
दरअसल, तीन तीर्थयात्रियों को लेकर वह सेडान कार राष्ट्रीय राजमार्ग 106 से होते हुए ज्यों ही राजधानी ढाका से 250 किमी दूर चटगांव की ग्रामीण बस्ती मेखल में पुंडरीक धाम के दरवाजे पर पहुंची, यात्री श्रद्धा से अभिभूत हो गए. 16वीं सदी के महान संत श्री चैतन्य महाप्रभु के समकालीन वैष्णव ऋषि पुंडरीक विद्यानिधि का जन्मस्थल माना जाने वाला 21 एकड़ का यह हरा-भरा परिसर शांत और नीरव रमणीक स्थल है, जहां फूलदार पौधे और प्रचुर जलाशय मौजूद हैं.
1921 में निर्मित इस मंदिर का प्रबंधन 1982 में इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर कृष्ण कॉन्शियसनेस (इस्कॉन) ने अपने हाथों में लिया. आज यह बांग्लादेश के अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय का पसंदीदा तीर्थस्थल है. इसी दिव्यता में हिस्सा लेने के लिए उस दिन वे तीन तीर्थयात्री आए थे. मगर हुआ यह कि उस शांत-नीरव माहौल को मंदिर के बाहर पड़ाव डाले और भारी-भरकम हथियारों से लैस सुरक्षाकर्मियों ने भंग कर दिया, जो दनदनाते हुए सुरक्षा जांच के लिए आ धमके.
उन तीनों को हाथ के इशारे से फटाफट जाने दिया गया, मगर तनाव की अंतर्धारा महसूस की जा सकती थी. हाल के हफ्तों में यह आध्यात्मिक स्थल सांसारिक कलह का नाभिकेंद्र बन गया, जिसने भारत और नोबेल पुरस्कार विजेता तथा अंतरिम सरकार के प्रधान सलाहकार मोहम्मद यूनुस की अगुआई वाले बांग्लादेश के नए सियासी निजाम के बीच रिश्तों में तनाव घोल दिया.
इस तूफान के केंद्र में चिन्मय कृष्ण दास हैं, जो मंदिर के मुखिया और अल्पसंख्यकों के खिलाफ अत्याचारों के मुखर आलोचक हैं. राजद्रोह के आरोप में 25 नवंबर को गिरफ्तार दास की हिरासत से हिंसक घटनाओं का तांता लग गया, जिससे बांग्लादेश के हिंदू डर के साये में रहने को मजबूर हो गए. नतीजे बेहद त्वरित और गंभीर रहे.
दास का बचाव कर रहे वकीलों की बांग्लादेश जमात-ए-इस्लामी और बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) से जुड़े धड़ों से झड़पें हुईं. 70 से ज्यादा वकीलों पर हिंसा फैलाने के आरोप लगे, जिससे तनाव और बढ़ गया. यह इस त्रासद मुकाम पर पहुंच गया कि युवा वकील सैफुल इस्लाम अलीफ की बेरहमी से पीट-पीटकर हत्या कर दी गई, जिससे आक्रोश भड़क उठा.
पुलिस ने स्थानीय हिंदू बाशिंदों को संदिग्ध परिस्थितियों में हिरासत में ले लिया और अज्ञात उपद्रवियों ने उनके घरों और मंदिरों में तोड़-फोड़ मचा दी. इस बीच ढाका में बांग्लादेश यूनिवर्सिटी ऑफ इंजीनियरिंग ऐंड टेक्नोलॉजी और कुछ अन्य शैक्षणिक संस्थाओं में भारतीय झंडे तिरंगे के अपमान पर भारत में तीखी प्रतिक्रिया हुई. त्रिपुरा की राजधानी अगरतला में प्रदर्शनकारियों ने बांग्लादेश के सहायक उच्चायोग पर हमला बोल दिया.

