेलू मोर्चे पर खासे व्यस्त हैं. उन जैसी महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता भी भारत और समान विचारधारा वाले देशों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना दबदबा बढ़ाने का अवसर प्रदान करती है. वैसे यह आसान नहीं होगा, मगर भारत जैसे सशक्त देशों के लिए फायदेमंद हो सकता है, जो वैश्विक व्यवस्था के कामकाज में सुधार की उम्मीद करते हैं. मौजूदा विश्व व्यवस्था में इसकी पूरी गुंजाइश है, जबकि एक दृढ़ विश्व व्यवस्था में इसका विरोध होना तय है.
—शिवशंकर मेनन, पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और विदेश सचिव रह चुके हैं.