इससे पहले 5 अगस्त को छात्र विद्रोह के नतीजतन बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना की चौंकाने वाली बेदखली के साथ बांग्लादेश के हिंदू अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा की घटनाएं शुरू हुई थीं. उसके बाद हिंदुओं और उनकी संपत्तियों पर कई हमलों की खबरें आईं. अल्पसंख्यक अधिकारों की हिमायत करने वाले प्रमुख संगठन हिंदू बुद्धिस्ट क्रिश्चियन यूनिटी काउंसिल (एचबीसीयूसी) के मुताबिक, 4 से 20 अगस्त के बीच ऐसी 2,010 घटनाएं हुईं, जिनमें नौ हत्याएं, पूजास्थलों पर 69 हमले और महिलाओं के खिलाफ हिंसा की चार घटनाएं शामिल थीं.
एक्स पर युनूस के पक्ष में समर्थन का ट्वीट करके नए निजाम को मान्यता देने वाले पहले वैश्विक नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी उनसे 'हिंदुओं और अन्य सभी अल्पसंख्यक समुदायों की सुरक्षा’ पक्की करने के लिए कहा. ढाका में ईसाई स्कूलों पर हमलों के बाद अमेरिका के निर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप तक ने भी एक्स पर ट्वीट किया, ''मैं बांग्लादेश में, जहां लगातार अराजकता की स्थिति है, भीड़ के हमलों और लूट का शिकार हो रहे हिंदुओं, ईसाइयों और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ बर्बर हिंसा की कड़ी निंदा करता हूं.’’
मगर यूनुस सरकार का दावा है कि सांप्रदायिक घटनाओं को लेकर एचबीसीयूसी के आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर बताए गए हैं. वैसे, सूची में दर्ज कुछ घटनाओं को सरकार ने माना है. 10 दिसंबर को सरकार ने बताया कि 4 अगस्त और 20 अगस्त के बीच हिंदू मंदिरों में तोड़-फोड़ और अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा के अन्य कृत्यों के 88 मामले दर्ज हुए और 70 गिरफ्तारियां की गईं.
अंतरिम सरकार ने अक्सर यह दलील भी दी कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा सांप्रदायिक नफरत के बजाए सियासी प्रतिशोध का नतीजा है. हिंदू समुदाय ने मोटे तौर पर हसीना की अवामी लीग का समर्थन किया था और वह प्रतिशोध के आसान निशाने के तौर पर देखा जाता है. चटगांव के 36 वर्षीय वकील रेगन आचार्जी कहते हैं, ''यह सच है कि ज्यादातर हिंदुओं ने हसीना का समर्थन किया. मगर क्या यह हमारी गलती है कि अन्य पार्टियां हमारा भरोसा नहीं जीत सकीं? क्या इस वजह से हमें सॉफ्ट टारगेट बनाया जाना चाहिए?’’ उनके सवाल से समुदाय की हताशा झलकती है.
दरअसल, पूरे बांग्लादेश में बिखरा सेवक समुदाय या हिंदी बोलने वाले हिंदू औपनिवेशिक इतिहास की निशानियां हैं. उत्तर भारत के उनके पूर्वजों को ब्रिटिश हुक्मरान छोटे-मोटे कामों के लिए यहां लाए थे. ये समुदाय दीन-हीन दशा में गुजर-बसर करते हुए इन पूरे दशकों के दौरान यहीं बने रहे. सियासी तौर पर वे मुख्यत: अवामी लीग के साथ जुड़े रहे, जिसे वे सबसे ज्यादा धर्मनिरपेक्ष मानते थे.
1.31 करोड़ की तादाद के साथ हिंदू बांग्लादेश की 16.51 करोड़ आबादी के 7.95 फीसद हैं, जिसकी बदौलत वे इस मुस्लिम बहुसंख्यक देश में सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय हैं. हसीना शासन में भी उन्हें बारंबार हमले झेलने पड़े थे. यूनुस के प्रेस सलाहकार शफीकुल आलम कहते हैं, ''हसीना की हुकूमत में हिंदुओं पर हुए अत्याचार कभी प्रमुखता से सामने नहीं लाए गए. मगर अब कुछेक घटनाएं भी होती हैं तो उन्हें कई गुना बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है.’’

भारत का नया सिरदर्द
बांग्लादेश में हिंदुओं के खिलाफ हिंसक प्रतिशोध देश में व्याप्त सियासी और सांप्रदायिक तनावों के जटिल प्रभावों का नतीजा है. यूनुस सरकार के इस दावे में भले कुछ सचाई हो कि ये हमले राजनीति से प्रेरित हैं, पर उसने हिंसा का दंश झेल रहे अल्पसंख्यकों की मुश्किलों को हल करने के लिए अब तक कुछ ठोस नहीं किया है.
बदतर यह कि भारत के साथ संपूर्ण असहयोग का आह्वान करती और 'दिल्ली के शिकंजे से मुक्त’ बांग्लादेश सरकार की मांग करती इबारतें ढाका की सड़कों पर दिखाई दे रही हैं. भारत के विदेश सचिव विक्रम मिस्री की 9 दिसंबर को ढाका यात्रा का मकसद बढ़ती भारत-विरोधी नारेबाजी को कम करने और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के साथ इस बात जोर देना था कि भारत 'रिश्तों को सकारात्मक, अग्रगामी और रचनात्मक दिशा में ले जाने’ की उम्मीद कर रहा है.
भारत के लिए हसीना की बेदखली, हिंदू अल्पसंख्यकों के खिलाफ हमले, भारत-विरोधी भावनाएं और बांग्लादेश में उभरता कट्टरतावाद भारी चिंता के विषय हैं. बंगाल की खाड़ी के मुहाने पर स्थित बांग्लादेश भारत और उसके संवेदनशील उत्तरपूर्वी राज्यों के बीच बेहद अहम भौगोलिक जगह पर पसरा है. 1971 के स्वतंत्रता संग्राम में जब भारत ने मुक्ति वाहिनी का समर्थन किया और पाकिस्तान से टूटकर अलग होने में मदद की, तभी से दोनों के रिश्तों में उतार-चढ़ाव आते रहे हैं.
जब भी देश के संस्थापक पिता शेख मुजीबुर्रहमान (जिनकी अगस्त 1975 में सैन्य तख्तापलट में हत्या कर दी गई) की बेटी हसीना सत्ता में रहीं, रिश्तों में चढ़ाव आए, और बीच-बीच में रही दूसरी हुकूमतों के दौरान उनमें उतार देखा गया. सत्ता में हसीना के दो कार्यकालों के दौरान, पहले 1996 और 2001 के बीच और फिर 2009 से सत्ता से बेदखल किए जाने तक 15 वर्षों के दौरान बांग्लादेश के साथ भारत के रिश्ते दोस्ताना रहे.

जनवरी 2024 में उन्होंने पांचवां कार्यकाल जीता और अवामी लीग को आम चुनाव में जबरदस्त जीत मिली, पर धांधली के खूब आरोप लगे. उनकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी बेगम खालिदा जिया की अध्यक्षता वाली बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) ने चुनाव का बहिष्कार किया. दूसरी मुख्य प्रतिद्वंद्वी मजहब-आधारित बांग्लादेश जमात-ए-इस्लामी पार्टी के चुनाव लड़ने पर हसीना ने 2013 से रोक लगा दी थी.
भागने से चार दिन पहले उन्होंने इसे 'ऐंटी-सेक्युलर, उग्रवादी और आतंकवादी’ संगठन करार देकर प्रतिबंधित कर दिया था. उनकी सरकार के लोकतांत्रिक और मानवाधिकार उल्लंघनों के बावजूद हसीना को समर्थन जताने के लिए बांग्लादेशी विपक्षी पार्टियों ने भारत को दोषी ठहराया.
चुनाव के बाद हसीना ने स्वतंत्रता सेनानियों के वंशजों के लिए सीटें आरक्षित करने के मुद्दे पर छात्रों के विरोध-प्रदर्शनों को हवा देने को जमात और बीएनपी को निशाना बनाया. आरक्षण को खत्म करने के लिए हसीना के राजी हो जाने के बावजूद उनकी सरकार ने आंदोलनकारियों का क्रूरता से दमन किया, जिसके चलते 2,100 से ज्यादा लोग पुलिस गोलीबारी में मारे गए. नतीजा उनके खिलाफ जनविद्रोह हुआ, जिसकी वजह से उन्हें भागने को मजबूर होना पड़ा.
नई अंतरिम सरकार ने जो शुरुआती कदम उठाए, उनमें जमात से प्रतिबंध हटाना शामिल था. तभी से भारत-विरोधी ताकतें मजबूत होती नजर आ रही हैं और कई छात्र नेताओं के जमात सहित कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों के साथ रिश्ते होने का संदेह है. बांग्लादेश में पूर्व भारतीय उच्चायुक्त पिनाक रंजन चक्रवर्ती तस्दीक करते हैं, ''इस्लामी कट्टरपंथ की तरफ झुकाव नजर आ रहा है.
यह निश्चित रूप से बढ़ रहा है. मजहबी असहिष्णुता भी बढ़ रही है, और यह भारत के लिए चिंता का सबब है. भारत का एक सरोकार यह भी है कि नया निजाम पाकिस्तान के साथ ज्यादा नजदीकी रिश्तों पर जोर देगा और भारतीय हितों का दुश्मन होगा. हमारे उत्तरपूर्वी राज्यों में मुश्किलें पैदा करने के लिए पाकिस्तान को एक अड्डा मिल सकता है, जैसा कि उन्होंने पहले भी किया था.’’
विशेषज्ञ पाकिस्तान से करीबी रिश्तों के लिए नई हुकूमत के आतुर होने के साफ संकेत देखते हैं. मसलन, वे कराची से आए उस मालवाहक जहाज की ओर इशारा करते हैं जो हाल में चटगांव बंदरगाह पर खड़ा था. 1971 में देश की आजादी के बाद ऐसा पहली बार हुआ. कुछ निश्चित श्रेणियों में पाकिस्तानियों के लिए वीजा से जुड़ी बाध्यताएं भी हटा ली गई हैं. अवामी लीग के नेतृत्व में संचालित चटगांव सिटी कॉर्पोरेशन के हाथों भारत की वित्तीय मदद से चलाई जा रही सड़क प्रकाश परियोजना रद्द कर दी गई है.
बांग्लादेश की सुप्रीम कोर्ट ने भी 19 नवंबर को सरकार को अदाणी पावर के साथ देश के बिजली अनुबंधों की समीक्षा करने का निर्देश दिया. याचिकाकर्ता ने इसकी शर्तों को देशहित के विरुद्ध बताया है. अदाणी पावर के झारखंड स्थित 1,600 मेगावॉट बिजली संयंत्र से बिजली आपूर्ति करने के लिए 25 वर्ष के बिजली खरीद समझौते पर 2017 में दस्तखत हुए थे. बांग्लादेश पावर डेवलपमेंट बोर्ड पर अदाणी के करीब 85 करोड़ डॉलर (7,216 करोड़ रुपए) बकाया हैं.
महाशक्तियों के खेल
इन सभी घटनाक्रमों ने भारत के विदेश नीति-निर्माताओं को हैरान-परेशान कर दिया, जो मानते हैं कि बांग्लादेश के स्थिर, धर्मनिरपेक्ष और स्वतंत्र बने रहने में भारत का बहुत बड़ा हित है. हसीना के कार्यकाल के पिछले डेढ़ दशक में भारत एक टिकाऊ द्विपक्षीय संबंध बनाने में सफल रहा था. इस अवधि में बांग्लादेश के साथ भारत का व्यापार तीन गुना बढ़ गया. बांग्लादेश के साथ निर्यात 2010-11 में 3.34 अरब डॉलर (28,343 करोड़ रुपए) से बढ़कर 2022-23 में 12 अरब डॉलर (1.02 लाख करोड़ रुपए) की बुलंदी पर पहुंच गया. बांग्लादेश से आयात 0.45 अरब डॉलर से बढ़कर 2.03 अरब डॉलर पर पहुंचा.

भारत बांग्लादेश को सूती धागे, पेट्रोलियम उत्पाद, तेल, मसाले, अनाज और ऑटो कंपोनेंट सहित विविध प्रकार के उत्पादों का निर्यात करता है. बदले में बांग्लादेश हमें रेडीमेड सूती वस्त्र, जूट, चमड़े के जूते और समुद्री उत्पाद भेजता है. भारत ने बांग्लादेश में इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के लिए 7.8 अरब डॉलर (66,190 करोड़ रुपए) का कर्ज भी दिया. इस मौजूदा संकट के दौरान, दोनों पक्षों ने समझदारी दिखाते हुए व्यापार और व्यावसायिक संबंधों को बाधित करने वाले दंडात्मक उपायों से परहेज किया है.
भारत में यह भी चिंता है कि दूसरी महाशक्तियां उसका बैकयार्ड माने जाने वाले क्षेत्र में घुसने की कोशिश कर रही हैं. 2016 में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की ढाका यात्रा के दौरान दोनों देशों ने कई समझौतों पर हस्ताक्षर किए. उसके तहत बांग्लादेश में बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) परियोजनाओं के लिए 26 अरब डॉलर और संयुक्त उद्यम परियोजनाओं के लिए 14 अरब डॉलर का निवेश का वादा था. पिछले साल, चीन के विदेश मंत्रालय ने अनुमान लगाया कि उसने बीआरआई के तहत 35 परियोजनाओं के लिए 4.45 अरब डॉलर जारी किए हैं, जो ऊर्जा और परिवहन क्षेत्रों में हैं.
उनमें गंगा पर पद्मा पुल परियोजना भी शामिल है जो देश के दक्षिण-पश्चिम को उत्तरी और पूर्वी क्षेत्रों से जोड़ेगी. चीन अब बांग्लादेश का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है जिसका कारोबार करीब 25 अरब डॉलर का है. चीन पनडुब्बी कूटनीति का भी इस्तेमाल कर रहा है. उसने 2016 में बांग्लादेश को सस्ते दामों पर दो जंगी पनडुब्बियां बेचीं. एक साल बाद, उसने देश के दक्षिण-पूर्वी तट पर 1.2 अरब डॉलर में एक नया पनडुब्बी बेस बनाने के लिए करार किए. इन पनडुब्बियों के रखरखाव और संचालन के लिए चीनी कर्मचारी बांग्लादेश की नौसेना को प्रशिक्षित भी करेंगे.
उधर, बांग्लादेश और बंगाल की खाड़ी में चीन की घुसपैठ से परेशान अमेरिका ने ढाका पर दबाव डालना शुरू कर दिया कि वह म्यांमार से सिर्फ 8 किमी दूर स्थित सेंट मार्टिन द्वीप को सैन्य अड्डे के रूप में इस्तेमाल करने की अनुमति दे. विशेषज्ञों का मानना है कि अमेरिका उसे चीन और म्यांमार की गतिविधियों और रणनीतिक मलक्का जलडमरूमध्य के लिए निगरानी चौकी के रूप में बनाए रखना चाहता है. जनवरी के आम चुनाव से पहले, हसीना ने दावा किया था कि एक 'गोरे शख्स’ ने उन्हें सैन्य अड्डे को मंजूरी देने पर प्रधानमंत्री के रूप में आसानी से वापसी की पेशकश की थी.
बाद में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा, ''मैं सेंट मार्टिन को पट्टे पर देकर सत्ता में वापस नहीं आना चाहती.’’ समानांतर ट्रैक पर, शेवरॉन और एक्सॉन मोबिल जैसी कई अमेरिका-आधारित बहुराष्ट्रीय तेल और गैस निगमों ने सरकारी स्वामित्व वाली तेल कंपनी पेट्रोबांग्ला के पेश किए गए अपतटीय तेल और गैस ब्लॉकों की खोज और पट्टे के लिए बोली लगाने में भाग लेने पर विचार किया था. ये परियोजनाएं कई अरब डॉलर की हैं और बहुत ही व्यावसायिक हित वाली हैं. हसीना के करीबी सूत्रों का दावा है कि अमेरिका इस समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए उन पर दबाव डाल रहा था.

भारतीय विशेषज्ञों का मानना है कि हसीना को सत्ता से बेदखल करने में अमेरिका के डीप स्टेट यानी खुफिया तंत्र का हाथ हो सकता है. यूनुस को अमेरिका के करीब माना जाता है क्योंकि हसीना सरकार के ग्रामीण बैंक से धन गबन के आरोप के बाद उन्होंने वहां शरण ली थी. ऐसे में भारत को प्रतिस्पर्धी हितों के इस टकराव से चतुराई से निबटने की जरूरत है, ताकि बांग्लादेश के साथ उसके संबंध मजबूत रहें, उसके मूल हितों की रक्षा हो और वहां हिंदू समुदाय को सताया न जाए.
यूनुस का कांटों भरा ताज
वैसे, यूनुस बांग्लादेश में बढ़ती धार्मिक असहिष्णुता और चरमपंथ के आरोपों को खारिज करते हैं. प्रेस साक्षात्कारों में वे अपने मंत्रिमंडल की ओर ध्यान दिलाते हैं, जिसके बारे में उनका दावा है कि उसमें मानवाधिकार कार्यकर्ता से लेकर भिन्न विचारों के लोग भरे हुए हैं. मगर, बगावत की अगुआई करने वाले लोग और छात्र जब उमंग के साथ एकजुट हुए थे और अगस्त में अंतरिम सरकार की बागडोर संभालने के लिए जिस उत्साह से उनका स्वागत हुआ था, वह ज्वार अब ठंडा पड़ चुका है.
इसको लेकर चिंता बढ़ गई है कि क्या वाकई यूनुस के पास सत्ता की लगाम है या फिर देश में व्यापक संवैधानिक एवं वैचारिक बदलाव लाने के लिए बांग्लादेश की सेना के साथ काम करने वाले कट्टरपंथी छात्र नेताओं और पार्टियों का वे महज उदार मुखौटा भर हैं.
बांग्लादेश में भारत की एक पूर्व उच्चायुक्त वीणा सीकरी नई सरकार की कड़ी आलोचक हैं. वे कहती हैं, ''मुख्य सलाहकार फैसला लेने में या फिर उन्हें लागू करने में असमर्थ हैं. मौजूदा संविधान में ऐसी अंतरिम सरकार का कोई प्रावधान नहीं है. जाहिर है कि अब इस्लामवादी इस असंवैधानिक सरकार को चला रहे हैं.’’ नई सरकार की तानाशाही की मिसाल के तौर पर वे ध्यान दिलाती हैं कि हसीना के हटने के तुरंत बाद किस तरह बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ओबैदुल हसन और पांच अन्य जजों को इस्तीफा देने को मजबूर किया गया.
छात्र नेता न केवल देश की न्यायपालिका को नए सिरे से गठित करने की अपनी योजनाओं के साथ आगे बढ़े, बल्कि प्रमुख सरकारी संस्थानों से हसीना के कथित वफादारों को बाहर भी निकाल रहे हैं.
इस बीच, हसीना के जाने के बाद से बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था ढलान पर है. विश्व बैंक के अक्तूबर-मध्य के अनुमानों ने संकेत दिया कि जीडीपी की वृद्धि वित्त वर्ष 24 में 5.2 फीसद से गिरकर वित्त वर्ष 25 में 4.0 फीसद होने की संभावना है. खाद्य और ऊर्जा की भारी कीमतों की वजह से महंगाई वित्त वर्ष 24 में औसतन 9.5 थी और अब भी इसके ज्यादा रहने की उम्मीद है. खासकर शहरी इलाकों में बेरोजगारी की दर काफी ज्यादा है.
बड़े उद्योगों में नौकरियों का सृजन ठहर गया है, खासकर वस्त्र सेक्टर में जो बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है. विश्व बैंक की रिपोर्ट में तत्काल और साहसिक आर्थिक सुधारों की जरूरत पर भी जोर दिया गया है, मगर अंतरिम सरकार अभी तक वापसी के लिए कोई रोडमैप तैयार करने में नाकाम रही है. देश के बैंकों की हालत बेहद खस्ता है और बांग्लादेश के केंद्रीय बैंक के नए गवर्नर एहसान मंसूर ने दावा किया है कि हसीना के शासन के 15 वर्षों के दौरान देश की वित्तीय प्रणाली से तकरीबन 17 अरब डॉलर निकाले गए थे.
ऐसे में यूनुस के सामने न केवल राजनीति बल्कि डांवाडोल अर्थव्यवस्था को भी बहाल करने की बड़ी चुनौती है. यूनुस का दावा है कि उनकी सरकार को सुधारों को लागू करने का जनादेश मिला हुआ है. सितंबर में उन्होंने छह अहम क्षेत्रों में सुधार के लिए छह आयोगों का गठन किया है. ये क्षेत्र हैं चुनाव प्रणाली, पुलिस, न्यायपालिका, लोक प्रशासन, संविधान और भ्रष्टाचार-विरोधी उपाय. इन आयोगों की ओर से साल के अंत तक अपनी सिफारिशें पेश करने की उम्मीद है.
फिलहाल, बगावत के बाद गठित जातीय नागरिक समिति (राष्ट्रीय नागरिक समिति) और भेदभाव-विरोधी छात्र आंदोलन (एएसडीएम) संयुक्त रूप से व्यापक राजनैतिक तथा संवैधानिक बदलावों की वकालत कर रहे हैं. हसीना के खिलाफ बगावत की अगुआई करने वाले एडीएसएम के तीन छात्र नेताओं को अंतरिम सरकार में सलाहकार के रूप में शामिल किया गया है और उन्हें कई विभाग सौंप दिए गए हैं.
उनमें एडीएसएम के संपर्क समिति के समन्वयक महफूज आलम सबसे अहम हैं और वे अब यूनुस के सहायक हैं. सितंबर में न्यूयॉर्क में आयोजित क्लिंटन ग्लोबल इनिशिएटिव समारोह में यूनुस उन्हें मंच पर ले गए और हसीना को हटाने के लिए ''बेहद सावधानीपूर्वक तैयार’’ किए गए विरोध-प्रदर्शनों के 'मुख्य रणनीतिकार’ के रूप में उन्हें पेश किया. भारतीय सूत्रों का आरोप है कि जमात के छात्र विंग इस्लामी छात्र शिबिर और प्रतिबंधित चरमपंथी समूह हिज्बुत तहरीर के साथ आलम के रिश्ते रहे हैं.
सीकरी की मानें तो यूनुस का बयान साबित करता है कि छात्र-आंदोलन स्वत:स्फूर्त विद्रोह नहीं था, बल्कि हसीना को हटाने के लिए शक्तिशाली घरेलू एवं अंतरराष्ट्रीय ताकतों ने उसे भड़काया. भारतीय खुफिया सूत्रों का दावा है कि एक अन्य कट्टरपंथी संगठन छात्र शिबिर और हिफाजत-ए-इस्लाम बांग्लादेश के काडरों ने सेना के अधिकारी कोर में घुसपैठ कर ली है. बांग्लादेश की सेना ने हसीना को और अधिक सुरक्षा देने से हाथ पीछे खींचकर या दंगा कर रहे छात्रों के खिलाफ कार्रवाई करने से इनकार करके हसीना को सत्ता से बेदखल करने में अहम भूमिका निभाई थी.
नामचीन राजनीतिविज्ञानी और हाल में बांग्लादेश के संवैधानिक सुधार आयोग के प्रमुख बनाए गए अली रियाज से आश्वासन मिलता है कि बांग्लादेश अपने संवैधानिक मूल्यों को पूरी तरह नहीं बदलेगा. रियाज ने जोर दिया है, ''बांग्लादेश का सर्वोत्तम हित इसी में है कि यह बहुलवादी और समावेशी बना रहे. हमारी सिफारिश यही होगी कि बहुलवाद देश की नींव है और इसके साथ कोई छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए. किसी भी तरह की भिन्नता और मतभेद के बावजूद, देश में हर किसी को एक समान अवसर मिलना चाहिए.’’ यह देखा जाना बाकी है कि क्या उनके विचारों को स्वीकृति मिलती है.
इस बीच, मुख्यधारा की पार्टियां, खासकर बीएनपी, चाहती हैं कि चुनाव जल्दी हों, न कि एक साल बाद जैसा कि यूनुस और छात्र नेताओं ने संकेत दिया है. अवामी लीग की बर्बादी से खाली हुई जगह को बीएनपी तेजी से भरना चाहती है और इसने पहले ही स्थानीय स्तर पर ट्रेड यूनियनों तथा इसी तरह के निकायों पर कब्जा कर लिया है. इसके कार्यवाहक अध्यक्ष और पूर्व राष्ट्रपति जियाउर रहमान तथा पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया के 57 वर्षीय बेटे तारिक रहमान लंदन में अपने निर्वासन से वर्षों बाद अब जनवरी में ढाका लौटने के लिए तैयार हैं.
उनके खिलाफ दर्ज कई मामले 10 दिसंबर को हटा लिए गए. बीएनपी यूनुस पर अगले छह महीनों में चुनाव कराने के लिए जोर डाल रही है. बीएनपी के एक प्रमुख नेता सलाहुद्दीन अहमद कहते हैं, ''हमें नहीं लगता कि अंतरिम सरकार मई से आगे कोई देरी कर सकती है. देश को जिन सुधारों की दरकार है, उन्हें केवल लोकतांत्रिक ढंग से चुनी सरकार ही लागू कर सकती है.’’
वहीं, जमात चाहती है कि चुनाव देर से कराए जाएं ताकि उसे खुद को फिर से खड़ा करने का काफी वक्त मिल जाए. वैसे, बीएनपी और जमात, दोनों को आलम सरीखे छात्र नेताओं की महत्वाकांक्षाओं से जूझना होगा, जो चुनाव लड़ने तथा एक नया राष्ट्र बनाने के लिए खुद का सियासी संगठन बनाने की मंशा रखते हैं.
इधर ढाका में केवल दीवारों पर की गई चित्रकारी और भित्तिचित्र ही आंदोलन की याद दिलाते हैं जिसमें करीब 2,000 लोगों के मारे जाने का दावा है. पुराना पलटन क्रॉसिंग के मुख्य इलाके, गुलशन और धानमंडी के पॉश इलाके तथा विशाल हाटिरझील के किनारे सुंदर कैफे फिर जीवंत हो उठे हैं. अवामी लीग का पार्टी कार्यालय गणभवन वीरान पड़ा है. कभी राष्ट्रपिता कहे जाने वाले मुजीबुर्रहमान को उस ऊंची जगह से हटा दिया गया.
अगस्त में प्रदर्शनकारियों ने उनकी विशालकाय प्रतिमा गिरा दी थी और अब उसके दो पैर ही बचे हैं. शानदार जातीय संसद भवन यानी संसद गतिविधियों से गुलजार रहता था, अब वीरान नजर आता है. आने वाले साल में कौन-सी पार्टी इन परिसरों पर कब्जा करेगी, उसी से इस देश के इतिहास के अगले पन्ने लिखे जाएंगे. वह एक नया बांग्लादेश होगा और भारत को उससे निबटने के नए तरीके खोजने होंगे.
—अर्कमय दत्ता मजूमदार